यह संदेह निर्मूल है कि हिंदीवाले उर्दू का नाश चाहते हैं। - राजेन्द्र प्रसाद।
सोऽहम् | कविता
 
 

करके हम भी बी० ए० पास
          हैं अब जिलाधीश के दास ।
पाते हैं दो बार पचास
         बढ़ने की रखते हैं आस ॥१॥


खुश हैं मेरे साहिब मुझ पर
         मैं जाता हूँ नित उनके घर ।
मुफ्त कई सरकारी नौकर
         रहते हैं अपने घर हाजिर ॥२॥

पढ़कर गोरों के अखबार
         हुए हमारे अटल विचार,

अँग्रेज़ी मे इनका सार,
         करते हैं हम सदा प्रचार ॥३॥


वतन हमारा है दो-आब,

        जिसका जग मे नहीं जवाब ।
बनते बनते जहां अजाब,
        बन जाता है असल सवाब ॥४॥

ऐसा ठाठ अजूबा पाकर,
        करें किसी का क्यों मन में डर ।

खाते पीते हैं हम जी भर,
        बिछा हुआ रखते हैं बिस्तर ॥५॥

हमें जाति की जरा न चाह,
नहीं देश की भी परवाह ।
हो जावे सब भले तबाह,
हम जावेंगे अपनी राह ॥६॥

- चन्द्रधर शर्मा गुलेरी

[सरस्वती १९०७ में प्रकाशित गुलेरी जी की रचना]

 
 
 
 
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