सती का बलिदान (कथा-कहानी)       
Author:डॉ माधवी श्रीवास्तवा | न्यूज़ीलैंड

सती-- प्रजापति दक्ष की छोटी पुत्री सती। दक्ष ने माता आदि शक्ति की कठोर तपस्या के पश्चात वरदान स्वरूप सती को प्राप्त किया था। सती का जन्म शिव से मिलन के लिए ही हुआ था।

शिव-- वह शिव जिसे प्रजापति अपना शत्रु समझते थे, ठीक विपरीत सम्पूर्ण विश्व उनको अपना भगवान। कितनी विपरीतता थी दक्ष की सोच और प्रारब्ध में... दक्ष जानते थे कि सती का जन्म क्यों हुआ है...? लेकिन फिर भी वह प्रारब्ध से लड़ने का दम्भ रखते थे। उन्होंने सती को शिव के अनुयायियों से दूर रखा, शिव भक्तों को सती से मिलने की अनुमति नहीं थी। उन्होंने सती को विश्वास दिलाया कि उसका पिता ही एक मात्र व्यक्ति है जिसने संसार को नियम-संहिताओं से सुसंस्कृत किया है। सृष्टि तो मात्र उसका अनुपालन करती है, प्रकृति के पांचों तत्व जल, अग्नि, वायु, आकाश सब उसके वश में है।

अपितु, वह भगवान विष्णु का परम भक्त है परंतु फिर भी वह इस अहंकार में है कि―विष्णु, मेरे पिता ब्रह्मा और ये सम्पूर्ण जगत उसके आचार-संहिता का निर्विरोध रूप से समर्थन करते हुए उसे सर्वश्रेष्ठ समझते हैं। उसने अपनी पुत्री सती को विश्वास दिला दिया कि अपितु हमारे पिता ब्रह्मा ने इस सृष्टि की रचना की है...भगवान विष्णु इस जगत के पालनकर्ता हैं... परंतु इस जगत को... मानव समाज को...नियमों और अनुशासन से सुसंस्कृत और सभ्य बनाने वाला एकमात्र मैं ही हूँ।

सती अब सोलह वर्ष की हो गई है, सौंदर्य से पूर्ण होने के साथ-साथ वह बुद्धिमान भी है, सामान्य बच्चों की तरह उसमें भी काफी उत्सुकता और कौतूहल है। वह अपने पिता से पूछती है―

"पिता श्री! मनुष्यों को किस प्रकार का कर्म करना चाहिए; जिससे वह ईश्वर का प्रिय हो सके।"

पिता दक्ष उसके कोमल कपोलों को सहलाते हुए बोलते हैं―

"पुत्री! व्यक्ति को मन-कर्म-वचन तीनों से युक्त होकर, निष्काम पूर्वक कर्म करने चाहिये और उन कर्मों का केन्द्रक भगवान विष्णु को समझना चाहिए।"

"पिता श्री! ये निष्काम कर्म कैसे होता है? और ये मन-कर्म-वचन से क्या तात्पर्य है?"

पिता दक्ष सती के मस्तक पर हाथ फेरते हुए कहते हैं―

"पुत्री सती...! जो भगवान विष्णु का सच्चा भक्त होता है वह अपने सारे कर्मों और कर्म से जनित फलों को ईश्वर को समर्पित करते हुए जीवन जीता है... जैसे मान लो―तुमने किसी को दान दिया तो यह न सोचो कि मैंने दान किया है अपितु मन में यह स्वाभाविक भाव रहे कि मैं तो केवल माध्यम मात्र हूँ; देने वाला तो वह परमात्मा है मैं तो केवल उसी की वस्तु उसे दे रहा हूँ। और यही भाव ही कर्म-मन-वचन की एकरूपता है।"

तभी रोहिणी कक्ष में प्रवेश करती हैं―

"पिता श्री! क्या हम सभी बहने गंगा नदी के किनारे विहार के लिए जा सकते हैं?"

अभी प्रजापति दक्ष कुछ कहने ही वाले होते हैं कि तभी माता प्रसूती अपने दासियों के साथ कक्ष में प्रवेश करते हुए कहती हैं―

"नहीं पुत्री, कदापि नहीं... क्या तुमको पता नहीं आजकल वक्रासुर ने अपना आतंक फैलाया हुआ है, तुम लोगों का बाहर जाना सुरक्षित नहीं है।"

रोहिणी मध्य में हस्तक्षेप करते हुए कहती है―

"किन्तु माता हम लोग संध्या होने के पूर्व ही लौट आएंगे।"

रोहिणी और सती के बहुत हठ करने पर प्रजापति दक्ष जाने की अनुमति दे देते हैं, और कहते हैं―

" उचित है..., तुम लोग अवश्य जाओगे लेकिन हमारे कुछ सैनिक तुम लोगों के साथ होंगे।"

दोनों बहनें बहुत प्रसन्न होती हैं और अपनी बहनों श्रद्धा, स्मृति, लज्जा, मेधा और धृति के साथ विहार के लिए निकल पड़ती हैं। सती बहुत खुश थी क्यों कि उसे प्रकृति के निकट रहना अति रुचिकर था। मौलसिरी, मोगरा और गेंदे की सुगंध सती को प्रिय लगते हैं और कमल, गोरक्षी और पारिजात के पुष्प तो सती को अत्यंत प्रिय हैं।

सती पुष्पों का चयन करने लगती हैं―

"रोहिणी दीदी! ये देखो इंदीवर के पुष्प कितने सुन्दर हैं और ये बिखरे हुए पारिजात के पुष्प कितने मनमोहक और सुगंधित है...विष्णु पूजा के लिए मैं कुछ पुष्प एकत्रित कर लेती हूँ...पिता श्री अत्यंत प्रसन्न होंगे"।

सती इधर-उधर घूम-घूम कर चहकती हुई पुष्पों को चुन रही हैं। और अपना आँचल फूलों से भर लेती हैं... ऐसा प्रतीत होता है ―मानो सती ने पूरी धरती ही अपने आँचल में समेट ली हो।

विहार करते हुए सभी मानसरोवर के निकट पहुंचती हैं, तभी...शिव भक्तों का एक समूह...तन पर भस्म लपेटे हुए, रुद्राक्ष धारण किये हुए, लंबी-लंबी जटाओं वाले...'हर-हर महादेव' की ध्वनि का उद्घोष करते हुए मानसरोवर में स्नान के लिए प्रवेश करता हैं।

सती स्तब्ध, स्थिर और जडवत् सी हो जाती हैं, वह एकटक उन समूहों को देखने लगती है, पुष्पों से भरा आँचल धीरे-धीरे खुलने लगता है... उसके नेत्र अनेक प्रश्नों के साथ उन शिव भक्तों को निहारने लगते हैं। वह मन में बुदबुदाती है... इस तरह के प्राणी तो मैंने आज तक नहीं देखे...ये विचित्र वेष धारी कौन हैं...?

तभी रोहिणी निकट आती है... और सती से कहती हैं―

"सती! चलो अत्यधिक विलंब हो रहा है। अब प्रासाद चलते हैं...नहीं तो माँ क्रोध करेंगी।"

"दीदी! ये लोग कौन हैं...और ये महादेव कौन है?" इन लोगों को तो मैंने कभी नहीं देखा और पिता श्री ने भी कभी इन लोगों की चर्चा नहीं की।"

रोहिणी मन ही मन भयभीत हो जाती है, क्योंकि उसे पता था कि पिता श्री को ये शिव भक्त कदापि भी रास नहीं आते। वह सती से कहती है―

"छोड़ो सती, इनके विषय में क्या पूछना, चलो प्रासाद चलते हैं अन्यथा माँ व्याकुल होंगी।"

सती भारी मन और भारी पदों के साथ प्रासाद की ओर अग्रसर होती हैं, लेकिन मन बार-बार एक ही प्रश्न पूछ रहा था कि वह लोग कौन थे... ? और 'हर हर महादेव' की ध्वनि मेरे मन को क्यों विक्षिप्त कर रही है...ऐसा लग रहा है मानो ये ध्वनि अपनी ओर खींच रही है... क्या किसी जन्म में मेरा उन लोगों से कोई संबंध था?

सती का मन अनेक प्रश्नों से भर जाता है। रोहिणी सती को बार-बार देख रही थी और उसकी मनोदशा भी समझ रही थी, लेकिन वह पिता श्री के क्रोध से अवगत थी, इसलिए वह इस विषय पर चर्चा नहीं करना चाहती थी।

सभी बहनें अपने-अपने कक्ष में चली जाती हैं। सती को शय्या पर लेटते ही निंद्रा आ जाती है। कुछ देर पश्चात् सती महादेव को पुकारते हुए अपनी शय्या से उठ जाती है, कदाचित उसने स्वप्न में महादेव को देखा था।

माता प्रसूती कक्ष में प्रवेश करती हैं―

"पुत्री सती... क्या हुआ सती...क्या तुमने कोई दुःस्वप्न देखा?"

"ज्ञात नहीं माता वह दुःस्वप्न था या सुस्वप्न... मैंने देखा एक लंबी जटाओं वाला, कंठ में सर्प को धारण किये हुए, हाथों में त्रिशूल, मृग-चर्म पहने हुए... दिव्य प्रकाश से आच्छादित है...ऐसा लग रहा था...मानो वह उस अलौकिक प्रकाश से स्नान कर रहा हो।"

माता समझ रही थीं कि यह स्वप्न किस ओर संकेत दे रहा है, वह मन ही मन आने वाले विध्वंस से डर गई। उन्हें तो ज्ञात ही था कि सती का जन्म शिव मिलन के लिए ही हुआ है, और वह अवश्य पूर्ण होगा। माता आदि शक्ति का यही आदेश था, परंतु परिस्थितियाँ अब पूर्णतः परिवर्तित हो चुकी थीं। प्रजापति तो महादेव को अपना घोर शत्रु समझते हैं, वह कदापि भी इस मिलन का समर्थन नहीं करेंगे, और उन्होंने तो सती को सदैव महादेव के हर समाचार और उनके वास्तविक ज्ञान से दूर रखा है। माता प्रसूती आने वाली घटनाओं से अत्यंत भयभीत हो जाती हैं...अपने ऊपर संयम रखते हुए सती को सांत्वना देते हुए कहती हैं―

"सती स्वप्न तो स्वप्न ही होते हैं उसे भूल जाना चाहिए" चलो मैं तुम्हारे केशों का अलंकार कर देती हूँ।"

दिन बीतने लगते है...लेकिन बारम्बार स्वप्न में महादेव के दर्शन से शिव के प्रति उनकी उत्सुकता बढ़ने लगती है और सोचने लगती है आखिर वह कौन है...? जो मेरे स्वप्नों में बारम्बार आता है। इसी तरह सोचते हुए वह विहार के लिए बाहर निकल जाती हैं...तभी कुछ ऋषियों के दर्शन होते हैं जो शिव-शिव कहते हुए उनकी भक्ति में मग्न हैं। सती उनके निकट जाती हैं और पूछती हैं―

"ये तुम लोग किसका स्मरण कर रहे हो...? ये शिव कौन हैं...? कैसा दिखता है...ये शिव? कहाँ रहता है?"

ऋषि गण देवी सती को प्रणाम करते हुए कहते हैं―

"देवी! आप शिव को नहीं जानती?"

"नहीं..., आप ही बताये...यह शिव कौन है?"

"देवी! शिव तो सभी का प्रेमी है...ज्ञान का स्रोत है...वह बहुत भोला है... आशुतोष हैं... कैलाश निवासी है...शीघ्र ही अपने भक्तों पर प्रसन्न हो जाते हैं।"

"कैसा दिखता है तुम्हारा शिव?"

"वह तो सन्यासी है, मृग-चर्म धारी, त्रिशूल धारी है..., कंठों पर सर्प लपेटे हुए, डम-डम डमरू की ताल पर नृत्य करते हुए सम्पूर्ण धरा को अपनी त्रिशूल पर धारण किये हुए हैं।"

सती मन ही मन सोचती है―"कहीं शिव ही तो मेरे स्वप्नों में नहीं आते...।" अब सती और अधिक विक्षुब्ध रहने लगती हैं। कदाचित् सती को अब शिव से प्रेम होने लगा था किन्तु अभी पूर्ण ज्ञान नहीं था।

एक दिन वह शिव की स्मृति में बिना किसी को बताए महल से अकेले ही निकल जाती हैं। अभी वह कुछ ही दूर जाती हैं कि उनके पैरों में एक कांटा चुभ जाता है―

"आह! यह क्या है?" वह पत्थर पर बैठ कर पैर में चुभे कांटों को निकालने की कोशिश करती हैं। तभी एक मूर्तिकार उधर से आ रहा था। उसने सती को पहचान कर नमन करते हुए कहा―

"राजकुमारी सती! अभिवादन स्वीकार करें। यदि आप आज्ञा करें, तो मैं ये कंटक निकाल दूँ।"

मूर्तिकार सती के पैर से कंटक निकालते हुए कहता है―

"राजकुमारी इस निर्जन स्थान पर आप अकेली क्यों भ्रमण कर रहीं हैं।"

सती मूर्तिकार से पूछती हैं ―

"तुम कौन हो?"

"राजकुमारी! मैं आपके ही राज्य का मूर्तिकार हूँ"।

"तुम किस प्रकार की मूर्ति बनाते हो?"

"राजकुमारी! मैं देवी-देवताओं की मूर्ति बनाता हूँ"।

"क्या तुमने शिव की भी मूर्ति बनायी हैं?

मूर्तिकार थोड़ा सहम जाता है क्योंकि उसे पता था– प्रजापति दक्ष ने शिव की मूर्ति निर्माण पर प्रतिबंध लगवा दिया है। वह थोड़ा सकुचाने लगता है।

"कहो, कहते क्यों नहीं?"

"देवी कैसे कहूँ...? महाराज ने शिव मूर्ति न बनाने का आदेश दिया है।"

सती शांत हो जाती है और कहती है―

"अच्छा तुम जाओ"

देवी वापस महल में आ जाती हैं और सोचती हैं आखिर पिता श्री को शिव से इतनी घृणा क्यों हैं? उसको तो सब गुणातीत, परमेश्वर, भक्त वत्सल मानते हैं।

तभी प्रजापति दक्ष क्रोध के साथ कक्ष में प्रवेश करते हैं―

"पुत्री सती! मुझे ज्ञात हुआ है कि आजकल तुम उस पाखंडी और असभ्य शिव के बारे में जानने के लिए अत्यधिक उत्सुकता दिखा रही हो।"

"क्षमा करें पिता जी, मैं यह जानना चाहती हूँ; आपने क्यों मुझे शिव के ज्ञान दूर रखा? आपको शिव से इतनी घृणा क्यों है?"

"ओह! तो वह शिव अब इतना प्रिय हो गया है कि तुम अपने पिता के निर्णयों पर प्रश्न करोगी"।

तभी ऋषि नारद का आगमन होता है, दक्ष और सती नारद को प्रणाम करते हैं―

"अभिनंदन हो भ्राता श्री, आने का प्रयोजन कहें।"

"दक्ष तुम अच्छी तरह जानते हो कि मैं किस प्रयोजन से यहां आया हूँ... क्या तुम्हें सती के जन्म का उद्देश्य विस्मृत हो गया है या तुम जान-बूझ कर उसे विस्मृत करना चाहते हो।"

सती आश्चर्य से अपने पिता को देखती है और फिर ऋषि नारद को...।

"जन्म का उद्देश्य ... मेरे जन्म का क्या उद्देश्य है..? काका श्री, कृपया मुझे बताएं। आजकल मेरा मन अत्यधिक विचलित और विक्षुब्ध रहने लगा है...मेरी संज्ञानता नष्ट होती जा रही है। प्रत्येक समय मेरे मन में शिव को जानने की उत्सुकता रहती है। कृपा करके आप ही बताए कि मेरे इन स्वप्नों का क्या रहस्य है।"

ऋषि नारद देवी सती को बताते हैं― किस तरह दक्ष ने तुम्हें आदि शक्ति से वरदान स्वरूप प्राप्त किया था और कहा था कि सती का विवाह शिव से ही होगा, वह शिव की ही अर्धांगिनी बनेगी।

सती यह सब सुनते ही अचेत होकर भूमि पर गिर जाती हैं। पिता दक्ष व्याकुल होते हुए पुकारते हैं―

"सती...सती...पुत्री सती तुम्हें क्या हुआ सती...नेत्र खोलो सती।

सती घोर अचेतन अवस्था में चली जाती हैं। महाराज दक्ष राज-वैद्य को बुलाते हैं। राज- वैद्य प्रत्येक प्रकार से सती का उपचार करता है, परन्तु कोई सुधार नहीं होता।

माता प्रसूती अत्यंत परेशान हो जाती हैं और सती के शीघ्र ही स्वस्थ होने की इच्छा से युक्त होकर शक्ति मंदिर आराधना के लिए चली जाती हैं।

एक सप्ताह व्यतीत हो जाता है सती के स्वास्थ्य में कोई सुधार नहीं होता। पिता दक्ष अपने पिता ब्रह्मा से मिलने जाते हैं और सती के भविष्य के बारे में पूछते हैं। तब ब्रह्मा जी कहते हैं―

“पुत्र! तुम अच्छी तरह जानते हो कि पुत्री सती का क्या भविष्य है, परंतु तुमने असत्य और अहंकार के आवरण से अपने मन -मस्तिष्क को ढक रखा है। तुम भूल रहे हो कि सत्य एक दिन अवश्य प्रकट होगा उसे कोई परिवर्तित नहीं कर सकता। शिव और सती का मिलन एक अटल सत्य है तुम प्राण देकर भी इस सत्य से पलायन नहीं कर सकते।”

“नहीं पिता श्री!...कदापि नहीं... ऐसा मैं कदापि भी नहीं होने दूँगा। मैं शिव को अपना जमातृ कदापि स्वीकार नहीं करूँगा। जिसने आपका अपमान किया हो मैं उसको अपना संबंधी स्वीकार नहीं कर सकता।”

“परंतु पुत्र मैं उसको अपमान नहीं समझता… वह तो न्याय था...मेरे अपराधों का दंड था...वह शिव तो अनादि और परंब्रह्म है … तुम उसके सत्य को नहीं झुठला सकते। तुम व्यर्थ का दम्भ मत करो।”

दक्ष क्रोधित हो कर चले जाते हैं। इधर माता प्रसूती और बहनें अत्यधिक उद्विग्न हैं। माता प्रसूती का रो-रो का बुरा हाल है। वह सती को बारंबार पुकारती हैं―

“सती! शीघ्र ही उठ जाओ सती, तुम्हारे बिना मैं कैसे जीवित रहूंगी... सती?”

सती उसी तरह योग निंद्रा में शांत और गतिहीन शय्या पर लेटी हुई हैं, तभी वह स्वप्न देखती हैं। मानो शिव उनसे कह रहे हों―

“सती…,! उठो सती, देखो तुम्हारे परिजन परेशान हो रहे हैं...अब उठ जाओ सती”।

सती अचानक शिव-शिव पुकारते हुए उठ जाती हैं। माता प्रसूती और बहने अत्यन्त प्रसन्न होती हैं, महाराज दक्ष को सूचना दे दी जाती है।

“सती कितनी दुर्बल हो गई है”।

माता प्रसूती सती को प्रेम पूर्वक भोजन करवाती हैं।

अब सती का भ्रम दूर जो गया था उसने निर्णय ले लिया था। यदि मैं विवाह करूँगी तो शिव से ही। वह माता प्रसूती से कहती हैं―

“माँ! मैंने निर्णय ले लिया है मैं अब शिव से ही विवाह करूँगी।”

“ठीक है पुत्री... यदि तुम शिव से ही विवाह करना चाहती हो तो तुम अवश्य करो, मैं तुम्हारे पिता से बात करूँगी।”

माता प्रसूती सती को आश्वासन दे कर चली जाती हैं। किंतु वह जानती थीं इस विवाह के लिए उनकी सहमती लेना असंभव है। वह कई तरह से दक्ष को समझाने का प्रयास करती हैं। वह उन्हें माता आदि शक्ति के वचनों का भी स्मरण करवाती हैं, किन्तु महाराजा दक्ष अपने दम्भ और हठ के सम्मुख कुछ सुनना नहीं चाहते थे।

लेकिन सती भी दाक्षायणी थीं, अपने पिता के ही समान हठी। उसने भी अब निश्चय ले लिया था कि अब वह शिव से ही विवाह करेगी। अतः वह शिव को प्रसन्न करने के लिए आराधना करने लगती हैं।

समय बितने लगता है...शिव ने अभी तक सती से कोई संपर्क नहीं किया, परंतु इससे सती की भक्ति और धैर्य में कोई अभाव नहीं दिखाई देता।

इधर पिता ब्रह्मा, विष्णु और समस्त देवता गण चिंतित होने लगते है कि शिव सती को दर्शन क्यों नहीं दे रहे? वह सभी शिव के पास जाते हैं और उन्हें स्मरण कराते हैं―

ब्रह्मा– ”महादेव! आप सती से इतनी प्रतीक्षा क्यों करवा रहे हैं?”

विष्णु–”परमेश्वर! आप तो सर्व ज्ञानी हैं, आप भली-भाँति जानते हैं कि माता सती ने आप से मिलन के लिए ही यह रूप धारण किया है, ताकि सृष्टि की व्यवस्था में कोई व्यवधान न हो।”

ब्रह्मा पुनः कहते हैं―

“महादेव! अब सती से विवाह का समय आ गया है। आप शीघ्र ही प्रसन्न हो और माता सती के इस जन्म के उद्देश्य को पूर्ण करें।”

सभी को शांत भाव से सुनने के पश्चात महादेव कहते हैं―

“यदि आप लोगों की यही इच्छा है तो यह अवश्य पूर्ण होगी।”

शिव सती को दर्शन देकर यह आश्वासन देते हैं कि उनकी मनोकामना अवश्य पूर्ण होगी। ऋषि नारद प्रजापति दक्ष के पास शिव का संदेश लेकर आते हैं―

“प्रजापति दक्ष! महादेव शिव आप की पुत्री सती से विवाह करना चाहते हैं”

प्रजापति दक्ष ऋषि नारद के वचन सुनकर अत्यंत क्रोधित होते हैं―

“कदापि नहीं, मैं अपनी पुत्री का विवाह उस सन्यासी से कदापि भी नहीं होने दूँगा। उसके पास मेरी पुत्री को देने के लिए है ही क्या...एक महल तक भी नहीं है...वह अपनी पत्नी को रखे गा कहाँ…? स्वयं तो मृग-चर्म धारण करता है...क्या मेरी पुत्री भी मृग चर्म पहनेगी।”

“परंतु दक्ष तुम जानते हो कि तुम्हारी पुत्री शिव की शिवा है, तुम तो केवल इस मिलन के माध्यम मात्र हो। पुत्री सती तो शिव की ही है और सदैव शिव की ही रहेगी।”

तभी माता प्रसूती और सती कक्ष में प्रवेश करती हैं, प्रसूती कहती हैं―

“नाथ! आप स्वीकारोक्ति क्यों नहीं दे देते.. ईश्वरेच्छा में आप बाधक क्यों बन रहे?”

सती सहमी हुई माता के साथ खड़ी हैं। दक्ष क्रोध से सती की ओर देखते हैं और नारद से कहते हैं―

“ठीक है... जाओ, उस सन्यासी से कह दो... सती के लिए मैं इस विवाह के लिए तैयार हूँ, लेकिन इस स्वीकारोक्ति से वह कदापि भी यह न समझे कि मैंने शिव को उसके अपराध के लिए क्षमा कर दिया।”

सती और शिव का विवाह संपन्न हो जाता है। सती अपने पति के साथ कैलाश रहने चली आती हैं। नंदी और अन्य गण सती और शिव का कैलाश पर स्वागत करते हैं। समय बितने लगता है सती अपने पत्नी-धर्म और गृहस्थ कार्य में व्यस्त हो जाती हैं।

शिव सदैव अपनी साधना में लीन रहते। सती एक कुशल गृहिणी की तरह गणों और कैलाश पर आने वाले सभी अतिथियों का ध्यान रखती हैं।

एक दिन सती और शिव दोनों वन विहार पर निकलते हैं। मार्ग में सती शिव से पूछतीं हैं―

"देव! आप दिन रात किसकी साधना में मग्न रहते हैं।

महादेव मुस्कुराते हुए कहते हैं―

"देवी! मैं तो श्री राम का भक्त हूँ, मैं तो सदैव उन्हीं का स्मरण और ध्यान करता हूँ।"

देवी आश्चर्य से पूछती हैं―

"राम...यह राम कौन हैं, देव?"

तब महादेव सती को विष्णु के छठे अवतार राम की कथा सुनाते हुए कहते हैं―

"देवी! राम कोई और नहीं वह तो स्वयं नारायण हैं। राम वही सर्वशक्तिमान परमेश्वर हैं जो निर्विकार होकर भी मानव को सत्य, धर्म और मर्यादा का मार्ग दिखाने के लिये धरती पर अवतरित होंगे।

"होंगे से क्या तात्पर्य है नाथ क्या वह अभी नहीं हैं"

"ऐसा नहीं है देवी कि वह नहीं हैं वह तो अनादि हैं...अव्ययी हैं वह तो इस ब्रह्मांड की उत्पत्ति के पूर्व भी थे और उसके समाप्ति के पश्चात् भी रहेंगे...वह तो अविनाशी है...पुरुषोत्तम हैं। बस वह अभी अपने लीला रूप में प्रकट नहीं हुए हैं।

"तब तो स्वामी! आपको उनकी लीला का भी ज्ञान होगा।"

"अवश्य दाक्षायणी...! राम दशरथ पुत्र के रूप में इक्ष्वाकु वंश को सुशोभित करेंगे। देवी! मैं तुम्हें योग दृष्टि से प्रारब्ध का दर्शन कराता हूँ।

सती शिव की सहायता से राम जन्म, उनका विवाह देखती हैं, परंतु जब सीता का अपहरण हो जाता है तो वह राम को विलाप करता हुआ देख कर शिव से कहती हैं―

“स्वामी आप तो कह रहे थे राम परंब्रह्म है, किन्तु यह तो साधारण मनुष्य के भाँति विलाप कर रहे हैं”।

शिव कहते हैं―“दाक्षायणी! प्रभु राम इस समय धरती पर साधारण मनुष्य के भाँति लीला कर रहें हैं, वह बताना चाहते हैं कि विकट परिस्थितियों में भी अपने धैर्य और कर्तव्यों को नहीं भूलना चाहिए।”

सती का संदेह अभी नष्ट नहीं हुआ है। वह कहती हैं―“राम वास्तव में परंब्रह्म हैं–यह जानने के लिए क्या मैं उनकी परीक्षा ले सकती हूँ?"

"अवश्य, यदि तुमको विश्वास नहीं होता तो...जैसी तुम्हारी इच्छा"।

सती अपने योग शक्ति से राम के पास पहुंचती हैं। उस समय श्री राम रावण से युद्ध के पूर्व शिव लिंग की स्थापना एवं अभिषेक में व्यस्त थे। उसी समय सती सीता के वेश में राम के सामने प्रस्तुत होती हैं―

सीता वेश में सती– "आर्य! मैं वापस आs...।

सती ने अपना वचन अभी पूर्ण भी नहीं किया था तभी राम कहते हैं―

राम– "माता सती! आपके दर्शन से मैं कृतार्थ हुआ। आपके दर्शन से मुझे अब पूर्ण विश्वास हो गया कि मैं सीता को पुनः प्राप्त कर सकूंगा।"

सती अपने वास्तविक रूप में आ जाती हैं और राम को लंका विजय का वरदान और देवी सीता से पुनः मिलन का आशीर्वाद देती हैं।

 

सती वापस कैलाश आ जाती हैं, परंतु यह क्या...? अपना आसान अपने स्थान पर न देख कर व्याकुल हो जाती हैं―

"यह क्या.. स्वामी! मेरा आसन... आपने मुझे अपने से दूर क्यों कर दिया?"

"हाँ, देवी! आपने राम के सम्मुख मेरी माता सीता का रूप धारण किया था...देवी सीता मेरी माता हैं।"

सती को अपने भूल का ज्ञान हो जाता है अतः वह पश्चाताप के लिए शिव साधना के लिए चली जाती हैं।

एक दिन प्रजापतियों के एक यज्ञ में दक्ष सहित सभी देवता वहां उपस्थित होते हैं। दक्ष के प्रवेश के समय ब्रह्मा और शिव के अतिरिक्त सभी खड़े होकर उनका स्वागत करते हैं, लेकिन दक्ष... शिव उनका जमातृ है यह सोच कर उनके न खड़े होने पर अपना अनादर समझते हैं। उन्होंने शिव के प्रति कटूक्तियों का प्रयोग करते हुए–अब से उन्हें यज्ञ में देवताओं के साथ भाग न मिलने का शाप दे देते हैं। इस प्रकार शिव और दक्ष की कटुता धीरे-धीरे अपने चरम तक पहुंचने लगती है।

सती शिव साधना में व्यस्त हैं। जब वह शिव पूजा के लिए पुष्पों का चयन कर रही थीं तभी देखती हैं कि यक्ष, गंधर्व, देवता सभी सपत्नीक उत्तर दिशा की ओर जा रहें हैं। सती को यह देख कर आश्चर्य होता है कि सभी प्रातः - प्रातः कहां जा रहे, तभी ऋषि नारद को देख कर सती पूछती हैं―

"काका! ये आप सभी लोग कहाँ जा रहे?"

"पुत्री! तुम्हें ज्ञात नहीं प्रजापति दक्ष ने सभी को यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए निमंत्रण दिया है। क्या तुमको निमंत्रण प्राप्त नहीं?"

"नहीं... नहीं काका ऐसा नहीं है, कार्य की व्यस्तता के कारण उन्होंने सोचा होगा कि पश्चात में सती को निमंत्रण दे देंगे।"

सती अत्यंत दुःखी हो गई। आखिर कब तक पिता श्री शिव से रुष्ट रहेंगे...? उनका अपमान करते रहेंगे... कब तक ये सब चलता रहेगा...? कब तक मैं अपने पति का अपमान अपने ही पिता के मुख से सुनती रहूँगी...? अब पिता श्री ने अति कर दी है। कदाचित अब निर्णय लेने का समय आ गया है।

सती दुःखी मन से शिव से मिलने जाती हैं। शिव का मन भी आज विचलित है कदाचित उन्हें आने वाली घटनाओं का ज्ञान है। वह सती को अपने ओर आते हुए देखते हैं तो उनकी हृदय-गति तीव्र हो जाती है। वह सती को देख कर सोचते हैं कि ये परिस्थितियां कितना निष्ठुर होती हैं। सती शिव के पास आकर खड़ी हो जाती हैं दोनों एक दूसरे को बहुत देर तक देखते है जैसे नेत्रों से कुछ कर रहे हों। कुछ समय पश्चात सती शिव से कहती है―

"स्वामी अब बलिदान का समय आ गया है"।

शिव सब कुछ जानते हुए भी कहते हैं―

"तुम क्या कह रही हो सती, मैं कुछ समझा नहीं"।

"हाँ, स्वामी! अब उचित समय आ गया है क्योंकि प्रजापति दक्ष का अहंकार अब अत्यधिक ऊँचा हो गया है, वह स्वयं को ईश्वर समझने लगा है। उसने सभी को यज्ञ के लिए निमंत्रण भेजा– पर अहंकार वश वह उन्हीं को बुलाना भूल गया जो इस यज्ञ...इस संसार... और समस्त जड़ चेतन का आदि कारण है।

मुझे अपने पिता के घर जाने की अनुमति दे। स्वामी...मुझे दक्ष के घर जाने की अनुमति दें। मैं उनसे पूछना चाहती हूँ कि ऐसा कौन सा कारण है, जो अपनी ही पुत्री के घर निमंत्रण भेजने से उन्हें रोकता है।"

शिव अब समझ रहे थे कि सती अब मुझसे दूर हो जाएगी। उसकी और मेरे मिलन की अवधि बस इतनी ही थी, इसके बाद एक लंबी वियोग की स्थिति को सहन करना होगा। वह नहीं चाहते कि सती वहां जाए। शिव कहते हैं―

"प्रिये! जब हमें निमंत्रण नहीं आया है तो तुम ऐसे स्थान पर क्यों जाना चाहती हो? बिना निमंत्रण के जाना उचित नहीं"।

"नहीं स्वामी अब मुझे मत रोकिये, मैं जाना चाहती हूँ, मुझे अब अपने पिता से बात करनी ही होगी।"

"लेकिन प्रिये बिना निमंत्रण के जाना उचित नहीं, किसी और दिन चली जाना"।

शिव जानते थे कि यदि सती चली गई तो फिर कभी वापस नहीं आएगी, कदाचित् मैं इसे अंतिम बार ही देख रहा हूँ, वह मन ही मन बोल रहे... सती मान जाओ मत जाओ।

सती कहती हैं―

"स्वामी! आप तो सब कुछ जानते हैं, आप जानते है कि यही वह समय है जब मुझे सत्य और मर्यादा की रक्षा के लिए बलिदान होना पड़ेगा, जब कोई व्यक्ति अपने अहंकार में परम सत्य को भुला बैठता है तो किसी को न्याय करना ही पड़ता है। अब दक्ष को दंड देने का समय आ गया है।"

"लेकिन सती मैं तुम्हारे बिना कैसे रहूंगा?"

"आप चिंता न करें स्वामी मैं पुनः आऊँगी "। आप मुझे जाने की अनुमति प्रदान करें।"

शिव काँपते हुए अधरों और लड़खड़ाते हुए शब्दों से कहते हैं―

"जै...सी...तुम्हारी इच्छा...सती"।

सती अपने पिता के नगर पहुँचती हैं, नगर में काफी चहल-पहल है सभी लोग यज्ञ के लिए अत्यधिक उत्सुक हैं। सम्पूर्ण नगर एक वधू की समान श्रृंगारित है। सती जैसे ही प्रासाद के द्वार तक पहुंचती हैं द्वारपाल सती को रोकते हुए कहता है—

"देवी! आपको अंदर जाने की अनुमति नहीं है"।

सती आश्चर्य से द्वारपाल की ओर देखती हैं और कहती हैं—

"मुझे अनुमति नहीं है... तुम्हें पता है न कि तुम क्या कह रहे हो... तुम किससे बात कर रहे हो?"

"देवी! मैं विवश हूँ, महाराज का आदेश है"।

"मेरा अपने पिता से मिलना अत्यंत आवश्यक है, तुम मार्ग से हट जाओ"।

द्वारपाल सती को सिर झुका कर मार्ग देता है। सती सभा मंडप में पहुंचती हैं, माता प्रसूती और पिता दक्ष यज्ञ की वेदिका पर विराजमान हैं। माता प्रसूती सती को देख कर अत्यंत प्रसन्न होती हैं—

"सती तुम आ गई ...तुम नहीं जानती कि तुम्हें देख कर मैं कितनी खुश हूँ"।

सती माँ को प्रणाम करते हुए पिता को ओर आगे बढ़ती है तभी प्रजापति दक्ष सती को रोकते हुए कहते हैं—

"रुक जाओ सती...तुम यहां क्यों आयी हो? क्या तुम्हें पता नहीं कि बिना निमंत्रण किसी के घर नहीं जाते"

"किसी का घर..? क्या पिता का घर किसी का घर होता है, पिता जी?"

"सती! पुत्रियाँ विवाह के पश्चात अन्य घर की हो जाती हैं।"

"अन्य घर की...? क्या विवाह पश्चात पिता पुत्री का संबंध विच्छेद हो जाता है? क्या अब मैं आप की कुछ नहीं...? क्या अब मैं आपकी सर्वप्रिय पुत्री नहीं...? मुझे आज भी याद है मुझे जरा सी चोट लगने पर आप कितने विचलित हो जाते थे।"

"बस करो सती मैं वह सब नहीं सुनना चाहता...मैं बस इतना जानता हूँ कि तुम्हें यहाँ नहीं आना चाहिए था।"

"क्यों पिता श्री...?यही तो मैं जानना चाहती हूँ कि ऐसा क्या हो गया कि मुझे अपने ही पिता के घर आने के लिए मुझे निमंत्रण की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।"

"सती... मुझसे विवाद मत करो, मेरा संबंध उसी समय तुमसे टूट गया था जब तुमने उस ढोंगी, पाखंडी और असभ्य शिव से विवाह किया था।"

"पिता श्री आप यह भूल रहें है कि अब शिव आपके जमातृ और मेरे पति हैं। आपकी ही बनाई हुई उस परंपरा और सभ्यता के अनुसार आपको अपने जमातृ का सम्मान करना चाहिए।"

"सम्मान करना चाहिए...? उसको मैं अपना जमातृ मानता ही नहीं...सम्मान करना तो दूर की बात है। कितना निर्लज्ज है वह, जो यह जानते हुए भी कि उसको आमंत्रित नहीं किया गया है...उसके पश्चात भी उसने तुम्हें यहां आने की अनुमति दी।"

"पिता श्री मैं यहाँ अपनी इच्छा से आयी हूँ। उन्होंने तो मुझे यहाँ आने से रोका था, लेकिन मैंने सोचा; पिता के घर जाने के लिए निमंत्रण की क्या आवश्यकता है? परन्तु शायद मैं भ्रमित थी।"

"हाँ... तू इस भ्रम में न रह कि उस असभ्य, अर्ध नग्न और भिखारी को मैं अपना जमातृ स्वीकार कर लूँगा।"

"बस पिता जी बस...मैं तो यहाँ इस लिए आई थी कि आप इस शत्रुता से उत्पन्न मेरी वेदना को समझेंगे, आप यह समझेंगे की जब पिता की ओर से कोई सम्मान उसके पति कुल में नहीं आता तो एक पुत्री को कितनी मानसिक और हार्दिक पीड़ा होती है। मैं तो यह बताना चाहती थी कि मातृ-कुल और पति-कुल में अच्छे संबंध न होने पर उसका दुष्परिणाम उसकी पुत्री को ही भोगना होता है"।

"मैं कुछ सुनना नहीं चाहता सती... मैं बस इतना जानता हूँ कि तुम्हारे उस शिव ने मेरे पिता का अपमान किया था और उस अपमान को मेरे पिता क्षमा कर सकते हैं, मैं नहीं।"

"पिता श्री जिसे आप अपमान समझते हैं, वह तो एक दण्ड था। पिता श्री, आप यह क्यों नहीं समझना चाहते कि शिव और कोई नहीं अपितु वह तो आदि पुरुष परम तत्व हैं। वह तो ब्रह्माण्ड निर्माण के पूर्व भी विद्यमान था और उसके नष्ट होने के पश्चात भी रहेगा। वह तो अविनाशी, निर्विकार और अखंड हैं। वह तो अनादि और अनंत हैं। न तो उनका कोई आरम्भ है न ही अंत।"

"सती तुम चली जाओ; मैं यहाँ तुम्हारे पति की प्रशंसा सुनने नहीं बैठा हूँ, मुझे यज्ञ में विलंब हो रहा है।"

"चली जाऊँ... पर अब मैं किस मुख से वापस जाऊँ... अब मैं इस योग्य ही नहीं रही कि मैं वापस चली जाऊँ, मैं उनसे क्या कहूँगी...कि मैं वह पतिव्रता स्त्री हूँ, जो अपने पति के लिए अपमान भरे शब्द सुनकर भी जीवित है। पिता श्री, अब मुझे इस दाक्षायणी देह का त्याग करना होगा, मुझे अब जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं।"

तभी माता विचलित होकर कहती हैं―

"नहीं सती ... नहीं। ऐसा मत कहो।"

फिर वह दक्ष से कहती हैं―

"आप सती से ऐसे वचन कैसे कह सकते हैं? वह हमारी पुत्री है।"

"मैं कुछ सुनना नहीं चाहता। वह मरना ही चाहती है तो मरे...मैं किसी भी स्थिति में शिव को सम्मान नहीं दे सकता।"

पिता के मुख से यह वचन सुनकर सती को असहनीय पीड़ा होती है और वह अपने मूल रूप आदि शक्ति के रूप में प्रकट हो जाती हैं यह दृश्य देख कर वहां उपस्थित ब्रह्मा, नारायण सहित सभी देवों और ऋषियों ने उन्हें प्रणाम किया और अंतर्ध्यान हो गए । महादेवी अपनी ओजस्वी वाणी में कहती हैं―

"दक्ष! तुमने आज अपनी सारी मर्यादाएं पार कर ली हैं, तुम्हारा अब कोई भी पुण्य शेष नहीं रहा, जो तुम्हारी रक्षा करेगा। अब तुम्हारा अंत निश्चित है। अब तुम्हारे आराध्य भी तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकेंगे। आज मैं अपने दाक्षायणी होने के कलंक को नष्ट कर दूँगी और साथ ही तुम्हारे इस अहंकार का भी अंत हो जाएगा।"

यह कहते ही महादेवी अंतर्ध्यान हो जाती हैं...और देवी सती का शरीर आत्म तेज की अग्नि से श्यामल होकर भूमि पर गिर पड़ता है।

चारों ओर हाहाकार मच जाता है। माता प्रसूती और बहनें विलाप करने लगती हैं, इधर दक्ष नारायण के पास सुरक्षा मांगने जाते हैं। लेकिन वह भी कह देते हैं कि... मैं एक सीमा तक ही तुम्हारी रक्षा कर पाऊंगा; आगे महादेव की इच्छा।

शिव को सती के आत्म दाह का ज्ञान हो जाता है, उनका हृदय फट जाता है, वह तीव्र ध्वनि से चीत्कार करने लगते हैं और वीरभद्र को आदेश देते हैं― “उस अहंकारी दक्ष का शिर खंडित कर दो।“ वीरभद्र शिव की आज्ञा से दक्ष का विध्वंस करने पहुँच जाता हैं। वीरभद्र दक्ष की सारी सेना को नष्ट कर देता है फिर नारायण भी दक्ष के प्रति अपने वचन से बंधे होने के कारण वीरभद्र से युद्ध करते हैं लेकिन युद्ध संबंधी मर्यादा के पूर्ण होने के पश्चात वहाँ से चले जाते हैं । अब दक्ष अकेला हो जाता है वह भयभीत होता हुआ यज्ञ शाला की ओर बढ़ता है, वीरभद्र भी उसके पीछे-पीछे आता है और दक्ष का शिर काट कर यज्ञ कुंड में फेंक देता है। शिव विलाप करते हुए प्रकट होते हैं और सती को अपने कंधे पर लेकर चले जाते हैं।

सती ने सत्य के लिए अपना बलिदान दिया था क्योंकि जो व्यक्ति अहंकार वश स्वयं को ईश्वर और अन्य को तुच्छ समझने की भूल करता है,  उसका अंत अवश्यम्भावी हो जाता है। यही सती का संदेश है और यही प्रकृति की विडंबना है। दूसरे शब्दों में दक्ष महादेवी आदि शक्ति के भक्त थे। उन्होंने सती को आदि शक्ति की कठोर तपस्या से प्राप्त किया था। जब भक्त अपना मार्ग भूल कर दम्भी अहंकारी हो जाता है तो ईश्वर का कर्तव्य हो जाता है कि वह अपने भक्त की रक्षा करें और उसे अधोगति से बचाये। जब प्रजापति दक्ष का अहंकार अपने सर्वोच्च पर पहुँच गया तो आदि शक्ति ने अपने भक्त के कल्याण के लिये यह सब लीलाएं रचीं और अपने भक्त को वास्तविकता का ज्ञान कराया। माता प्रसूती के विलाप करने पर शिव ने दक्ष को पुनर्जीवित कर दिया था।  दक्ष को अब अपनी भूल का ज्ञान हो गया था। उसने शिव से क्षमा माँगी और सदैव के लिए शिव आराधना में अपने-आप को विलीन कर लिया। एक भक्त के कल्याण के लिये सती ने अपने शिव से एक लंबा वियोग सहन किया।

-डॉ माधवी श्रीवास्तवा, न्यूज़ीलैंड

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