जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।
प्रतीक्षा (काव्य)    Print  
Author:स्वरांगी साने
 

बेटी आने वाली है
यह सोच कर
उसकी आँखें सुपर बाजार हो जाती हैं
और वो सुपर वुमन।
पूरे मोहल्ले को खबर कर देती है
कहती है- दिन ही कितने बचे हैं, कितने काम हैं

कुछ उसके सामने
कुछ पीठ पीछे हँसते हैं
कि बेटी न हुई
शहज़ादी हो गई
पर उसके लिए तो
ब्याहता बेटी भी
किसी परी से कम नहीं होती।

आ जाती है बेटी
तो वो चक्कर घिन्नी हो जाती है।
याद कर-कर के बनाती है
बेटी की पसंद की चीज़ें

बेटी सुस्ताती है
इस कमरे से
उस कमरे में
पुराने दिनों की तरह
पूरे घर को बिखेर देती है
लेकिन वो कुछ नहीं कहती
जानती है बेटी के जाते ही
पूरा घर खाली हो जाएगा।

तब तक इस फैलाव में वो
दोनों का विस्तार देखती है।

बेटी के जाने के दिन आते ही
वो नसीहतें देने लगती है
डाँट-फटकार भी
कि कितना फैला दिया है
अब कैसे समेटेगी?

साथ में देती जाती है खुद ही कुछ-कुछ
ये भी रख ले, और ये भी
बेटी तुनकती रहती है
क्यों बढ़ा रही हो सामान मेरा

वो कुछ नहीं कहती
कैसे कह दे
कि
बेटी तो जाते हुए उसकी आंखें ही ले जा रही है
और छोड़े जा रही कोरी प्रतीक्षा।

- स्वरांगी साने
  ई-मेल: swaraangisane@gmail.com

Back
 
 
Post Comment
 
  Captcha
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश