देशभाषा की उन्नति से ही देशोन्नति होती है। - सुधाकर द्विवेदी।
 
अंतिम तीन दिन  (कथा-कहानी)       
Author:दिव्या माथुर

अपने ही घर में माया चूहे सी चुपचाप घुसी और सीधे अपने शयनकक्ष में जाकर बिस्तर पर बैठ गई; स्तब्ध। जीवन में आज पहली बार मानो सोच के घोड़ों की लगाम उसके हाथ से छूट गई थी। आराम का तो सवाल ही नहीं पैदा होता था; अब समय ही कहाँ बचा था कि वह सदा की भाँति सोफे पर बैठकर टेलिविजन पर कोई रहस्यपूर्ण टीवी धारावाहिक देखते हुए चाय की चुस्कियाँ लेती? हर पल कीमती था; तीन दिन के अंदर भला कोई अपने जीवन को कैसे समेट सकता है? पचपन वर्षों के संबंध, जी जान से बनाया यह घर, ये सारा ताम झाम, और बस केवल तीन दिन? मजाक है क्या? वह झल्ला उठी किंतु समय व्यर्थ करने का क्या लाभ? डॉक्टर ने उसे केवल तीन दिन की मोहलत दी थी; ढाई या सीढ़े तीन दिन की क्यों नहीं? उसने तो यह भी नहीं पूछा। माया प्रश्न नहीं पूछती, बस जुट जाती है तन मन धन से किसी भी आयोजन की तैयारी में; युद्ध स्तर पर।

बेटी महक यहाँ होती तो कहती, 'ममा, 'स्लो डाउन।' जीवन में माया ने अपने को सदैव मुस्तैद रखा कि न जाने कब कोई ऐसी-वैसी स्थिति का सामना करना पड़ जाए। खैर, तीन दिन बहुत होते हैं। एक हफ्ते में तो भगवान ने पूरी दुनिया रच डाली थी; बिगाड़ने के लिए तो एक तिहाई समय भी बहुत होना चाहिए। किंतु उसे बिगाड़ कर नहीं ये घर सँवार के छोड़ना है; संपत्ति को ऐसे बाँटना है कि किसी को यह महसूस न हो कि अंधा बाँटे रेवड़ी, भर अपने को दे। संसार से यूँ विदा लेनी है कि लोग याद करें; कमर कस कर वह उठ खड़ी हुई।

शयनकक्ष में लगी तीनों अल्मारियों के पलड़े खोलकर माया लगी अपनी भारी साड़ियों, सूटों और गर्म कपड़ों को पलंग पर फेंकने; जैसे उस ढेर में दबा डालेगी अपनी दुश्चिंता। छोटे बेटे वरुण की शादी को अभी एक साल भी तो नहीं हुआ; कितने सामान खरीद डाला था माया ने; जैसे अपनी सारी इच्छाओं को वह एक ही झटके में पूरा कर लेना चाहती हो। 'हे भगवान, अब क्या होगा इन सबका?' समय होता तो वह भारत जाके बहन-भाभियों में बाँट देती। ऑक्सफैम में जाने लायक नहीं हैं ये कीमती साड़ियाँ किंतु उसकी बहुओं और बेटी को 'इंडियन' पहनावे से क्या लेना देना?

रुपहली नैट की गुलाबी साड़ी को चेहरे से लगाए माया सोच रही थी कि इसे पहनने के लिए उसने अपना पूरा पाँच किलो वजन घटाया था। मुँह माँगे दाम पर खरीदी थी यह साड़ी उसने रितु कुमार से। छोटी बहन तो बस दीवानी हो गई थी, 'जीजी, इस साड़ी से जब आपका दिल भर जाए तो हमें दे दीजिएगा, प्लीज।' उसे तब ही दे देती तो छोटी कितनी खुश हो जाती पर तब उसने सोचा था कि इसे पहन कर पहले वह अपने लंदन और योरोप के मित्रों की चर्चा का विषय बन जाए, फिर दे देगी। एकाएक उसे एक तरकीब सूझी; क्यों न वह इसे छोटी को पार्सल कर दे और साथ में ही भेज दे इसका मैचिंग कुंदन का सैट भी? कुंदन के सैट के नाम पर उसका दिल मानो सिकुड़ कर रह गया; बड़ी बहू उषा को पता लगेगा कि सास ने साढ़े तीन लाख का सैट छोटी को दे दिया तो वह उसे जीवन भर कोसेगी। हालाँकि छोटी जितनी कद्र भला बहुओं और बेटी महक को कहाँ होगी? माया चाहे कितना कहे कि वह किसी से नहीं डरती पर सच तो यह है कि वह मन ही मन सबसे ही डरती है; अपने बच्चों से लेकर सड़क पर चलते राहगीरों तक से कि वे क्या सोचते होंगे। पर अब वह वही करेगी जो उसका मन चाहेगा। वैसे भी, बच्चे अपने-अपने घरों में सुख से हैं; न भी हों तो उसने फैसला कर ही लिया था कि वह अब कभी उनके घरेलू मामलों में दखलअंदाजी नहीं करेगी। उसके सगे-संबंधी और मित्रों को भी उसकी अंतिम इच्छा का सम्मान करना चाहिए।

न चाहते हुए भी माया फिर भी दूसरों के लिए ही सोच रही है; अपने लिए सोचने को रखा ही क्या है? मंदिर जाए, गिड़गिड़ाए कि भगवान बचा लो। जिंदगी के इस आखिरी पड़ाव पर क्यूँ अपने लिए कुछ माँगे और माँगने से क्या कुछ मिल जाएगा? मनुष्य की हवस का तो कोई अंत ही नहीं है। अमेरिका में तो सुना है कि लोगों ने मरणोपरांत अपने शवों के प्रतिरक्षण का प्रबंध करवा लिया है ताकि भविष्य में टैक्नौलोजी के विकसित होने पर उन्हें जिला लिया जाए। माया को यह समझ नहीं आता कि ऐसा क्या है मानव शरीर में कि उसे सदा जीवित रखा जाए। गांधी, मदर टेरेसा या मार्टन लूथर किंग जैसों महानुभावों को सुरक्षित रख पाते तो और बात थी। अच्छी से अच्छी प्लास्टिक सर्जरी के उपलब्ध होने पर भी एलिजाबेथ टेलर जैसी करोड़पति सुंदरी भी कुरूप दिखती है और वो माइकेल जैक्सन, उसने तो अपनी जिंददगी ही बर्बाद कर डाली। प्रकृति से टक्कर लेकर भला क्या लाभ?

माया एक अजीब सी मनःस्थिति से गुजर रही है; उसे लगता है कि कहीं कुछ अप्राकृतिक अवश्य है। वह परेशान है कि उसे मौत से डर क्यों नहीं लग रहा? हो सकता है कि वह अत्यधिक भयभीत हो, जिसके कारण उसके मस्तिष्क ने भय को 'ब्लॉक' कर दिया हो। जो भी हो, अच्छा ही है। अन्यथा भयवश वह ठीक से सोच भी नहीं पाती। बच्चों को बताने का कोई औचित्य नहीं; बेकार परेशान होंगे और उसकी नाक में दम कर डालेंगे। पिछले महीने ही की तो बात है जब उसे फ्लू हो गया था; दुर्भाग्यवश वरुण और विधि उन दिनों घर पर थे। उन्होंने तीमारदारी कर करके माया की ऐसी की तैसी कर दी थी; उसे आराम से सोने भी नहीं देते थे; कभी दवाई का समय हो जाता तो कभी खिचड़ी का, कभी गरम पानी की बोतल बदलनी होती तो कभी गीली पट्टी। नहीं नहीं, चुपचाप मर जाना बेहतर होगा। जब लोग कहेंगे कि माया बड़ी भली आत्मा रही होगी कि नींद में चल बसी तो बच्चों को भी अच्छा लगेगा। वैसे कह भर देने से ही कितनी तसल्ली हो जाती है; शायद दिल को समझा लेना आसान हो जाता होगा। मनुष्य के और चारा भी क्या है; जीवन के हल में सीधे जुत जो जाना होता है। आजकल तो लोग तेरहवीं तक भी घर में नहीं रुकते। छुट्टियाँ ही कहाँ बचती हैं? साल में एक बार भारत जाना होता है; फिर परिवार और मित्रों के साथ दो या तीन बार योरोप की यात्रा पर भी निकलना पड़ता है। माया तो हारी-बीमारी में भी उठकर दफ्तर चली जाती थी कि एक छुट्टी बचे तो मंडे-बैंक-हौलिडे के साथ जोड़ कर कहीं आस पास ही हो आए। इंग्लैंड की तनाव भरी जलवायु से जब तब निकल भागना आवश्यक है; वैसे भी मानसिक बीमारियों से ग्रस्त लोगों के बीच रहना क्या आसान बात है? जिसे देखिए वही 'स्ट्रैस्ड' अथवा 'टैन्स्ड' है।

माया भी 'टैन्स्ड' है; उँगलियों में उँगलियाँ उलझाए और अपने अँगूठे नचाती हुई वह सोच रही है कि पर्दों को धो डाले और घर की झाड़-पोंछ भी कर ले। मातमपुर्सी को आए लोग कहीं यह न कहें कि दूसरों को सफाई पर भाषण देने वाली माया स्वयं इतने गंदे घर में रहती थी। आज तो केवल बुधवार है और घर की सफाई करने वाली ममता शनिवार को ही आती है, जब वे दोनों मिलकर घर की खूब सफाई करती हैं। फिर दोपहर को वे एक नई हिंदी फिल्म देखने जाती हैं और शाम का खाना भी बाहर ही होता है। रात को ममता को उसके घर छोड़कर जब माया वापिस आती है तो अपने साफ सुथरे फ्लैट में खुशबूदार बिस्तर पर पसर जाना उसे बहुत अच्छा लगता है। कभी-कभी तो इस संवेदना के रहते, वह सो भी नहीं पाती।

माया के मना करने के बावजूद ममता उसे 'मैडम' कहकर ही पुकारती है जबकि माया उसे अपने परिवार का ही एक सदस्य मानती है। बच्चों को लगता है कि उसने ममता को सिर पर चढ़ा रखा है। कर्मठ, इमानदार और निष्ठावान है ममता; बिल्कुल माया की तरह; शायद इसीलिए माया उसे पसंद करती है। उसकी सहेलियाँ भी उसके इस बर्ताव पर नाक-भौं चढ़ाती रहतीं हैं तो चढ़ाया करें।

इन दिनों ममता अपने इकलौते बेटे नारायण को लेकर कुछ अधिक ही परेशान है, जो बुरी संगत में पड़ कर पटना के एक गुंडों के गिरोह में आजकल ड्राइवरी कर रहा है; वे उसे किसी हालत में छोड़ने को तैयार नहीं हैं। ममता की इच्छा है कि उसके प्रवास के दौरान नारायण एक बार लंदन घूमने आ जाए। माया ने दिल्ली में अपने भाई पारस के जरिए नारायण का पासपोर्ट बनवा दिया है और उसे आशा है कि वीजा भी लग ही जाएगा। ममता के इसरार पर माया ने पटना के मुख्य-मंत्री को याचिका भेजी थी जिसमें नारायण को गुंडों से छुड़ाए जाने की प्रार्थना की गई थी। किंतु वहाँ से आज तक कोई जवाब नहीं आया। हर शनिवार को ममता बड़ी आस लिए आती है, 'मैडम कोई चिट्ठी-पत्री आई क्या?' 'न' में सिर हिलाती माया सोचती है कि उसका अपना बेटा होता तो क्या वह चुप बैठ जाती? उसका मन कई बार होता है कि बारक्लेज बैंक के पाँच हजार के बौंडस ममता को दे दे ताकि वह नारायण को उन गुंडों से बचा सके किंतु फिर वही दुविधा कि मेहनत से कमाए उसके धन को सीधी-सादी ममता कहीं गँवा न दे।

बच्चों को क्या किसी और को भी यदि यह पता लग गया कि उन्होंने इतनी बड़ी रकम ममता को दे दी तो वे उसे पागल समझेंगे किंतु धन का इससे अच्छा उपयोग भला क्या हो सकता है? महक होती तो कहती, 'ममा, डू व्हाट यू लाइक, इटज यौर मनी आफ्टर ऑल।' अरुण कहता रहता है कि माया को पैसे की कोई कद्र नहीं और यह भी कि यदि वह चाहे तो उसका पैसा वह किसी अच्छी जगह इन्वैस्ट कर सकता है। उसकी मृत्यु के बाद कहीं उसके बच्चे बेचारी ममता पर मुकदमा ही न ठोक दें; दुनिया में क्या नहीं होता?

बस अब और नहीं सोचेगी माया; अभी जाकर वह बौंडस भुनवा लेगी और शनिवार को ममता को नकद दे देगी; कहीं वह शुक्रवार को ही स्वर्ग सिधार गई तो? यदि वह शुक्रवार की शाम को मरे तो बच्चों और सगे-संबंधियों को बेकार में एक छुट्टी नहीं लेनी पड़ेगी। इस सप्ताहंत पर ही स्विटजरलैंड से वरुण और विधि भी छुट्टियाँ मना कर लौट आएँगे; आते ही उन्हें यह बुरी खबर मिलेगी पर किया क्या जा सकता है?

बैंक जाते समय माया सोच रही थी कि एक मरणासन्न व्यक्ति के लिए सबसे जरूरी क्या हो सकता है? क्यों वह सीधे कपड़ों और गहनों की तरफ भागी? क्या ये मामूली चीजें उसके लिए इतना महत्व रखती हैं? आज तक तो वह यही सोचती आई थी कि उसके मरने के बाद बेटे-बहू उसका तमाम बोरिया-बिस्तर काले थैलों में भर कर ऑक्सफैम या किसी और चैरिटी को दे आएँगे। समय के अभाव में शायद उसका सामान वे कूड़ेदान में ही न फेंक दें। भारत में कई परिवार इन चीजों से अपने बहुत से तीज-त्योहार मना सकते हैं। ऑक्सफैम वाले क्या समझेंगे भारतीय पहनावे को? वे इन्हें 'रीसाइकिलिंग' के लिए कहीं दाहित्र में ही न डाल दें। खैर, यह सब सोचकर क्या वह अपना अमूल्य समय व्यर्थ नहीं गँवा रही?

पिछले दो वर्षों में ही माया ने दो मौतें देखीं थीं और दोनों ही मृतकों ने कोई वसीयत नहीं छोड़ी थी। अभी अर्थी भी नहीं उठी थी कि बच्चों ने घर सिर पर उठा लिया। खैर, उसने अपनी जायदाद, गहने और शेयर इत्यादि सब बाँट दिए हैं सिवा इन कपड़ों और कुछ पारिवारिक गहनों के और इन्हीं की वजह से वह कल रात ठीक से सो भी नहीं पाई; इन भौतिक चीजों में मृत्यु जैसी विशेष बात भी डूब के रह गई थी।

सुबह उठते ही नहा-धोकर माया बैठ गई आईने के सामने। बिना मेक-अप के उसका चेहरा कैसा बेरंग लग रहा था? करेले सी झुर्रियाँ और अर्बी सा रंग। उसने कहीं पढ़ा था कि जिसने जीवन में बहुत दुख झेले हों, केवल वही एक अच्छा विदूषक हो सकता है; ठंड की गुनगुनी धूप सी मुस्कुराहट उसके चेहरे पर फैल गई। जब लोग बक्से में रखे उसके पार्थिव शरीर के चारों ओर घूम-घूमकर श्रृद्धांजलि अर्पित करेंगे तो उन्हें उसका झुर्रियों भरा चेहरा कैसा लगेगा? माया को आकर्षक लगना चाहिए और यह मेक-अप आर्टिस्ट पर निर्भर करेगा कि वह कैसी दिखाई दे। उसने अंत्येष्टि निदेशक का नंबर घुमाया।

'हेलो हाउ में आइ हेल्प यू?' मीठी आवाज में स्वागती ने पूछा।

'सौरी टु बौदर यू, आइ हैड बुक्ड ए कौफिन फॉर माइसेल्फ दि अदर डे। आइ वंडर इफ समवन वुड टेक केयर ऑफ माई मेकअप वंस आई एम डेड...' माया ने झिझकते हुए पूछा।

'ऑफ कोर्स, मैडम, यौर विश इज अवर कमांड।' स्वागती की वरदायनी अदा पर माया मुस्कराने लगी; वह मेकअप आर्टिस्ट को अपना भरा पूरा वैनिटि-केस ही दे देगी ताकि कई अन्य बहुत सी भारतीय महिला-मृतकों का भी उद्धार हो जाए। गोरे गोरियों का मेकअप तो ये लोग अच्छे से करते हैं किंतु सभी एशियंस को वे एक ही तराजू में तोलते हैं। मेक-अप का इंतजाम करने के बाद उसने सोचा कि से अपने बाल भी ट्रिम करवा लेने चाहिए। पिछले तीन दशकों में माया का अपने हेयर-ड्रेसर के साथ अच्छा ताल-मेल बैठ गया है; वह जानता है कि कब उसके बालों को पर्म करना है, कब रंगना है या कब सिर्फ ट्रिम करना है। कभी माया उल्टी सीधी माँग कर भी बैठे तो वह साफ इन्कार कर देता है, 'नहीं, यह आप पर अच्छा नहीं लगेगा,' अथवा 'अपनी जरा उम्र तो देखो, माया।' हालाँकि माया को आज भी लगता है कि वह एक बार उसके बालों को किसी सुर्ख रंग में रँगवा ले।

माया झट से उठी और कार में बैठकर चल दी वैंबली हाई रोड की ओर। कार को दाईं ओर मोड़ा ही था कि उसने सोचा कि पहले उसे अपने होंठ के ऊपर उग आए बालों को ब्लीच करवा लेना चाहिए। यदि कोई पुलिस वाला उसे खतरनाक यू-टर्न मारते देख लेता तो उसे 'ऑन दि स्पौट फाईन' फाइन देना पड़ जाता किंतु अब डर किस बात का और ये पैसे भी किस काम के? उसने निर्णय लिया कि चाहे कितने भी पाउंडस लगें, वह रीजैंट-स्ट्रीट पर स्थित सबसे महँगे ब्यूटि-पारलर में जाकर आज मसाज, ट्रिमिंग, भंवे, ब्लीचिंग और फेशल आदि सब करवाएगी।

'टी टूं टी टूं' का शोर मचाती एक एंबुलैंस पास से गुजरी तो कार को धीमा करके माया एक तरफ हो गई; शायद किसी को दिल का दौरा पड़ा हो या दुर्घटना में घायल कोई दम तोड़ रहा हो। यदि समय पर डॉक्टरी सहायता मिल जाए तो कई मौतों को बचाया जा सकता है पर ये तो सब नसीब की बातें है। एकाएक माया को ध्यान आया कि उसने अभी तक अपनी आँखें तक दान नहीं की थीं। क्यों न वह अपना पूरा शरीर ही दान कर दे ताकि जिसे जो चाहिए, ले ले; बाकी के बचे-खुचे टुकड़ों का कीमा बना कर खाद में डाले या फिर... वैसे अस्पतालों से जो मनों अंग-प्रत्यंग प्रतिदिन फेंके जाते हैं, वे कहाँ जाते होंगे? प्लास्टिक के थैलों से लेकर दही के डिब्बों तक माया कूड़े में कुछ नहीं फेंकती। जहाँ देखिए कचरा ही कचरा; लोगों ने यदि रीसाइक्लिग की ओर ध्यान नहीं दिया न तो यह विश्व एक दिन तबाह होकर ही रहेगा।

माया सीधी पार्क-रौयल अस्पताल पहुँची; दान-पत्र भरते समय उसे अपने दादा जी की याद आई जिनकी उंगली एक दुर्घटना में जड़ से अलग हो गई थी। उनके मरणोपरांत दादी ने एक कृतिम उंगली लगवा कर उनका दाह संस्कार करवाया था। उनके अनुसार यदि दादा को उनके सभी अंगों के साथ नहीं जलाया गया तो वह अगले जन्म में बिना उंगली के पैदा होंगे। इस हिसाब से तो माया को निर्वाण मिल जाना चहिए क्योंकि उसने तो अपने सब अंग दान कर दिए थे। उसका मानना यह भी है कि प्रत्येक जन्म में मनुष्य को अपने को विकसित करता होता है और जब वह पूरी तरह से परिपक्व हो जाता है तभी वह परमात्मा में विलीन होने में सक्षम होता है। बच्चे जब तब कहते रहते हैं, 'ममा, यू आर ए चाइल्ड,' अथवा 'ममा, यू शुड ग्रो अप नाउ,' वह कहाँ इस योग्य कि भगवान उसे अपने में लीन कर लें?

खुशबूदार मोमबत्तियों के मध्यम प्रकाश में तैरते भारतीय शास्त्रीय संगीत में डूबते-उतरते, माया के शरीर की मुलायम और सधे हाथों द्वारा मालिश ने उसे स्वर्ग में पहुँचा दिया; उसके तन से मानो मनों मैल उतर गया हो। मन हवा से बातें कर रहा था; शायद संसार के ये छोटे छोटे सुख दुख ही स्वर्ग और नर्क हों। वह सचमुच कितनी मूर्ख थी कि पैसा होते हुए भी ऐसे सुख का नियमित उपभोग नहीं कर पाई। खैर, इस वक्त माया को जोरों की भूख लगी थी। सामने ही क्रेजी-हौर्स-पब था, जो फिश-एंड-चिप्स के लिए मशहूर था। वह उसमें ही जा बैठी। किसी के फ्यूनरल से लौटी भीड़ शराब और सैंडविचेज गटक रही थी।

'फार सच ए यंग फेलो, ही वाज एन एलीफैंट। माइ शोल्डर इज किलिंग मी।' एक लंबा चौड़ा गोरा युवक अपना कंधा दबाते हुए कह रहा था; उसके अन्य साथियों ने भी उसकी हाँ में हाँ मिलाई, 'ही डाइड औफ ईटिंग, यू नो।'

माया ने सोचा कि अमेरिका में अर्थी उठाने वालों का क्या हाल होता होगा? फिश-एंड-चिप्स की जगह माया ने सिर्फ सलाद और संतरे का जूस ही मँगवाया। शाम को जिम जाकर वह जम कर व्यायाम करेगी; दो दिनों में वह एक किलो वजन तो घटा ही सकती है। कम से कम उसके बेटों के कंधे तो नहीं दुखेंगे।

भोजन से माया को याद आया कि उसके जीजाजी की तेरहवीं के अवसर पर बनवाई गई कद्दू की सब्जी लोगों को बहुत अच्छी लगी थी। बच्चों को तो यह भी नहीं पता होगा कि कद्दू क्या होता है। अपनी तेरहवीं का मेन्यु भी वह स्वयं ही बना दे तो कैसा रहे; बच्चे यह न सोंचें कि माँ को उन पर जरा भी विश्वास न था। वे जानते हैं कि क्रिसमस के कार्डस वह अक्तूबर में ही लिख कर रख लेती है। यह तो अच्छा हुआ कि उसे केवल तीन दिन का ही नोटिस मिला अन्यथा मृत्यु की तैयारी में वह महीनों लगी रहती।

घर वापिस आकर माया ने अपनी शांति और तसल्ली के लिए, एक फाइल खोल ही ली। पहले पन्ने पर अंत्येष्टि-निदेशक, उसकी सहायक, जाने-माने खान-पान प्रबंधकों के नाम, पते, फोन और ई-मेल आदि लिख दिए इस टिप्पणी के साथ कि बच्चे चाहें तो सपना केटरर द्वारा मौसा जी की तेरहवीं वाला मैन्यू और्डर कर सकते हैं और हाँ, यदि वे कुछ नया या आधुानिक आयोजन करना चाहें तो माया को कोई आपत्ति नहीं होगी।

आगुंतकों की भीड़-भाड़ में घर की सफाई, चाय-पानी के इंतजाम के लिए ममता का होना आवश्यक है हालाँकि माया की मृत्यु का समाचार सुन कर कहीं उसके हाथ-पाँव ही न छूट जाएँ। एक तो बेटे की परेशानी और उसपर माया की मृत्यु; कैसे सह पाएगी ममता, जिसके 'नारायण-नारायण' के जाप ने माया की नाक में दम कर रखा है। उसका बस चले तो वह चौबीसों घंटे काम करे ताकि नारायण को जल्दी से जल्दी लंदन आ जाए किंतु डरती है कि गुंडों को नारायण की इस मंशा की भनक भी पड़ गई तो वे उसका न जाने क्या हश्र करें। नारायण कहाँ समझता है ममता की मजबूरी, बेबसी और उसकी चिंता? बच्चों को जो चाहिए, वो बस चाहिए। माया की पोती, रिया, जब केवल तीन वर्ष की थी तो दादा की बेशकीमती घड़ी लेने की जिद कर रही थी। माया ने हँसी-हँसी में कह दिया कि दादा जी मृत्यु के बाद यह घड़ी उसी को मिलेगी। रिया ने झट पूछा, 'दादी, वैन विल दादाजी डाई?' कितने ही लोग हर रोज अपने संबंधियों के मरने की राह देखते हैं। अभी हाल में ही केवल एक हजार डौलर्स के लिए दो पोतों ने मिल कर अपनी दादी की हत्या कर डाली। दहेज की वजह से भारत में ही कितनी युवतियाँ जीते जी जला दी जाती हैं? जितना पैसा माँ बाप दहेज में लगाते हैं, यदि वह अपनी बच्चियों की पढ़ाई लिखाई पर खर्च करें तो वे उनके बुढ़ापे की लाठी बन सकती हैं किंतु न जाने क्यों आज भी इसकी अपेक्षा तो बेटों से रखी जाती है, उनकी चिता को आग भी तो वही देते हैं।

दो बेटों के होते हुए भी आज माया कितनी अकेली है? एक महक ही है जो उसका हाल चाल पूछती रहती है; उसके सिर में तेल मलती है, उसके नए पुराने कपड़े छाँटती है और फिर उससे चिपट कर सो भी जाती है। महक और पीटर कभी-कभी उसे जबरदस्ती सेंट-ऐंड्रूज ले जाते हैं किंतु उसे बेटी के घर में रहने की बात खटकती है जबकि पश्चिम की सासें तो अधिकतर दामादों के यहाँ ही रहती हैं। माया भी कितनी दोगली है किंतु बुराइयाँ किसमें नहीं होतीं? कोई जरा माया से सहायता माँग तो ले, वह न नहीं कह पाती, उत्साह में तो वह यह भी भूल जाती है कि उसके पास समय होगा भी कि नहीं; पूरे जोर-शोर से बस जुट जाती है। व्यवस्था का कोई भी पहलू मजाल है कि उसकी आँख से छूट जाए।

शवपेटिका की व्यवस्था माया कर ही चुकी थी; बच्चों पर छोड़ देती तो वे सबसे महँगी लकड़ी का सुनहरी कुंडों से जड़ा बक्सा ही खरीदते। शव को कपड़े में लपेटकर भी काम चलाया जा सकता है; भाड़ ही में तो झोंकना है। भारत में लोग कितने यूजर-फ्रैंडलि होते हैं? हर चीज को रीसाइक्ल करते हैं। पैसा किसी गरीब के काम आ जाए तो अच्छा है पर कौन देकर जाता है कुछ गरीबों को? पिछले हफ्ते ही उसने कुछ धन हरे रामा हरे कृष्ण वालों को दिया था किंतु उस दान से उसे कुछ भी तृप्ति नहीं मिली थी। माया रॉयल स्कूल ऑफ ब्लाइंड को कुछ धन देने के लिए माया कब से सोच रही है किंतु बात है कि बस टलती ही चली जाती है।

माया ने सुना था कि नब्बे प्रतिशत धन तो चंदा इकट्ठा करने वालों की जेब में ही चला जाता है। माया को तो बस कोई बहाना चाहिए; गोरे लोग गरीबों की सहायता के लिए कितना दान करते हैं; वे तो कभी नहीं सोचते कि पैसा कहाँ जा रहा है? वास्तव में तो वह अधिक से अधिक धन बच्चों के नाम ही छोड़ना चाहती है यह जानते हुए भी कि उषा क्या कहेगी, 'हमारे हिस्से में बस इतना ही आया, मम्मा वरुण और विधि को जरूर अलग से देकर गई होंगी।' महक को कुछ नहीं चाहिए और विधि को कुछ भी दो तो वह यही कहेगी, 'मम्मी जी, पहले आप महक जीजी और भाभी से पसंद करवा लीजिए, मैं बाद में ले लूँगी।' न जाने अरुण और उषा सदा यही क्यों सोचते हैं कि माया वरुण और विधि को अधिक चाहती है; कोई माँ से पूछे कि उसे अपनी कौन सी आँख प्यारी है।

माया को लगता है कि जैसे जैसे व्यक्ति उम्र में बड़ा होता है, अधिक आसक्त हो जाता है। जहाँ विधि और महक को पैसे अथवा चीजों की जरा परवाह नहीं, वहीं उषा को और स्वयं उसे छोटी-छोटी चीजों से भी लगाव है। अस्थायी और क्षणिक प्रसन्नता के लिए इतना आयोजन और इतना प्रयोजन; परम आनंद के लिए कुछ भी नहीं? किंतु आनंद भी तो इन्हीं रिश्तों से जुड़ा है। जहाँ जा रही है माया, वहाँ दुख सुख के मायने शायद दूसरे हों। शायद वहाँ दुख सुख हों ही नहीं।

पिछले साल ही तो माया ऋषिकेष में दीपक चोपड़ा से मिली थी; आनंदा में वह अपने पच्चीस अनुयायियों के साथ ठहरे हुए थे। मृत्यु जैसे पेचीदा विषय को उन्होंने बड़े सरल तरीके से समझाया था, 'इस पृथ्वी पर जो भी जन्म लेता है, उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है पर उसका पुनर्जन्म भी उतना ही निश्चित है जैसे कि फूल खिलते हैं, मुर्झा जाते हैं और फिर खिलते हैं।' माया की मुसीबत बस यह है कि ऐसी बातें उसके मस्तिष्क में ज्यादा देर तक टिक नहीं पातीं।

पारसियों के मृत्यु-संस्कारों के विषय में माया ने एक बार अपनी सहेली जरबानु से चर्चा की थी। माया ने तब सोचा था कि चीलों द्वारा नोच-खसोट कर खाना मृतक का अपमान नहीं तो और क्या है? किंतु इस जाति की भावना तो देखिए, शायद ये ही लोग अंततोगत्वा 'परम पिता परमात्मा' में समा जाते हों। यूँ भी विश्व की आबादी बढ़ती जा रही है, इतने सारे मृतकों को पृथ्वी कैसे और कब तक अपने में समोएगी?

माया के पति हरीश की मृत्यु हुए पाँच वर्ष होने को आए; उन्हें दफ्तर में दिल का दौरा पड़ा और एंबुलैंस के पहुँचने से पहले ही उन्होंने दम तोड़ दिया। उनके शव को घंटों निहारती बैठी रही थी माया कि अब साँस आई कि तब। वह स्तब्ध थी कि बिना कुछ कहे वह उसे अकेला कैसे छोड़ के चले गए? 35 वर्षों के लंबे वैवाहिक जीवन में वे कभी अलग नहीं रहे थे। अब क्या बचा था? केवल चौखट, दरवाजे, दीवारें और इन सबसे सिर मारती माया। अरुण और उषा तो पहले ही अलग घर बसा चुके थे। अठारह वर्ष की आयु में विवाह करके महक अपने पति, पीटर, के साथ स्काटलैंड में जा बसी थी और वरुण बर्मिंघम में पढ़ रहा था।

संबंधियों और पड़ोसियों के घरों से पूरे दो हफ्तों तक परिवार के लिए ही नहीं, अपितु मेहमानों के लिए भी नियमित खाना पीना आता रहा था। भजनों के नए नए सीडीज और कैसेट्स बजते रहे, दिए में घी डाला जाता रहा। एक सप्ताह के अंदर ही माया ने अपने दुख पर पूरी तरह काबू पा लिया था और घर परिवार अब उसके पूरे नियंत्रण में था।

नए काले क्रिस्प सूटों में बेटों-दामाद और पोते को देख माया फूली नहीं समा रही थी। विवाह की पच्चीसवीं वर्षगाँठ पर हरीश ने उसे हीरे के छोटे छोटे बुंदें और नेकलेस दिए थे, जो माया की सफेद साड़ी के साथ जँच रहे थे। बहुएँ स्वयं लिपटी थीं काली साड़ियों में जिस पर चाँदी के धागों का हल्का काम था; माया ने ही कहा था कि चाहे कितना भी बुरा अवसर क्यों न हो, सुहागने काला कपड़ा नहीं पहनतीं।

घर में अवलोकनार्थ रखे हरीश के शव को देख महक का बेटा आर्यन बार बार 'हेलो दादु,' 'हेलो दादु,' पुकारे जा रहा था। जब कभी आर्यन शरारत करता, वह उससे कुट्टी कर लिया करते किंतु जहाँ उसने गाल फुलाए कि हुई दादु की अब्बा। 'वाए इज दादु नॉट टॉकिंग टु मी?' उसकी आँखों में आँसू भरे थे, 'ममा, टैल दादु आई एम नॉट नौटी एनी मोर,' माया भी रो पड़ी।

हरीश के फूलों को गंगा में विसर्जन करने के लिए पूरा परिवार हरिद्वार पहुँचा था। माया का भारी-भरकम भाई पारस यदि उन सबको नहीं सँभालता तो पंडितों की धक्का-मुक्की में घिरे इस परिवार का वहीं राम नाम सत्य हो जाता। वरुण और विधि तो पहली बार भारत आए थे; उनकी 'एक्सक्यूज मी,' 'एक्सक्यूज मी,' किस काम आती? माया यही सोचती रही कि हरीश का क्रियाकर्म यदि भारत में करना पड़ता तो बच्चों के सब्र का बांध अवश्य टूट जाता। अरुण को यदि पिता का कपाल फोड़ना पड़ता तो न जाने क्या होता?

माया को साधु-संतों, बाबाओं और माताओं पर कोई श्रद्धा नहीं किंतु माया इस बार अपनी पड़ोसन, जयश्री, के चक्कर में फँस ही गई, जो एरे गैरे नत्थु खैरे सभी बाबाओं और माताओं के सतसंगों में जाती है। भीड़ में बैठी हुई माया को इंगित करके जब बाबा ने पूछा, 'बेटी, किसके शोक में डूबी है?' तो माया ने सोचा कि इसमें कौन सी बड़ी बात थी, बाबा को उसकी रोती-धोती शक्ल से अंदाजा लग ही गया होगा कि वह ताजी ताजी विधवा हुई थी। खैर, जब बाबा मन की बात जानते हैं तो वह माया का कष्ट भी जान ही गए होंगे। जयश्री उसे पकड़ कर बाबा के ठीक आगे ले गई। 'बाबा, इसका हजबेंड ऑफ थेई गया छे; कोई नई साथे वात करती न थी, अने कोई ने मलती न थी।' माया को हँसी आ गई और बाबा भी मुस्करा पड़े। जयश्री प्रसन्न थी कि माया के कारण उसे बाबा के नजदीक जाने की मौका मिल गया था।

'अपनी हानि को तो, बेटी, सभी रोते हैं, कभी उनकी भी सोचो जो प्रभु के पास हैं। उनके लाभ में तुम्हें भी तो प्रसन्न होना चाहिए,' अचानक माया के हृदय में एक सुकून व्याप्त हो गया। वह भी कितनी स्वार्थी थी; उसने हरीश के विषय में कभी सोचा ही नहीं। हरीश एक जाने माने वकील थे किंतु बाल की खाल उतारने की विशेषज्ञ थी माया, जिसे वह 'मी लौर्ड' कहकर संबोधित करते थे।

हरीश यदि जीवित होते तो उसकी शव-पेटिका को मोगरे के फूलों से लाद देते। सगे-संबंधी गुलदस्ते लेकर आएँगे; नहीं होंगे तो बस उनके भिजवाए मोगरे के फूल। कितनी अधूरी और फीकी लगेगी माया की शवयात्रा? शायद हरीश उसकी इंतजार में हों; वह हुलस उठी पर क्या करे? कोई हलक में उंगली डाल कर तो आत्महत्या नहीं कर लेता? हरीश की याद उसे कभी कभी दीवाना बना देती है; दिल है कि संभलता ही नहीं, 'याद आए वो यूँ जैसे दुखती पाँव बिवाई जी…'

माँ बचपन में माया को हरीशचंद्र तारामति के अमर प्रेम की कहानी सुनाती थी; वही तारामति जो अपने पति को यमराज से भी छुड़ा लाई थी। माया ने हाल ही में बीबीसी पर एक फिल्म देखी थी, जो एक ऐसी बीमारी के विषय में थी जिसमें रोगी बिल्कुल मृत दिखाई पड़ता है। माया को लगा की सत्यवान के साथ भी कुछ ऐसा ही घटा होगा। यदि उन्हें दफनाने में जल्दी न की गई होती तो शायद हरीश भी जी उठते। माया को लगा कि हरीश बड़ी बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं उसका उस पार; 'याद आए वो यूँ जैसे दुखती पाँव बिवाई जी…'

भाव-विह्वल माया ने अंत्येष्टि-निदेशक को मोगरे के छल्ले पर 'स्वागतम माया, सस्नेह हरीश' लिखवाने का निर्देश दे दिया। कितना मजा आएगा जब मातमी मोगरे के फूलों के साथ हरीश का नाम देखेंगे? अंतिम बार दोनों का नाम एक साथ; वह रोमांचित हो उठी। 'वेन इन रोम, बी रोमन,' कहावत को अंजाम देने के लिए उसने एक काली रॉल्सरौयज भी आरक्षित करवा ली। माया की अर्थी भी शान से उठनी चाहिए; बच्चों को भी अच्छा लगेगा। काली रॉल्सरौयज पर मोगरे के फूल कितने भव्य दिखेंगे; गली कूचों में लोग ठिठक कर रुक जाएँगे और सराहेंगे उसकी शवयात्रा को।

देवग्रंथों के अनुसार आत्मा को न तो कोई मार सकता है, न ही कोई दुख पहुँचा सकता है। तो फिर काहे का डर? डर तो बस माया को है पुनर्जन्म से। वही पढ़ाई लिखाई, विवाह, बच्चे और फिर यही मृत्यु। जाने कीड़े-मकौड़े और जानवरों को याद रहता हो अपना पिछला जन्म; शायद इसी का नाम नरक हो। माया को अपने पिछले जन्म की कुछ-कुछ याद है; वैसे तो मनुष्य का मस्तिष्क न जाने क्या-क्या गुल खिलाता है किंतु यदि यह बात सच है तो माया मनुष्य योनि में दो बार जन्म ले चुकी है; तीसरी बार मनुष्य योनि का संयोग कुछ कम ही लगता है। खैर, जो भी होगा देखा जाएगा; अभी से परेशान होने का क्या फायदा? इस आखिरी वक्त में भजन गाने से तो भगवान प्रसन्न होने से रहे; तैयारी भी करे तो क्या और कैसी?

जब भी माया किसी यात्रा पर निकलती है, ढेर सी तैयारी करके चलती है। हर तरह की बीमारी की दवाएँ, गरम पानी की बोतल, परिरक्षित भोजन, अचार-मुरब्बे, माचिस, चाकू, स्क्रू-ड्राइवर, गरम कपड़े, कंबल, ब्रांडी, कुर्सियाँ, मेज, पेट्रोल का अतिरिक्त कनस्तर और न जाने क्या क्या। सामान सहित जब वह लदी-फदी लौटती है तो बच्चे हँसते हैं, 'डिडंट वी टैल यू टु ट्रैवल लाइट, मम?' अब चाहे अंगारों पर चलना पड़े या बर्फ पर इस यात्रा पर उसे खाली हाथ ही निकलना है।

समय की पाबंद माया बिल्कुल तैयार बैठी है। मृत्यु को दोष नहीं दिया जा सकता और न ही डॉक्टरों को; कोई समय तो तय किया नहीं गया था। पहली बार उसके दिमाग में यह बात आई कि डॉक्टर गलत भी तो हो सकता है किंतु आस की नन्ही सी किरण भी उसे और जीने के लिए उत्तेजित न कर पाई। डॉक्टर ने तो उससे कोई सहानुभूति तक प्रकट नहीं की थी जबकि यहाँ मरणासन्न रोगियों को विशेष परामर्श की सुविधा दी जाती है।

काश कि माया बिजली के बटन की तरह जीवन का स्विच खट से बंद कर पाती; उसकी ऊर्जा व्यर्थ जा रही है; शायद उसे इसकी आवश्यक्ता पड़े मृत्यु के उपरांत किंतु मनुष्य के बस में कुछ भी तो नहीं है। आँधी, तूफान और भूचाल आदि के माध्यम से प्रकृति जब तब प्राणियों की संख्या नियंत्रित करती रहती है, जिसे ईश्वर का कोप समझ कर झेलते रहते हैं पृथ्वीवासी। जो समझ से परे हो, उसे भगवान का नाम दें या किसी बुद्धिमान अभिकल्पक (इंटैलिजैंट डिजाइनर) का क्योंकि जगत की संरचना के पीछे एक प्रतिशत संदेह तो बना ही हुआ है। इसी विषय को लेकर विकासशील देशों में भी लोगों के बीच छुट-पुट घटनाएँ सुनने में आती हैं, जिनमें कोई डार्विन के विकासवादी सिद्धांत को कोसता है तो कोई विज्ञान को। माया के पल्ले जब कुछ नहीं पड़ता तो वह गाने लगती है, 'कोई तो बता दे जल नीर कि सिया प्यासी है।' शायद मर कर ही मिलना हो उस बुद्धिमान अभिकल्पक से। किसी से तो मिलना होगा ही; उससे हरीश का पता ठिकाना मालूम करके ही रहेगी माया।

माया की माँ, जो अपनी सास को दकियानूसी करार देतीं आई थीं, पति की मृत्यु के उपरांत स्वयं अंध-विद्यालयों में कंबल और भोजन आदि बाँटने लगीं थीं जबकि जब तक जिंदा रहे माया के पिता का कहना था कि दादा जी की आत्मा तो तभी तृप्त होगी जब घर में कोफ्ते और मुर्ग-मुसल्लम पकेगा। जहाँ तक हरीश का प्रश्न है माया भी वह कोई खतरा नहीं उठाना चाहती; हरीश की बर्सी पर पूजा-पाठ, दान, हवन, सब करवाती है।

बनारस से लाई हुई गंगाजल की बोतल को माया ने अपने सिरहाने रख लिया है। फाइल में उसने झटपट एक टिप्पणी और लिख दी है कि उसकी अस्थियाँ रिवर-थेम्स में भी डाली जा सकतीं हैं; हरिद्वार में बेचारे बच्चे कहाँ धक्के खाते फिरेंगे? एक कहावत है न कि मन चंगा तो कठौती में गंगा।

बरसों पहले किसी वैज्ञानिक ने विष का स्वाद जानने के लिए अपने आप पर एक प्रयोग किया था; जीभ पर जहर रखते ही वह मर गया। माया ने सोचा कि यदि सभी मरणासन्न लोग कोई एक प्रयोग करके मरें तो विश्व की कई गुत्थियाँ सुलझ सकतीं हैं। मिसाल के लिए, माया जानना चाहती है कि मरते समय व्यक्ति को कैसा अनुभव होता है? उसने निर्णय लिया कि वह अपनी तर्जनी पर लाल रंग यानि अशांति और बीच की उंगली पर हरा रंग यानि कि शांति का रंग लगा कर मरेगी ताकि चादर पर रगड़े हुए रंग से लोग निष्कर्ष निकाल लें। पारस होता तो वे दोनों बैठकर इस प्रयोग की बारीकियों में उतरते।

माया की नजर फिर पर्दों पर जा ठहरी। ममता इस शनिवार को आए न आए। ममता बता रही थी कि नारायण ने जब गिरोह के सरदार से माँ के पास जाने की अनुमति माँगी तो उसे जान से मार डालने की धमकी दी गई। वह ममता को आज ही पैसे दे देगी ताकि पटना जाकर वह नारायण को गुंडों से छुड़ा ले। कितनी खुश हो जाएगी ममता?

माया पर्दे उतारने को अभी स्टूल पर चढ़ी ही थी कि घंटी बजी। इस समय कौन हो सकता है? कहीं वह किसी को बुलाकर भूल तो नहीं गई? दरवाजा खोला तो देखा बाहर ममता खड़ी थी।

'तू सौ बरस जिएगी ममता, अभी मैं तुझे ही याद कर रही थी,' माया चहकी।

'मैडम जी, वो नारायण है न, वो...' बदहवासी में ममता ठीक से बोल भी नहीं पा रही थी।

'हाँ हाँ, क्या हुआ उसे?'

'उसका एक्सीडैंट,' माया यदि उसे सँभाल न लेती तो ममता वहीं ढेर हो जाती। आँसू थे कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे और हिचकियों के मारे उसका बोलना मुहाल था। उसके आधे-अधूरे वाक्यों से माया इस नतीजे पर पहुँची कि गुंडों ने नारायण को कार के नीचे कुचलने की कोशिश की थी। वह अस्पताल में है और वे कह रहे हैं कि इस बार तो उसकी टाँगें ही तोड़ी हैं, अगली बार वे उसे जान से भी मरवा सकते हैं। ममता की काँपते हुई मुट्ठी में एक पुर्जा था; जिस पर उसके भाई सर्वेश का नंबर लिखा हुआ था। माया ने झटपट नंबर मिलाया तो सर्वेश ने भी वही सब दोहरा दिया जो ममता कह रही थी।

'मैडम जी, आप तो जी बस बहन को प्लेन में बैठा दें। नारायण की हालत ठीक नहीं है मैडम जी।' सर्वेश भी बहुत घबराया हुआ था जैसे कि उसकी अपनी जान पर बनी हो। भाई से बात करके तो ममता के सब्र का बांध मानो टूट ही गया।

'अब मैं जी कर क्या करूँगी, मैडम? मैं तो उसी के लिए पैसा इकट्ठा कर रही थी। अब इस पैसे क्या फायदा,' कहकर उसने अपने थैले को माया के कदमों में उलट दिया; अनगिनत मुड़े-तुड़े पौंड्स कार्पेट पर बिखर गए। माया ने उसे से तसल्ली देनी चाही किंतु वह तो यूँ रोए चली जा रही थी जैसे उसका सब लुट चुका था।

ममता के टिकेट आरक्षण के लिए माया अपने ट्रैवल-एजैंट को फोन कर रही थी कि उसके दिमाग में आया कि क्यों न वह भी ममता के साथ पटना चली जाए। ममता इस हालत में नहीं है कि नारायण की कोई मदद कर सके। कहीं इन गुंडों के चक्कर में आकर वह न केवल अपना मेहनत से कमाया सारा धन ही गँवा दे बल्कि अपनी जान से भी हाथ धो बैठे। पटना जैसी जगह में किसी को पटाना होगा, किसी से पटना होगा, किसी को मनाना होगा तो किसी को हटाना होगा। ऐसे समय में धैर्य, नियंत्रण और कूटनीति से काम लेना होगा। सीधी सादी ममता को तो शायद इन शब्दों का अर्थ भी नहीं पता होगा।

ममता ने जब सुना कि मैडम उसके साथ पटना चल रहीं हैं तो उसके चेहरे पर आश्चर्य, कुतूहल और अनुग्रह के भावों की छटा बस देखते ही बनती थी। स्पष्टतः माया के दिमाग में एक योजना बन रही थी। ममता को रसोई में व्यस्त करके वह स्वयं कंप्यूटर खोल कर बैठ गई। उसने वेबसाइट के जरिए एक पाँच-सितारा होटल में दो कमरे, एक बड़ी जीप और ड्राइवर का इंतजाम कर लिया। फोन पर ही पारस को उसने एक अच्छे वकील और सुरक्षा संबंधित प्रहरियों का प्रबंध करने की हिदायत भी दे दी, जो उन्हें एअरपोर्ट पर उतरते ही मिल जाने चाहिए। माया ने सोचा कि अच्छा हुआ कि बच्चे यहाँ नहीं हैं; वे उसे कभी ये जोखिम नहीं उठाने देते। पारस को भी रहस्यपूर्ण कारनामों में दिलचस्पी है इसीलिए उसने अधिक चूँ-चपड़ नहीं की किंतु पटना के नाम पर वह हिचक रहा था।

'मैं पटना जा रही हूँ, तू कोई प्रश्न नहीं पूछेगा।' माया का इस कथन के बाद पारस के पास चारा ही क्या था?

'ठीक है, फिर मैं भी पटना आ रहा हूँ और आप भी अब कोई प्रश्न नहीं पूछिएगा।'

पारस के आ मिलने से माया पूर्ण-रूप से आश्वस्त हो गई। बचपन में इस जोड़ी ने फर्श पर आटा बिछा कर पाँवों के निशान से चोर पकड़ कर माँ के सम्मुख खड़ा कर दिया था। यह अलग बात थी कि वह जानती थीं कि चोर घर का नौकर ही था, जो रात को छिप-छिप कर मिठाई खाता था और शक इन दोनों पर किया जाता था।

'शर्लौक होम्स,' 'मर्डर शी रोट' और 'कोलंबो' जैसे रहस्यपूर्ण टीवी धारावाहिकों की दीवानी माया को जीवन में पहली बार जोखिम उठाने का मौका मिला है, जिसे वह आसानी से नहीं गँवाने वाली। पटना के गुंडों से निडर, माया सुबह की फ्लाइट का इंतजार कर रही है; ममता से अधिक बेचैनी उसे है। उसका प्लैन फूल-प्रूफ है, कड़े पहरे में वे नारायण को दिल्ली ले जाएँगे, इलाज करवाएँगे और जब वह ठीक हो जाएगा तो पारस की ही फैक्टरी में उसे कोई काम पर लगा दिया जाएगा।

माया की व्यस्तता से ममता ने अनुमान लगा लिया है कि नारायण की बाल मजदूरी के दिन अब पूरे हुए। माया ने तय कर लिया है कि अब ममता घर-घर के धक्के नहीं खाएगी। वह चाहे तो उसी के साथ रह सकती है।

तीन दिन में मृत्यु वाला सपना इतना सजीव था कि माया ने अपने को मौत के लिए पूरी तरह से तैयार कर लिया था किंतु इस वास्तविक घटना ने उसे पूरी तरह से जिला दिया। कितनी भाग्यशाली है वह कि जीवन के उद्देश्य के साथ-साथ उसे दिशा भी मिल गई; उसके शरीर का रोम रोम स्पंदित है और अंग-प्रत्यंग फड़क रहा है; इतनी जिंदा तो वह जीवन में पहले कभी नहीं रही।


-दिव्या माथुर, यूके

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