परमात्मा से प्रार्थना है कि हिंदी का मार्ग निष्कंटक करें। - हरगोविंद सिंह।
हमने अपने हाथों में (काव्य)    Print  
Author:उदयभानु हंस | Uday Bhanu Hans
 

हमने अपने हाथों में जब धनुष सँभाला है,
बाँध कर के सागर को रास्ता निकाला है।

हर दुखी की सेवा ही है मेरे लिए पूजा,
झोपड़ी गरीबों की अब मेरा शिवाला है।

अब करें शिकायत क्या, दोष भी किसे दें हम?
घर के ही चिरागों ने घर को फूँक डाला है।

कौन अब सुनाएगा दर्द हम को माटी का,
'प्रेमचंद' गूंगा है, लापता 'निराला' है।

झोपड़ी की आहों से महल भस्म हो जाते,
निर्धनों के आँसू में जल नही है ज्वाला है।

मैंने अनुभवों का रस जो लिया है जीवन से,
कुछ भरा है गीतों में, कुछ ग़ज़ल में ढाला है।

आदमी का जीवन तो बुलबुला है पानी का,
घर जिसे समझते हो, एक धर्मशाला है।

दीप या पतंगे हों, दोनों साथ जलते हैं,
प्यार करने वालों का ढंग ही निराला है ।

फिर से लौट जाएगा आदमी गुफाओं में,
'हंस' जल्दी ऐसा भी वक्त आने वाला है ।

- उदयभानु हंस
राजकवि हरियाणा

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