जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।
 
मेरे व्यंग्य लेखन की राह बदलने वाले (कथा-कहानी)       
Author:प्रेम जनमेजय

उस उम्र में ‘आयुबाध्य' प्रेम के साथ-साथ मुबईया फिल्मों का प्रेम भी संग-संग पींग बढ़ाता था। पता नहीं कि फिल्मों के कारण मन में प्रेम का अंकुर फूटता था या मन में प्रेम के फूटे अंकुर के कारण हिंदी फिल्मों के प्रति एकतरफा प्रेम जागता था। या दोनो तरफ की आग बराबर होती थी। पर कुछ भी हो फिल्मो ने बॉम्बे के प्रति बेहद आकर्षण जगा दिया। हिंदी फिल्मों ने मेरे बॉम्बे ज्ञान में आकार्षणात्मक वृद्धि की। ये वृदिृध ज्यो ज्यों बूड़े श्याम रंग जैसी थी। चौपाटी जुहू के समुद्र और ऊंची इमारतों ने आकर्षण बढ़ाना आरम्भ कर दिया। दिल्ली में तो मैं एक ही ऊंची इमारत को जानता था और उसे देखा था--कुतुब मीनार। दिल्ली की सरकारी कर्मचारियों की कालोनी रामकृष्ण पुरम में पहली बार मनोरंजन के साधन, टी वी से आंखें चार हुईं।कम्युनिटी सेंटर में दूरदर्शन का चित्रहार और फि़ल्में देखते हुए बाली उमरिया अंगड़ाई लेने लगी। तब एटलस से निकलकर फिल्मी ज्ञान के माध्यम से मुम्बई के विशाल समुद्र और ऊंची इमारतों को देख जाना। न न न फिल्मों का भूत ऐसा नहीं था कि हीरो बनने के लिए बॉम्बे की रेलगाड़ी में चढ़ा देता और स्ट्रगल कराता। पर हां ऐसा अवश्य था कि प्रेमिका के साथ-साथ बॉम्बे का समुद्र और ऊंची अट्टालिकाएं भी सपनों का हिस्सा बनें।

इसके बाद मेरे जीवन में आया धर्मयुग। बॉम्बे से निकलने वाला ‘धर्मयुग'। बॉम्बे को और गहरे से जोड़ने वाला ‘धर्मयुग'। फिल्मों के आकर्षण से ‘मुक्त' कर साहित्य जगत से जोड़ने वाला ‘धर्मयुग'। मैंने लिखा भी है- 1966 के लगभग जब मैंने हिंदी साहित्य के स्कूल में प्रवेश लिया, हिंदी साहित्य में ‘धर्मयुगीन' और ‘साप्ताहिकी' काल चल रहा था। ‘धर्मयुग' मुख्य रूप से एक परिवारिक पत्रिका थी जिसमें इल्म से लेकर फिल्म तक, राजनीति से लेकर गृहनीति तक, सब प्रकाशित होता था। परंतु यह साहित्य क्षेत्र की सर्वप्रमुख पत्रिका थी। इसमें प्रकाशित होने वाले युवा लेखक की पहली प्रकाशित रचना उसे रातों रात साहित्य की दुनिया में चर्चित कर देती थी। इसमें प्रकाशित होना किसी भी युवा रचनाकार का स्वप्न होता था।

व्यंग्य साहित्य में मुझे पहचान दिलाने के लिए धर्मवीर भारती जी का योगदान मैं कभी भूल नहीं सकता। एक समय था जब मेरी रचनाएँ अस्वीकृति की चेपी के साथ ‘धर्मयुग' से वापिस आती थीं। एक समय वो आया जब धर्मयुग में अनेक सहायक सम्पादकों (नाम नहीं लिख रहा।) ने मेरी व्यंग्य रचनाएँ मांगीं। और स्वर्णिम समय वह आया जब भारती जी ने न केवल रचना के लिए लिखा अपितु विषय भी सुझाये। भारती जी के यह पत्र मेरी धारोहर हैं। भारती जी ने न केवल मुझे धर्मयुग में छापा अपितु अपने परामर्श द्वारा मेरे लेखन की राह भी बदली। व्यंग्य की गहरी और पारखी दृष्टि रखने वाले भारती जी से बाद के समय में जो आत्मीयता मिली वह अविस्मरणीय है।

बात सन् 1984 की है। मैं 35 वर्ष का युवा रचनाकार था। इस उम्र्र के लेखक के मन में अनेक लेखकीय महत्वाकांक्षाएं कुंडली मारती रहती हैं।रामावतार चेतन उन दिनों हास्य-व्यंग्य की महत्वपूर्ण पत्रिका ‘रंग चकल्लस' तो निकालते ही थे, उसकी बीसवीं वर्षगांठ पर उन्होंने ‘चकल्लस पुरस्कार ट्रस्ट' की स्थापना की जिसके अंतर्गत हास्य-व्यंग्य लेखन को प्रोत्साहित करने के लिए प्रतिवर्ष बीस हजार रुपए का पुरस्कार विगत दस वर्षो की अवधि में हिंदी व्यंग्य साहित्य को सर्वश्रेष्ठ योगदान के लिए दिए जाने की घोषणा की गई। इस अवसर पर एक कवि सम्मेलन भी होता था। मुझे 21 वें वार्षिक हास्य महोत्सव एवं चकल्ल्स पुरस्कार समर्पण समारोह के लिए बुलाया गया। इस समारोह में हरिशंकर परसाई को पुरस्कृत किया जाना था, ये दीगर बात है कि वे नहीं आ पाए या नहीं आए। इस समारोह में जिन चकल्लसकारो को रचना पड़नी थी उनमें मेरे अतिरिक्त शरद जोशी, शैल चतुर्वेदी, आसकरण अटल, सुरेश उपाध्याय, विश्वनाथ विमलेश, अल्हड़ बिकानेरी, प्रदीप चौबे और मनोहर मनोज थे।

मेरे मुबई जाने के लालच एक पंथ अनेक काज वाले थे। मुबई उन दिनों हर धर्मयुगी लेेखक के लिए आकर्षण का केंद्र था। मुबईं जाएंगें और भारती जी के दर्शन करेंगे का लालच होता।

मुबई मुझे पहले भ्रष्टाचार के लिए आकर्षित करने वाले

रामावतार चेतन मंच की गरिमा के प्रति बेहद ही सावधान थे। कवि सम्मेलन के निमंत्रण के साथ निमंत्रित रचनाकार को निमंत्रण के साथ हिदायते भी संलग्न होती थीं। कवि सम्मेलन से एक दिन पहले बाकायदा रिहर्सल होती। 16 फरवरी को बाकायदा रिहर्सल थी जिसमें रामावतार चेतन ने मुझे शरद जोशी के हाथ सौंप दिया। शरद जोशी ने मेरी तीन रचनाओं में से ‘जाना पुलिस वालों के यहां इक बारात में' व्यंग्य पाठ के लिए चुनी। कुछ टिप्स दिए। ये मेरे लिए किसी बड़े मंच पर व्यंग्य पाठ करने का पहला अवसर था। परीक्षा की घड़ी जैसा। इस मंच पर मुझे और शरद जोशी को गद्य-व्यंग्य पाठ करना था। यह मेरी लिए बहुत ही चुनौतीपूर्ण कार्य था। अगले दिन, 17 फरवरी को, कार्यक्रम में अनेक विशिष्ट व्यक्तिओं में धर्मवीर भारती भी थे। मेरी रचना बहुत जमी। शरद जोशी ने अंत में अपनी दूसरी रचना भी पढ़ी। यह मेरे लिए अच्छा संकेत था।

अगले दिन मैं भारती से मिलने ‘धर्मयुग' के दफतर गया। भारती जी ने अपने लिए नींबू वाली चाय और मेरे लिए सामान्य चाय मंगवाई। बीस-पच्चीस मिनट तक उनसे अनेक विषयों पर बातचीत हुई, विशेषकर परसाई जी को लेकर। मुझे व्यंग्य लेखक के रूप में पहचान देने में ‘धर्मयुग' की एक महत्वपूर्ण भूमिका थी। जिन भारती जी से मिलना अनेक युवा रचनाकारों का दिवा स्वप्न था, मैं उन्हीं के समक्ष बैठा था, मंत्रमुग्ध।भारती जी ने मुझ युवा व्यंग्यकार के साथ व्यंग्य चर्चा करते हुए धीमे-से सवाल उठा दिया- परसाई जी के बारे में तुम्हारे क्या विचार हैं? मैंने कहा- परसाई जी इस समय प्रगतिशीलता की रेलगाड़ी में विराजमान हैं, जो गतिशील नहीं है वह भी उन्हें गतिशील लग रहा है और जो गतिशील नहीं है विपरीत दिशा में जा रहा है, वह कहीं विलुप्त होता दिखाई दे रहा है। वह स्थिर बैठे हैं पर रेलगाड़ी के कारण वे गतिशील हैं- - -' भारती जी मुस्कराए, जैसे उनको उनका मनचाहा उत्तर मिल गया और लग गया कि लड़का सही दिशा में जा रहा है।

इस बातचीत में मेरा युवामन निरंतर इस बात की प्रतीक्षा करता रहा कि भारती जी, पिछले दिन मेरे द्वारा किए गए सफल व्यंग्य पाठ पर, कुछ प्रशंसात्मक कहेंगे, मेरी पीठ ठोकेंगे। पर ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा था। जब लगा कि बातचीत समाप्त होने के दौर में है तो मेरा धैर्य जवाब देने लगा। मैंनें दोनों हाथेलियों को एक दूसरे के साथ विवशता में मलते हुए कहा- भाई साहब, कल का मेरा व्यंग्य-पाठ आपको कैसा लगा?'

भारती जी थोड़ा मुस्कराए, बोले- बढ़िया था,' फिर थोड़ी देर रुके और बोले, ‘देखो प्रेम, तुम दोराहे पर हो,यहां से तुम्हारे लिए दो रास्ते हैं- एक तालियों भरा मंच का रास्ता है जिसमें पैसा है और तुरंत यश पाने का सरल मार्ग है, और दूसरा वो रास्ता है जिसपर तुम अभी चल रहे हो तथा जो लंबा और कठिन है। अब यह तुम्हें तय करना है तुम्हें किस रास्ते पर जाना है।'

- पर भाई साहब, शरद जोशी भी तो मंच से जुड़े हैं और- - -'

- प्रेम, पहले शरद जोशी बन जाओ।'

मेरे लिए यह मंत्र बहुत था। इसके बाद मंच कभी भी मेरी प्राथमिकता तो क्या प्रलोभन भी नहीं रहा। मंच को अछूत नहीं समझा, उससे घृणा नहीं की, पर मंच के लिए कभी लालायित नहीं रहा।

उस दिन मुझे समझ आ गया कि ‘धर्मयुग' और परसाई के बीच छत्तीस का आंकड़ा उपस्थिति हो चुका है। परसाई प्रगतिशील चेतना के नैसर्गिक रचनाकार हैं और प्रगतिशील लेखक संघ में जाकर वे बहुत अधिक प्रगतिशील नहीं हो गए। पर प्रगतिशील लेखक संघ में जाने के कारण उन्हें कुछ साहित्य मर्मज्ञ सीमित दृष्टि से देखने लगे।

इसके बाद 1989 की एक याद है जब भारती जी से सपरिवार उनके घर मिला था। भारतीय सरकार सरकारी कर्मचारियों को एल टी सी नामक सुविधा देती है जिससे वो कूपमंडूक न हो और दिल्ली की गलियां छोड़ मुबई जैसे महानगर की गलियां नापे। 1989 के दिसंबर में हरीश नवल परिवार, मित्र सुधीर वासल परिवार और मेरे परिवार ने एल टी सी नामक सुविधा का सदुपयोग कर मुंबई यात्र का कार्यक्रम बनाया। हरीश सुधीर और मैं लगभग हमउम्र हैं और हमारे बच्चे भी लगभग हमउम्र हैं। हरीश और सुधीर की देानों बेटियां और मेरे दोनो बेटे संग संग खेलकर बड़े हुए हैं। उस समय हमारे बड़े बच्चे 13-14 वर्ष के और छोटे नौ-दस साल के रहे होंगे। हम तीनो परविारों ने मुंबई के फिल्म से लेकर इल्म तक का आंनद उठाया। तेरा क्या होगा कालिया के बीजू खोटे से शूटिंग में मिले और अरुणा इरानी का शूट होता नृत्य देखा। इस यात्र में हम सपरिवार भारती जी के घर गए। उनके यहां कि बोलती मैना और पक्षियों को देखकर बच्चे मंत्रमुग्ध हो गए। पुष्पा भारती जी ने जिस तरह से बच्चों की ‘आवभगत' की लगा ही नहीं कि धर्मवीर भारती के उस घर में आवभगत करा रहे हैं जहां घुसने का कुछ खास लोगों के पास अधिकार है।

भारती जी के साहित्य, उनकी व्यंग्य दृष्टि , उनके इलाहबादी प्रेम आदि को लेकर मेरे पास इतना है कि कितने भी पृष्ठ भरे जा सकते हैं। फिलहाल इतना ही।

- प्रेम जनमेजय

विशेष: डॉ भारती के प्रेम जनमेजय को लिखे पत्र (डॉ भारती की हस्तलिपि में) यहां देखें : 

पत्र-1
पत्र-2 
पत्र-3  

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