देशभाषा की उन्नति से ही देशोन्नति होती है। - सुधाकर द्विवेदी।
 
जिल्दसाज़ (कथा-कहानी)       
Author:जगन्नाथ प्रसाद चौबे वनमाली

वह अधेड़ जिल्दसाज़ सबेरे से शाम तक और अँधेरा होने पर दिए की रोशनी में बड़ी रात तक, अपनी छोटी-सी दुकान में अकेला एक फुट लंबी चटाई पर बैठा किताबों की जिल्दें बाँधा करता। उसकी मोटी व भद्दी अँगुलियाँ बड़ी उतावली से अनवरत रंग-बिरंगे कागजों के पन्नों में उलझती रहतीं और उसकी धुंधली आँखें नीचे को झुकी काम में व्यस्त रहतीं।

जिल्दसाज़ का स्वभाव रूखा था व स्वर तीखा। ग्राहकों को अपनी मजूरी के जो दाम वह एक बार बता देता, उनमें कमी-बेशी न करने की उसे एक जिद-सी थी। लेकिन ग्राहक उसकी इस जिद और रुखाई पर भी उसके यहाँ किताबें डाल जाते; क्योंकि जिल्दसाज़ वास्तव में किताबों की जिल्द बहुत सुंदर बाँधता था। किताबों की जिल्द बाँधना ही उसके एकाकी विरक्त जीवन में सत्य था। और सत्य ही तो सुंदर होता है।

एक दिन सबेरे जिल्दसाज़ नित्य की भाँति अपनी दुकान में बैठा काम कर रहा था कि इतने में एक स्त्री उसके सामने आ खड़ी हुई। उसके साथ उसका आठ साल का बालक भी था।

स्त्री ने पूछा - 'क्यों जिल्दसाज़, रहीम की किताब की जिल्द तुम्हीं ने बाँधी है?' जिल्दसाज़ ने नजर ऊपर की।

रहीम? रहीम कौन? वह किसी रहीम को नहीं जानता। न जानने की उसे जरूरत ही है। यह कैसी पागल स्त्री है। काम की बात क्यों नहीं करती? उसके पास तो काम है। काम को लेकर ही वह जीता है। काम ही उसे सही रास्ते पर ले जा रहा है। उसके पास ऐसी कहाँ फुरसत, जो वह किसी से अपना सरोकार जोड़े। जिल्दसाज़ बोला - 'मुझे नहीं मालूम। तुम अपना काम बताओ।'

स्त्री जिल्दसाज़ के रूखे जवाब से झेंप गई। उसने बताया - 'भाई, रहीम की किताब की जिल्द देखकर मेरा लड़का भी अपनी फटी किताब की जिल्द बँधाने के लिए जिद पकड़े हुए है। यह रही किताब। बताओ, क्या लोगे?'

जिल्दसाज़ ने स्त्री के साथ से किताब लेकर उसे उल्टा-पल्टा। तब लापरवाही से उसने यह कह दिया - 'छै आने पैसे होंगे।'

जिल्दसाज़ के लिए सौदा तय रहा, इससे वह काम में लग गया।

पर स्त्री के पास तो पैसों का सवाल था।

वह बोली- 'भाई, छै आने तो बहुत होते हैं। मैं मेहनत-मजूरी करके पेट पालने वाली कहाँ से पाऊँगी? मुझसे तीन आने ले लेना। मैं तुम्हारा बड़ा गुन मानूँगी।'

जिल्दसाज़ भुनभुना उठा।

उसकी बात को दुलखने वाली यह स्त्री कौन होती है? उसकी बात आज तक किसी ने नहीं दुलखी। हमेशा उसे मुँह माँगे दाम मिले हैं। उसने जो चाहा है, वह ग्राहकों ने खुशी से दिया है। और क्यों न देंगे? वह क्या कोई काम में खोट करता है? तब इस स्त्री का उसकी हेठी करने का क्या मतलब? काम की बात में गुन-एहसान की क्या बात? उसका संबंध तो इस दुनिया से अब तक लेन देन का रहा है। वह तो केवल अपनी मजूरी और चोखे काम को चीन्हता है। उसे दया और एहसान की बात क्या मालूम?

जिल्दसाज़ ने बताया - 'छै आने से मैं एक कौड़ी भी कम नहीं लूँगा।'

स्त्री ने आजिजी की - 'भाई, खुदा तुम्हें बहुत देगा। तुम्हारी मेहरबानी से मेरे बच्चे का दिल रह जाएगा।'

जिल्दसाज़ इस बार चिढ़ गया।

खुदा? खुदा को वह क्या जानता है? कुल जमा उसने अपनी दुकान से ही जीने के लिए पूँजी पाई है। रोजगार, किताबें, कागज बस इन्हीं के बीच तो उसकी जिंदगी के लंबे-लंबे बरस कटे हैं। उसने तो कभी नहीं महसूस किया कि इस जिंदगी को चलाने के लिए खुदा की भी कहीं किसी तरह से जरूरत पड़ती है। तब खुदा क्या खाक मदद करेगा?

जिल्दसाज़ झल्लाकर बोला - 'मैं खुदा-उदा की बात नहीं जानता। जब तेरे पास पैसे ही नहीं थे, तब तू यहाँ क्यों आई? जा, सिर ना खा। काम करने दे।'

जिल्दसाज़ फिर किसी किताब के पन्ने ठीक जमाने लगा।

लेकिन इस तरह से डाँटे जाने पर भी स्त्री वहाँ से नहीं टली और उसका बालक भी उसी तरह घबराहट से अपनी माँ का हाथ पकड़े खड़ा रहा। स्त्री कभी काम करते जिल्दसाज़ को देखती और कभी उसकी निगाह जिल्दसाज़ की जालों और गर्द से भरी दुकान की दीवारों से टकराती। एकाएक कोई बात उसे सूझ गई।

स्त्री ने सहमते-सहमते पूछा - 'अच्छा, भाई बाकी बचे तीन आने में मैं तुम्हारी दुकान झाड़-बुहार दूँगी और जाले व गर्द साफ कर दूँगी। तब तो तुम मेरे बच्चे की किताब की जिल्द बाँध दोगे?'

जिल्दसाज़ अब सचमुच असमंजस में पड़ गया। ऐसा गरीब ग्राहक उसकी जिंदगी में अब तक नहीं गुजरा था। उसने काम छोड़ स्त्री पर निगाह डाली। अचानक उसकी दिल की बस्ती में नमी छा गई। उसने पहली बार स्त्री के दीन और निस्सहाय चेहरे को देखा। उसकी पैबंदों से भरी ओढ़नी को परखा। लड़के का मासूम और बेबस चेहरा भी उससे छिपा नहीं रहा। जिल्दसाज़ के अंतर में आज पहली बार रहम बरस पड़ा।

जिल्दसाज़ तब अपने को छिपाते हुए बोला - 'अच्छा दो किताब। मैं मुफ्त बाँध दूँगा। कल आकर तुम ले जाना।'

जिल्दसाज़ फिर किताब ले, बिना उस स्त्री और बालक की ओर देखे, झट कागजों की कतरन में कोई चीज खोजते खो गया।

(2)

दूसरे दिन वह स्त्री अपने बालक के साथ किताब लेने आई। जिल्दसाज़ ने किताब निकाल बालक को दे दी।

बालक किताब देख खुशी से नाच उठा।

बोला - 'इतनी सुंदर जिल्द तो माँ, रहीम की किताब की भी नहीं बँधी।'

माँ अपने बच्चे की खुशी में फूल उठी। वह जिल्दसाज़ से बोली - 'भाई खुदा तुम्हारी रोजी में बरकत दे।'

किंतु जिल्दसाज़ यह सब कुछ नहीं देख सुन रहा था। वह इस ध्यान में उलझा था कि इन दो परदेशियों से किसी अनजाने क्षण में उसकी जो पहचान जुड़ गई है, वह क्या यहीं टूटकर खत्म हो जाएगी? वह अब अपने अकेलेपन से ऊब उठा था। उसके लिए अब जगत का कोई अर्थ हो आया था। उसका मन अब रोजी को ही सब कुछ मानने से इनकार करने लगा। उसके अंदर एक निराली प्यास उठ आई थी। उसे मालूम पड़ रहा था कि वह प्यास किसी से अपना सरोकार जोड़कर ही शांत की जा सकती है।

जब स्त्री बंदगी करके चलने लगी, तब जिल्दसाज़-जैसा रूखा आदमी भी विकल हो उठा। उसने रुकते-रुकते कहा - 'तुम कहाँ रहती हो?'

स्त्री का जवाब हुआ - 'इसी मुहल्ले में रहती हूँ। आपकी दुकान से पंद्रह-बीस घर छोड़ करके।'

'तुम्हारे खाविंद क्या करते हैं?'- जिल्दसाज़ ये पूछते हुए इधर-उधर झाँक रहा था।

स्त्री ने बताया - 'मेरे खाविंद का इंतकाल हुए तो चार बरस होने आए।'

'तो तुम गुजर कैसे करती हो?' जिल्दसाज़ का यह तीसरा प्रश्न था।

स्त्री बोली - 'मैं बेलें बनाती हूँ बूटे काढ़ती हूँ और जरी का काम भी कर लेती हूँ। मगर आजकल यह मजूरी भी मुश्किल हो गई है।' जिल्दसाज़ न जाने कुछ देर तक क्या सोचता रहा। तब उसने कहा - 'तो सुनो। अगर तुम्हें उज्र न हो तो बगल वाला मेरा जो कमरा खाली है, उसमें तुम आकर रह सकती हो। मेरे लिए तुम रसोई बनाना। मैं ऊपर से तुम्हें चार रूपया महीना दूँगा।'

स्त्री एकबारगी इतनी ढेर-सी मेहरबानी न सह सकी। उसका सिर कृतज्ञता के भार से झुक गया। वह धीमे स्वर में बोली - 'शुक्रिया करती हूँ। आपने मुझ गरीब औरत को उबार लिया।'

आज जब स्त्री और उसका बालक खुश होते हुए घर चले गए, तब जिल्दसाज़ सूना-सा, खोया सा, लोगों की आती-जाती भीड़ को देखता अपनी उसी एक फुट चटाई पर सिकुड़ा अकेला बैठा था।

(3)

अगले दिन वह स्त्री अपने कपड़े लत्तों का एक टीन का बक्स, एक बिस्तर तथा दो-चार एलूमीनियम के बरतन ले जिल्दसाज़ के यहाँ चली आई।

जिल्दसाज़ की जिंदगी में एक नया जमाना आया। उसका बर्ताव अब अपने ग्राहकों से रूखा नहीं होता था। वह बड़ी मुलायमी से उनसे पेश आता। दामों के लिए भी वह अब पहले के समान जिद नहीं करता। उनमें कमी-बेशी करके भी वह लोगों की किताबें डाल लेता।

जिल्दसाज़ जब किताबों की जिल्द बाँधने बैठता, तब वह पहले जैसा एकाग्र चित्त नहीं रहता। बीच-बीच में वह बच्चे का पाठ सुनता और कभी उसके माँग करने पर उसे रंगीन कागजों की नावें व दवातें बनाकर देता। जिस दिन खेल तमाशा होता, उस दिन वह बालक को अपने साथ लिवा ले जाकर तरह-तरह के खिलौने व मिठाइयाँ दिला लाता।

शाम को जब वह काम से ऊब जाता, तब दुकान बंद कर देता। मुँह-हाथ धोकर नमाज पढ़ता व झुटपुटे में दुकान के चबूतरे पर बैठा आते-जाते लोगों को देखा करता और न जाने क्या सोचा करता।

रात होने पर वह बड़ी चाह से घर के भीतर रोटी खाने जाता। उसके साथ उस स्त्री का बालक रज्जब भी खाने बैठता। खाते-खाते जिल्दसाज़ भोजन की आलोचना करता और स्त्री शर्माती-सी उसकी बातों का जवाब देती। उस समय जिल्दसाज़ के नीरस-विरक्त जीवन में रस ही रस छलका दीख पड़ता।

एक दिन जिल्दसाज़ ने खाते-खाते रज्जब की माँ से पूछा - 'क्यों जी, तुम्हारा नाम क्या है? यह तो तुमने कभी नहीं बताया।'

स्त्री ने भेदभरी हँसी हँसकर कहा - 'नाम जानकर क्या करिएगा?'

जिल्दसाज़ जैसे पकड़ा गया। वह बोला - 'नाम का क्या किया जाता है? मैं उसी नाम से पुकारूँगा। और क्या?'

स्त्री ने तब चूल्हे की आग तेज करते हुए बताया - 'गुलशन'।

'अच्छा, तो मैं तुम्हें अब 'गुलशन कहकर पुकारूँगा।' जिल्दसाज़ ने बड़ी संजीदगी से कहा।

गुलशन के गोरे गाल लाल हो गए। सुंदर बाँकी आँखों में चिंता छा गई। उसने बड़ी धीमी महीन आवाज में कहा - 'नहीं नहीं। इस नाम से मेरे खाविंद मुझे पुकारा करते थे।'

जिल्दसाज़ के मुँह से निकला - 'तो?'

स्त्री कभी ऐसे आमने-सामने नहीं हुई थी। बोली - 'तो क्या?'

जिल्दसाज़ ने इस बार गुलशन की आँखों में आँखें डालकर कहा - 'तो तुम चाहती हो कि मैं तुम्हें उस नाम से न पुकारूँ? यह नहीं होने का। मैं तुमसे निकाह करना चाहता हूँ, पागलपन नहीं। बोलो, मंजूर है?'

रज्जब की माँ के लिए यह एक समस्या हो गई। अभी तक, आज तक उसने एक सेविका की भाँति जिल्दसाज़ को प्रसन्न रखने की कोशिश की थी। उसकी हँसी का अपनी हँसी से उत्तर दिया था।

गुलशन ने सफाई दी - 'मुझे माफी दो। मुझे इन काँटों में न घसीटो। मुझ बेकस को यों ही पड़ी रहने दो।'

जिल्दसाज़ का जोश गुलशन के जवाब से एकाएक ठंडा पड़ गया। लेकिन तब भी उसके भीतर के स्वर को ठेलते हुए जैसे उसने पूछा - 'तो क्या तुम मुझे बिल्कुल नहीं चाहतीं?'

'नहीं, सो बात नहीं। मैं तुम्हारी दिलोजान से सेवा करूँगी। तुम्हारी हँसी का जवाब हँसी से दूँगी। मगर तुमसे अर्ज है, तुम मुझसे मेरे खाविंद की याद ना छीनो।' गुलशन की सुंदर आँखों में करुणा बरस रही थी।

जिल्दसाज़ एकदम टूट गया। लेकिन बुझते दीपक के क्षणिक आलोक जैसे उत्तेजित स्वर में वह बोला - 'अभी तक मैंने इस दुनिया से कुछ नहीं पाया। आज आखिरी मर्तबा तुम्हें प्यार किया है, सो तुम भी मुझे ठुकराकर चूर-चूर कर देना चाहती हो। बोलो, क्या मैं तुम्हारी थोड़ी सी दया का भी अधिकारी नहीं?'

गुलशन बस इतना ही कह सकी - 'मुझे माफी दो'।

जिल्दसाज़ निरुत्तर हो गया।

मिलन के आरंभ में जिल्दसाज़ कठोर था और मिलन के अंत में रज्जब की माँ।

जिल्दसाज़ अब भी किताबों की जिल्द बाँधा करता था और अब भी उसके पास ग्राहक आते थे, किंतु अब न तो वह उतनी सुंदर जिल्दें बाँधता था और न उसके पास पहले जैसे ग्राहक आते थे।

-वनमाली
(विश्वमित्र, 1934)

Back
 
 
Post Comment
 
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश