महामना मदनमोहन मालवीय को काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना लिए अभी कुछ ही समय हुआ था। उन दिनों कभी-कभी प्राध्यापक उद्दंड छात्रों को उनकी गलतियों के लिए आर्थिक दंड दे दिया करते थे। छात्र दंड की क्षमा-याचना हेतु मालवीय जी के पास पहुंच जाते और महामना उन्हें सहज ही क्षमा कर देते थे।
शिक्षक इस बात से कुछ असहज थे। वे मालवीय जी के पास जाकर बोले, ‘महामना, आप उद्दंड छात्रों का आर्थिक दंड क्षमा कर उनका मनोबल बढ़ा रहे हैं। इससे उनमें अनुशासनहीनता बढ़ रही है। इससे बुराई को बढ़ावा मिलता है। आप अनुशासन बनाए रखने के लिए उनके दंड क्षमा न करें।’
मालवीय जी ने शिक्षकों की बातें ध्यान से सुनीं फिर बोले, ‘मित्रो, जब मैं प्रथम वर्ष का छात्र था तो एक दिन गंदे कपड़े पहनने के कारण मुझ पर छह पैसे का अर्थ दंड लगाया गया था। आप सोचिए, उन दिनों मुझ जैसे छात्रों के पास दो पैसे साबुन के लिए नहीं होते थे तो दंड देने के लिए छह पैसे कहां से लाता? इस दंड की पूर्ति किस प्रकार की, यह याद करते हुए मेरे हाथ स्वत: छात्रों के प्रार्थना पत्र पर क्षमा लिख देते हैं।’
महामना का उत्तर सुन शिक्षक निरुत्तर हो गए। |