यदि पक्षपात की दृष्टि से न देखा जाये तो उर्दू भी हिंदी का ही एक रूप है। - शिवनंदन सहाय।
प्रेम पर दोहे  (काव्य)    Print  
Author:कबीरदास | Kabirdas
 

प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा-परजा जेहि रुचै, सीस देइ लै जाय॥

प्रेम-प्रेम सब कोइ कहै, प्रेम न चीन्हे कोय।
आठ पहर भीना रहे, प्रेम कहावै सोय॥

प्रीतम को पतियाँ लिखूँ, जो कहु होय विदेस ।
तन में, मन में, नैन में, ताको कहा सँदेश॥

कबिरा प्याला प्रेम का, अन्तर लिया लगाय ।
रोम-रोम मे रमि रहा, और अमल क्या खाय॥

जहाँ प्रेम तहँ नेम नहि, तहाँ न बुधि व्यौहार।
प्रेम-मगन जब मन भया, कौन गिनै तिथि बार॥

प्रेम छिपाये ना छिपै, जा घट परघट होय।
जोपै मुख बोले नहीं, नैन देत है रोय॥

जो घट प्रेम न संचरे, सो घट जान मसान।
जैसे खाल लुहार की, साँस लेत बिनु प्रान ॥

-कबीर

Back
 
 
Post Comment
 
  Captcha
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश