यह संदेह निर्मूल है कि हिंदीवाले उर्दू का नाश चाहते हैं। - राजेन्द्र प्रसाद।
आम आदमी तो हम भी हैं (काव्य)    Print  
Author:श्रद्धांजलि हजगैबी-बिहारी | Shradhanjali Hajgaybee-Beeharry
 

नहीं आती हँसी अब हर बात पर
लेकिन ये मत समझना कि मुझे कोई दर्द या ग़म है
बस नहीं आती हँसी अब
हर बात पर

अगर हँस दें, कहीं तुम ये न समझ बैठो
कि मैं खुश हूँ अपनी हालात पर नहीं तो ठहाके लगाना हमें भी आता है

हाँ, तकलीफ़ बहुत हैं
वो ही, जो हर आम आदमी की होती है
अब आपको क्या गिनाऊँ--
ये तो अब घर-घर की कहानी है
लेकिन ये मत समझना कि मुझे कोई दर्द या ग़म है 
बस नहीं आती हँसी अब हर बात पर

लेकिन अब डर लगता है, डर लगता है 
उन शातिरों से जो अंदर तक झाँककर
मेरी रूह को निगल जाती है
डर लगता है 
उस निकटता से जिसमें डसने वाला एहसास है
डर लगता है 
उन वायदों से जिससे सड़न-सी बदबू आती है
डर लगता है
उन खुशियों से जिसमें दिए नहीं हम खुद जल जाते हैं

डर लगता है ... अपनी औकात से
जो ज़िंदगी भर वो ही की वो रह जाती है
खूँटियों पर टंगे फटे चद्दर-सी

सालों पहले लिखे स्टेटस को ही
अपडेट कर लेते हैं बार-बार साल-दर-साल क्योंकि नया तो कुछ भी नहीं न ही सोच बदली न ही दशा, न दिशा
खड़े तो हम अब भी वहीं हैं
जहाँ से सफ़र की शुरुआत की थी, तो फिर स्टेटस क्या बदलें जब स्टेटस ही नहीं बदला....
लेकिन चेहरा छुपाए वो स्माइली वाली मुस्कान देना
अब सीख चुके हैं
सीख चुके क्या ..अब तो आदत सी हो गई है ..
क्योंकि आम आदमी तो हम भी हैं 

आम आदमी तो हम भी हैं
फिर भी पता नहीं क्यों
नहीं आती हँसी अब हर बात पर 

- श्रद्धांजलि हजगैबी-बिहारी
  ईमेल : hajgaybeeanjali@gmail.com

Back
 
 
Post Comment
 
  Captcha
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश