यह संदेह निर्मूल है कि हिंदीवाले उर्दू का नाश चाहते हैं। - राजेन्द्र प्रसाद।
 
प्रतीक्षा (काव्य)       
Author:स्वरांगी साने

बेटी आने वाली है
यह सोच कर
उसकी आँखें सुपर बाजार हो जाती हैं
और वो सुपर वुमन।
पूरे मोहल्ले को खबर कर देती है
कहती है- दिन ही कितने बचे हैं, कितने काम हैं

कुछ उसके सामने
कुछ पीठ पीछे हँसते हैं
कि बेटी न हुई
शहज़ादी हो गई
पर उसके लिए तो
ब्याहता बेटी भी
किसी परी से कम नहीं होती।

आ जाती है बेटी
तो वो चक्कर घिन्नी हो जाती है।
याद कर-कर के बनाती है
बेटी की पसंद की चीज़ें

बेटी सुस्ताती है
इस कमरे से
उस कमरे में
पुराने दिनों की तरह
पूरे घर को बिखेर देती है
लेकिन वो कुछ नहीं कहती
जानती है बेटी के जाते ही
पूरा घर खाली हो जाएगा।

तब तक इस फैलाव में वो
दोनों का विस्तार देखती है।

बेटी के जाने के दिन आते ही
वो नसीहतें देने लगती है
डाँट-फटकार भी
कि कितना फैला दिया है
अब कैसे समेटेगी?

साथ में देती जाती है खुद ही कुछ-कुछ
ये भी रख ले, और ये भी
बेटी तुनकती रहती है
क्यों बढ़ा रही हो सामान मेरा

वो कुछ नहीं कहती
कैसे कह दे
कि
बेटी तो जाते हुए उसकी आंखें ही ले जा रही है
और छोड़े जा रही कोरी प्रतीक्षा।

- स्वरांगी साने
  ई-मेल: swaraangisane@gmail.com

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