अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
उतने सूर्यास्त के उतने आसमान (काव्य)    Print  
Author:आलोक धन्वा
 

उतने सूर्यास्त के उतने आसमान
उनके उतने रंग
लम्बी सड़कों पर शाम
धीरे बहुत धीरे छा रही शाम
होटलों के आसपास
खिली हुई रोशनी
लोगों की भीड़
दूर तक दिखाई देते उनके चेहरे
उनके कंधे, जानी-पहचानी आवाज़ें
कभी लिखेंगे कवि इसी देश में
इन्हें भी घटनाओं की तरह।

-आलोक धन्वा

 

Back
 
 
Post Comment
 
  Captcha
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश