जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।
स्वप्न बंधन  (काव्य)    Print  
Author:सुमित्रानंदन पंत | Sumitranandan Pant
 

बाँध लिया तुमने प्राणों को फूलों के बंधन में
एक मधुर जीवित आभा सी लिपट गई तुम मन में!
बाँध लिया तुमने मुझको स्वप्नों के आलिंगन में!

तन की सौ शोभाएँ सन्मुख चलती फिरती लगतीं
सौ-सौ रंगों में, भावों में तुम्हें कल्पना रँगती,
मानसि, तुम सौ बार एक ही क्षण में मन में जगती!

तुम्हें स्मरण कर जी उठते यदि स्वप्न आँक उर में छवि,
तो आश्चर्य प्राण बन जावें गान, हृदय प्रणयी कवि?
तुम्हें देख कर स्निग्ध चाँदनी भी जो बरसावे रवि!

तुम सौरभ-सी सहज मधुर बरबस बस जाती मन में,
पतझर में लाती वसंत, रस-स्रोत विरस जीवन में,
तुम प्राणों में प्रणय, गीत बन जाती उर कंपन में!

तुम देही हो? दीपक लौ-सी दुबली कनक छबीली,
मौन मधुरिमा भरी, लाज ही-सी साकार लजीली,
तुम नारी हो? स्वप्न कल्पना सी सुकुमार सजीली ?

तुम्हें देखने शोभा ही ज्यों लहरी सी उठ आई,
तनिमा, अंग भंगिमा बन मृदु देही बीच समाई!
कोमलता कोमल अंगों में पहिले तन घर पाई!

- सुमित्रानंदन पंत

[कवि-भारती, साहित्य-सदन, झाँसी]

Back
 
 
Post Comment
 
  Captcha
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश