अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
चलो चलें उस पार (काव्य)    Print  
Author:अमरजीत कौर कंवल | फीजी
 

चलों चलें उस पार
झर झर करते झरने हों जहाँ
बहती हो नदिया की धारा
जीवन के चंद पल हों अपने
कर लें हम प्रकृति से प्यार

क्या रखा परदों के पीछे
चार दीवारी के चेहरे हैं
न प्रभात की लाली दिखती
न सिंदूरी साँझ के तार

सीमित और सँगीन महल ये
अंधेरी हर मन की नगरी
कैसी ये हिलजुल चिलमन की
थक गईं पलकें पँथ निहार

न समीर सुखदायक निर्मल
तन मन पीड़ित इस नगरी में
पतझड़ सा जीवन लगता है
न जाने कब आए बहार

साँझ की किरणें ले काली चादर
डगर डगर हर नगर गाँव में
सन्नाटे की मूक वाणी से
छा जातीं हर गली-द्वार

तरस रहे हैं अधीर ये नैनां
झिलमिल तारों की पाने को
चाँदी की चुनरी जो ओढ़े
करते कुदरत का सिंगार

जुआर भावों की चढ़ चढ़ उतरे
बिजली कौंधे, घन काले छाए
दमकें, खेलें आंख मिचौली
शायद कभी तो बरसे फुहार

वन उपवन सब धुल जाएंगे
महक बिखेरे हर फुलवाड़ी
पुष्पों के मुख मोती बन कर
चमकेंगे तब वे पल चार

लौटेंगी जब मुग्ध निगाहें
परदीली दुनिया के अन्दर
कौतूहल बस मन में होगी
फिर छाएगा वही अंधियार
चलो चलें उस पार

-अमरजीत कौर कंवल, फीजी

 

Back
 
 
Post Comment
 
  Captcha
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश