यह संदेह निर्मूल है कि हिंदीवाले उर्दू का नाश चाहते हैं। - राजेन्द्र प्रसाद।
संकेतों की भाषा (काव्य)    Print  
Author:लक्ष्मी शंकर वाजपेयी
 

वे चार पांच के समूह में…
बातें करते हैं संकेतों की भाषा में…
देखते बनती है उनके हाथों और उँगलियों के संचालन की मुद्राएं और उनकी गति भी…
वे बहुत गहरे डूबे हैं अपने वार्तालाप में
तरह-तरह के भाव उभरते हैं उनके चेहरों पर…
उनकी इस अनूठी बातचीत का दृश्य बनाता है
अजीब कौतूहल का वातावरण…
विस्मित हो देखते हैं आसपास के लोग
दयाभाव से लेकर उपहास तक के मिश्रित भावों से…
फिर आपस में फुसफुसाते हैं…
“गूंगे हैं…”, एक कहता है दूसरे से…
उन्हें दिखता है सिर्फ गूंगापन..!
वे सुन ही नहीं पाते
कि इस वार्तालाप में
ज़िन्दगी कैसे चहक-चहक कर बोल रही है..!!

-लक्ष्मी शंकर वाजपेयी

Back
 
 
Post Comment
 
  Captcha
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश