अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
अशेष दान  (काव्य)    Print  
Author:रबीन्द्रनाथ टैगोर | Rabindranath Tagore
 

किया है तुमने मुझे अशेष, तुम्हारी लीला यह भगवान!
रिक्त कर-कर यह भंगुर पात्र, सदा करते नवजीवन दान॥
लिए करमें यह नन्हीं वेणु, बजाते तुम गिरि-सरि-तट धूम।
बहे जिससे नित नूतन तान, भरा ऐसा कुछ इसमें प्राण॥
तुम्हारा पाकर अमृत-स्पर्श, पुलकता उर हो सीमाहीन।
फूट पड़ती वाणी से सतत, अनिर्वचनीय मनोरम तान॥
इसी नन्ही मुट्ठी में मुझे, दिए हैं तुमने निशिदिन दान।
गए हैं देते युग-युग बीत, यहाँ रहता है फिर भी स्थान॥

- रबीन्द्रनाथ टैगोर
  भावानुवाद :  सुधीन्द्र
  [विशाल भारत, 1942]

 

Back
 
 
Post Comment
 
  Captcha
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश