भारत की परंपरागत राष्ट्रभाषा हिंदी है। - नलिनविलोचन शर्मा।
बेटियों की माँ
 
 

हालांकि मैं सभी तरह के "डे (मदर्स-डे)" में विश्वास नहीं करती पर जैसे कि मदर्स-डे पर सम्पूर्ण ‘सोशल मीडिया' अपनी माँ को याद कर रहा है। भूले-भटके मैंने भी आज जब मुड़कर देखा तो मेरी सफलता की सीढ़ियों को अपने कंधों पर थामे हुए पीछे सिर्फ मेरी बूढी और कमज़ोर माँ दिखाई दी। मैं नहीं कहती कि मेरी माँ सबसे अच्छी है, माँयें तो होती ही अच्छे होने के लिए हैं।

बूढी वह हमेशा से नहीं थी, और कमज़ोर भी कभी नहीं थी। जबकि कहानियों में पढ़ी हुई ममतामयी माँ से तुलना करते हुए यही सोचा करते थे कि हमें ही ऐसी माँ क्यों मिली हुई है - इतनी स्ट्रिक्ट, ओवर डिसिप्लेंड और हर बात पर सिर्फ और सिर्फ डांटने वाली! लेकिन अब लगता है कि मेरी और कोई माँ होती तो शायद आज मैं यहाँ भी नहीं होती।

अपने व्यक्तित्व के विपरीत उनकी पहली सीख जो मुझे गाँठ बाँध कर याद है - "कम खाओ, गम खाओ और नम जाओ"। केवल वही नहीं, उस ज़माने की सारी मम्मियों ने भी अपनी बेटियों को यही सिखाया होता था। शायद यही एक सीख रही जो आज उनकी बेटियां अपने-अपने परिवारों को इतनी कुशलता के साथ निभा पा रही हैं। एक यही एक सीख है, जो मैं विरासत में नहीं देना चाहती नेक्स्ट जनरेशन की बेटियों को। बुजुर्गों के लिए आदर, सम्मान और श्रद्धा में कोई कमी नहीं होनी चाहिए, लेकिन सिर्फ बहू या बेटी बन कर नहीं उनके अग्रज बन कर।

हर माँ-बाप अपने बच्चे को पढ़ा लिखा कर बड़ा अफसर बनाना चाहते हैं लेकिन वास्तव में वो इन्वेस्टमेंट करते हैं अपने भविष्य लिए जिससे कि उनको अपने बुढ़ापे का सहारा मिले। लेकिन वह माँ कुछ अलग होती है जो माँ बेटियों की होती है। आप कह सकते हैं कि नेकी कर और दरिया में डाल वाली सूक्ति को चरितार्थ करते हुए। उस माँ का क्या जो हिम्मत रखती है, शादी के लिए इकट्ठे किए हुए पैसों से उपर्युक्त पढ़ाई करा कर बेटी को अफसर बनाने की लेकिन एवज़ में कमजोर बुढ़ापे में सहायता के नाम पर अफसर बेटी को बेटी ही समझती है, बेटा नहीं। ये कैसा गणित है बेटियों की माँओ का? बेटियों की माँ ज़िंदगी निकाल देती है, दूसरों के लिए अपना हीरा तराशने में। बिना किसी प्रतिफल की आकांक्षा से बेटियों को कुशल और संस्कारी बनाने में किसी और का घर संवारने के लिए। और यही इतिश्री नहीं हो जाती है उसके कर्तव्यों की, आगे भी संभालती रहती हैं आजीवन, हर सम-विषम परिस्थितियों में अपने धर्म का पालन करने का मार्गदर्शन देते हुए।

आर्थिक रूप से न सम्पन्न होते हुए भी पता नहीं किस बात की अकड़ रहती थी माँ को? शायद वह बेटियों का पालन-पोषण भगवान की दी हुई जिम्मेदारी मानती रही जिससे न केवल एक घर या एक जनरेशन प्रभावित होती है, अपितु बेटी से पैदा होने वाली अगली नस्लें भी निर्भर होती हैं। एक तरह से एक आने वाले समाज का निर्माण होता है। मेरी माँ अपनी बेटियों को ही समझती रही अपना गर्व और स्वाभिमान से संजोती रही उन्हें आभूषणों की तरह। उनका सच्चाई पर भरोसा और धर्म व कर्म में आस्था उन्हें इतना मजबूत बना कर रखती थी। उनके वही संस्कार अब बरगद का पेड़ बन आगे फल-फूल रहे हैं।

-प्रियंका जैन, भारत

 
 
 
 
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