जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।
चूहे की कहानी (कथा-कहानी)    Print  
Author:भारत-दर्शन संकलन | Collections
 

एक विशाल घने जंगल में एक महात्मा की कुटिया थी और उसमें एक चूहा रहा करता था। महात्मा उसे बहुत प्यार करते थे। जब पूजा से निवृत हो वे अपनी मृगछाला पर आ बैठते तो चूहा दौड़ता हुआ उनके पास आ पहुँचता। कभी उनकी टाँगो पर दौड़ता, कभी कूद कर उनके कंधों पर चढ़ बैठता। महात्मा सारे वक्त हँसते रहते। धीरे-धीरे उन्होंने चूहे को मनुष्यों की तरह बोलना भी सिखा दिया ।

एक बार उस चूहे के छोटे से दिल में बलवान बनने की लालसा पदा हुई। वह बोला -
"महाराज, बिल्ली के दाँत कितने तेज़ होते है। उसके पंजों में इतनी ताकत है कि झपट्टे में चूहे को दबोच लेती है और मार कर खा जाती है। बिल्ली से सब चूहे डरते हैं। चूहे से कोई नहीं डरता।"

महाराज हँसने लगे, बोले "फिर तू क्या चाहता है?"

महाराज कोई ऐसा उपाय करें जिससे मैं बिल्ली बन जाऊँ।" "बिल्ली बन कर क्या करेगा ?"

"फिर मुझ से सभी डरेंगे। फिर मैं बिल्ली बन कर बिल्ली से लड़ूँगा। उससे चूहों का बदला लूंगा। उसने हम पर बड़े अत्याचार किए है। वह सैकड़ों चूहे खा चुकी है।"

उन महात्मा में ऐसी शक्ति थी कि वह अपने योगबल से एक जीव को दूसरे जीव में बदल सकते थे। उन्होंने चूहे को बहुतेरा समझाया कि केवल पशु-शक्ति से ही कोई बलवान नहीं बन जाता, मगर चूहा नहीं माना। तब उन्होंने अपने कमण्डल में से थोड़ा गंगाजल निकाला, उसकी कुछ बूंदें चूहे पर छिड़की फिर अपना दायाँ हाथ ऊपर उठा कर बोले "तथास्तु ।'

और देखते ही देखते वहाँ पर एक सफेद रंग की बिल्ली आन खड़ी हुई। नीली-नीली आँखें छोटा-सा मुंह, मुलायम और सफेद बर्फ़ जैसी खाल । उसे देकर साधु महाराज भी हैरान रह गए। क्षण भर तो वह महाराज के मामने खड़ी रही फिर झपट्टा मार कर चूहे के बिल की ओर लपकी। मगर बिल को खाली देखकर चूहों की खोज में कुटिया से बाहर चली आई।
बिल्ली बनते ही वह बिल्लियों से बदला लेना भूल गई, उलटे चूहों पर ही टूट पड़ी। जहाँ कोई चूहा नजर आता। उसे काट खाती। हर वक़्त उनका मुंह और पंजे खून से सने रहते। ।

पर धीरे -धीरे वह फिर असन्तुष्ट रहने लगी।

एक दिन जब साधु महाराज गंगा तट से लौटकर आए तो बिल्ली छत पर बैठी रो रही थी। कहने लगी - "महाराज, असल ताकत तो कुत्ते में होती है, उसके सामने बिल्ली की क्या गति? जब आप चले जाते हैं तो एक कुत्ता मुझे खाने को दौडता है। उससे सब डरते हैं, बिल्ली की खाल को वह देखते ही देखते उधेड़ डालता है,
उसके दाँत मोटी-मोटी हड्डियाँ भी तोड़ डालते है। महाराज, मैं बलवान बनना चाहती हूँ। आप मुझे कुत्ता बना दें।"

महाराज कुछ कहना चाहते थे, मगर चुप रहे और चुपचाप कमण्डल में से गंगाजल की बूंदें बिल्ली पर छिड़ककर "तथास्तु' कह दिया। देखते ही देखते बिल्ली के स्थान पर एक डबियाले रंग का कुत्ता अपने कान और पूंछ हिलाता हुआ आन खड़ा हुआ। पतली टांगें, तेज नुकीले दाँत, आगे को बढ़ा हुआ नथना।

बस फिर क्या था। कुटिया के बाहर रोज हड्डियों के ढेर लगने लगे। कभी गिलहरी, कभी खरगोश, कभी बिल्ली, जो कोई मिलता कुत्ता उसे झपट कर मार डालता और अपने तेज नुकीले दांतों से उसकी बोटी-बोटी चबा जाता। कुटिया के बाहर जमीन पर खून के धब्बे ही धब्बे नज़र आने लगे।

मगर एक दिन जब महाराज कुटिया में मृगछाली पर बैठे विश्राम कर रहे थे तो उन्होंने देखा कि कुत्ता दूर जंगल से रोता-कराहता चला आ रहा। है। उसका एक कान कटा हुआ था और शरीर पर जगह-जगह से खून बह रहा था।

महाराज आसन छोड़कर उठ खड़े हुए और उसे अन्दर लिवा लाए।

"क्या हुआ? तेरी यह दशा किसने की?"
महाराज, रीछ बड़ा बलवान जानवर है। उसमें असल ताकत है। अगर मैं भाग नहीं आया होता तो वह मुझे आज मार खाता।"
महाराज ने कुत्ते के जख्म धोये, मगर कुत्ता बार -बार जमीन पर पाँव पटक-पटक कर कहता गया - "महाराज, रीछ से सब डरते है। मेरे भी उस जैसे तेज़ नख और पंजे होते तो मुझसे भी सब डरते। रीछ किसी को अपनी बाँहों में ले ले तो उसकी हड्डियां तोड़ डालता है। कुत्ते, बिल्ली को तो वह एक झपट्टे में मारे डालता है।"

महाराज कुत्ते का अभिप्राय समझ गए, और हँसते हुए उस पर गंगाजल छिड़क दिया और उसे रीछ बना दिया।

रीछ बनते ही पहले तो वह साधु महाराज पर गुर्राया। यदि साधु महाराज में योगबल न होता तो वह पहले उन्हीं पर अपने पंजे चलाता। अपनी शक्ति से वह मतवाला हो उठा। लाल आँखें, भयानक काला शरीर, लम्बे-लम्बे नख, मोटा नथना, भागा हुआ वह वन में चला गया, और सब छोटे-छोटे जानवरों पर अपना हाथ साफ करने लगा।

मगर उस जीव की शक्ति की भूख कब मिटने वाली थी। थोड़े ही दिनों में उसे अपने से बलिष्ठ भालू नजर आया, फिर चीता, फिर वाघ। एक- एक करके वह सभी में बदलता गया। उस जंगल में शेर न था, नहीं तो वह शेर बन कर सबसे शक्तिशाली बनना चाहता।

आखिर वह एक रोज महाराज के सामने हाथ बाँध कर बोला- "महाराज, मैंने देख लिया है। वन में सबसे शक्तिशाली जीव हाथी है। उस की शक्ति की कोई सीमा नहीं। वह अपनी सूंड से बड़े- बड़े पशुओं को पटक देता है। एक-एक पदाघात से ऊंचे-ऊंचे पेड़ तोड़ फेंकता है। उसके दाँत कितने लम्बे है । आप मुझे हाथी बना दें। यह मेरी अंतिम प्रार्थना होगी।"

सोच ले, मूर्ख, फिर तो भागा-भागा मेरे पास नहीं आएगा?"

नहीं महाराज, अब कभी नहीं आऊँगा। आप मुझे हाथी बना दे।" महाराज ने हँसते हुए अपना मंत्र पढ़ दिया और गंगाजल छिड़क दिया।

कुटिया के बाहर एक ऊँचा, अँधियारे रंग का भीमकाय हाथी झूमने लगा। कद में कुटिया से भी ऊँचा, लम्बे-लम्बे दो दाँत, विकराल देह, स्थूल बोझल टाँगे।

हाथी चिंघाड़ता हुआ वन की ओर दौड़ा। उसकी शक्ति को पार न था। जंगल के जिस भाग में जाता, पशु वहाँ से भाग खड़े होते। उसकी चिंघाड़ को सुन कर पेड़ों पर बैठे हुए पक्षी थर-थर काँपते हुए उड़ने लगे। पेड़, पौधे झाड़ियाँ उखाड़ता हुआ बड़े-बड़े पशुओं को अपने पाँव के नीचे कुचलने लगा। उसके अत्याचार से सारे वन में कोहराम मच गया।

और एक दिन, वह इस तरह गर्व से चिंघाडता हुआ एक वृक्ष कुंज को तहस-नहस करके बाहर निकल रहा था कि सहसा उसका पाँव उखड़ गया और वह धड़ाम से एक गड्डे में जा गिरा। उसके गड्डे में गिरने की देर थी कि जंगल में बहुत में मनुष्यों की आवाजें आने लगी, और देखते ही देखते बीसियों आदमी हाथों में रस्से, बरछे और तरह-तरह के हथियार उठाए मुंह पर मुश्के बंधे, गड्डे के इर्द-गिर्द आन खड़े हुए। गड्डे में गिरते ही हाथी के दोनों दोनों दाँत की गड्डे की दीवार के साथ टकरा कर टूट गये थे। उसके माथे और टांगों पर गहरी चोट आई थी, और वह दर्द से कराहने लगा था। उसने गड्डे में से निकालने की बहुतेरी कोशिश की मगर ज्योंही गड्डे की दीवार के साथ अपने पाँव लगाकर उठने या प्रयत्न करता, उसी समय उस पर बरछे और भालो के प्रहार होने लगते। हाथी दर्द और क्रोध से पागल हो उठा।

जब शिकारियों ने देखा कि हाथी काबू में आ गया है तो उस पर रस्से फेंकने लगे। गड्डे की एक दीवार लकड़ी की थी, उसे तोड़ कर शिकारी हाथी को बाँधे उसे मारते-घसीटते बाहर निकालने लगे । एक आदमी उसकी गर्दन पर तेज कटार लेकर आ बैठा। रस्सों से उसके पिछले दोनों पाँव एक साथ बांध दिए गए। इस प्रकार हाँकते हुए वह हाथी को जंगल से बाहर ले जाने लगे।

इतने में शाम पड गई और चारों ओर अँधेरा छा गया। एक स्थान पर शिकारी रुक गए और हाथी के पाँव को मोटे-मोटे रस्सों से एक वटवृक्ष के तने के साथ बाँध कर यह सोचकर कि उसे कल खींच कर शहर को ले जाएंगे, वह जंगल में से बाहर चले गए।

रात गहरी होने लगी। भूख और शरीर की पीड़ा से व्याकुल हो हाथी बार-बार चिंघाडने लगता, मगर जंगल में उसकी आवाज चारों दिशाओं में घूम कर लौट आती। उसका क्रन्दन शून्यता को भंग करता हुआ फिर शून्यता ही में खो जाता। वह बार-बार अपने जी में कहता--"जो मुझे मालूम होता कि हाथी से भी कोई बड़ी चीज जीव है तो मैं शिकारी बनता। काश कि साधु महाराज को मेरी दशा का ज्ञान हो जाए।

इतने में हाथी को ऐसे भास हुआ जैसे उसके पिछले पांव पर खुजली हुई है। हाथी ने कोई ध्यान न दिया। फिर खुजली हुई, फिर भी उसने कोई ध्यान न दिया। फिर ऐसा जान पड़ा जैसे उसके पिछले पाँव पर से कोई हल्की-हल्की आवाज कर रहा है। आकाश में चाँद खिल उठा था। सिर झुका कर हाथी ने अपने पाँव की ओर देखा। क्या देखता है कि एक नन्हा-सा चूहा उसके पाँव पर चढ़ा हुआ है। हाथी को पहले तो क्रोध आया और जी चाहा कि उसे वही पर मसल दे। मगर आकाश में छिटकी चाँदनी में जब उसने चूहे की ओर दोबारा देखा तो देखकर हैरान रह गया । नन्हा-सा चूहा उसके पाँव पर बैठा, अपने नन्हे-नन्हे दांतों से उसकी रस्सियाँ काट रहा था। हाथी आँखें फाड़-फाड़ कर उसकी तरफ देखने लगा। यह चूहा कौन है? क्यों मेरे बन्धन काट रहा है? हाथी बार-बार सोचता और हैरान हो उठता।

रात बीत चली। धीरे-धीरे पौ फटने लगे। पूर्व की ओर आकाश का रंग सुनहला होने लगा। जब सूर्य देव ने क्षितिज पर दर्शन दिए और उनकी पहली किरणों ने जंगल पर अपना स्वर्ण बखेरना शुरू किया तो जंगल में शिकारियों की हू-हू-हा-हा फिर सुनाई पड़ने लगी। हाथी काँप उठा।

मगर ठीक उसी वक्त उसकी रस्सी का आखिरी फन्दा भी टूट कर अलग हो गया, और उसका शरीर आज़ाद हो गया।

हाथी ने कृतज्ञता से झुक कर चूहे की ओर देखा मगर चूहे का वहाँ नाम निशान न था। रस्सियाँ काटते ही वह चुपचाप कहीं चल दिया था।

हाथी उछलता-कूदता साधु महाराज की कुटिया की ओर भाग खड़ा हुआ ।
सन्ध्योपासना से निवृत हो साधु महाराज कमण्डल उठाए, गंगा तट को जाने के लिए तैयार थे जब उनकी कुटिया के सामने हाथी आन खड़ा हुआ।

कहो गजराज, अब क्या है ?" साधु महाराज ने पूछा।

हाथी ने दोनों जानु पृथ्वी पर टेक अपनी सूंड को बार-बार ऊपर उठा महाराज को प्रणाम किया।
"महाराज, मैं आप से अंतिम वरदान की भिक्षा माँगने आया हूँ।"

महाराज ने उसे सिर से पाँव तक देखा।

"अब भी कोई लालसा बाकी है? क्या शिकारी बनना चाहते हो?"

"नहीं महाराज, आप मुझे फिर से चूहा बना दें।''

"चूहा? शक्ति के राजा से तुम चूहा बनना चाहते हो ?"

"हाँ, महाराज, मुझे मारनेवाली शक्ति नहीं चाहिए, मुझे ऐसी शक्ति दीजिए जिससे मैं औरों के बन्धन काट सकूँ।"

महाराज ने हँसते-हँसते उसी क्षण गंगाजल की बूंदे छिड़क दी, और अपना आशीर्वाद दे दिया।

-अज्ञात

 

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