अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
प्राण रहते (काव्य)    Print  
Author:भवानी प्रसाद मिश्र | Bhawani Prasad Mishra
 

प्राण रहते
चाहता हूँ ओंठ पर नित गान रहते
भाग्य का यह चक्र फिरता या न फिरता
नभ बरसता फूल अथवा गाज गिरता
जय-पराजय में अगर हम शीस उन्नत नष्ट शंका
वज्र पुष्प समान सहते!
प्राण रहते!!

कठिन क्षण में सहज गति होती हमारी
और धीरज मति नहीं खोती हमारी
प्रलय-पारावार वीचि-विलास होता
ढंग से पतवार चलती
जलधि-भर जलयान बहत !
प्राण रहते!!

लोग देते साथ अथवा छोड़ देते
किन्तु हम नाता प्रलय से जोड़ लेते
हाथ मानो पकड़कर तूफ़ान का हम
बढ़ रही हर लहर को सोपान कहते!
प्राण रहते!!

- भवानी प्रसाद मिश्र

[20 दिसंबर 1947]

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