यदि पक्षपात की दृष्टि से न देखा जाये तो उर्दू भी हिंदी का ही एक रूप है। - शिवनंदन सहाय।

डॉ. वंदना मुकेश | इंग्लैंड

इंग्लैंड में रहकर हिंदी भाषा का प्रचार -प्रसार करने वाली डॉ. वंदना मुकेश का जन्म 12 अक्टूबर 1968 को भोपाल में हुआ था। उन्होंने विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन से स्नातक तथा पुणे विद्यापीठ से अगंरेज़ी तथा हिंदी में प्रथम श्रेणी से स्नातकोत्तर एवं हिंदी में पीएच. डी की उपाधि प्राप्त की। 2002 में आप सपरिवार इंग्लैंड आ गईं।

आपने छात्र जीवन में काव्य लेखन की शुरुआत की। 1987 में साप्ताहिक हिंदुस्तान में पहली कविता 'खामोश ज़िंदगी' के प्रकाशन से अब तक विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं जैसे गगनांचल, साहित्य अमृत, वागर्थ, ज्ञानोदय, वर्तमान साहित्य, अक्षरा, हरिगंधा, गर्भनाल, आधुनिक साहित्य, पुरवाई (यू.के.), चेतना, साहित्य कुंज (कनाडा) विभोम (अमेरिका) आदि तथा अनेक साहित्यिक-समीक्षात्मक पुस्तकों, वेब पत्र-पत्रिकाओं में विविध विषयों पर कहानियाँ, कविताएँ, संस्मरण, समीक्षाएँ, लेख, एवं शोध-पत्र प्रकाशित।

आपका प्रकाशित शोध-प्रबंध 'नौंवे दशक का हिंदी निबंध साहित्य एक विवेचन' 2002 में प्रकाशित हुआ। ‘मौन मुखर जब' आपका प्रकाशित काव्य संग्रह है। एक कहानी संग्रह ‘ कई रंग, दो पंख, एक तितली प्रकाशनाधीन है। आपने कई पुस्तकों का संपादन तथा सह संपादन किया है। जिनमें 'मन के मनके' रामनारायण सिरोठिया, (काव्य संग्रह) 2016 तथा ‘परि भारत में किसान न बनइयो'(निबंध संकलन) डॉ. केशव प्रथमवीर 2018 में प्रकाशित हुए। ब्रिटेन की प्रतिष्ठित हिंदी साहित्यकार उषा वर्मा द्वारा संकल्पित-संपादित डैड, पॉप्स और मैं नामक लघु उपन्यास में सहलेखन किया। इस उपन्यास की विशेषता यह है कि यह सात महिला रचनाकारों द्वारा लिखा गया विदेशी भूमि पर लिखा पहला उपन्यास है।

छात्र जीवन से ही मेधावी रही डॉ. वंदना मुकेश यू.के. में भी हिंदी संबंधित कार्यकलापों में निरंतर संलग्न हैं। 2004 से गीतांजलि बहुभाषीय साहित्यिक संस्था की सदस्य हैं तथा इस संस्था की पूर्व सचिव रह चुकी डॉ. वंदना मुकेश का काव्य पाठ आकाशवाणी पुणे तथा एवं य़ू.के. में स्थानीय टी.वी. चैनलों पर, बी.बी.सी. वैस्ट मिडलैंड्स रेडियो पर प्रसारित होता रहता है। आप 1997 से सतत भारत एवं ब्रिटेन में विभिन्न साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों और कवि- सम्मेलनों का संयोजन-संचालन करती आ रही हैं। आपको भारत एवं इंग्लैंड में अनेक राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय शोध-संगोष्ठियों में प्रपत्र वाचन, सहभाग और सम्मान मिला है। कोरोना काल में भी वे सहित्यिक रूप से सक्रिय है तथा अनेक अंतरराष्ट्रीय वेब-वार्ताओं, काव्य गोष्ठियों, मुशायरों में संचालन, और सहभागिता करती हैं। आप स्वयं लोकगीतों की अच्छी जानकार एवं गायिका हैं और अनेक मंचों तथा टीवी पर आपके कार्यक्रम होते रहते हैं उनकी दृष्टि में संगीत और नृत्य तथा अन्य कलाएँ संस्कृति और भाषा के प्रचार -प्रसार का महत्त्वपूर्ण माध्यम हैं। इसके लिये वे भारत से आनेवाले कलाकारों को मंच प्रदान करती हैं। वंदना इच्छुक लोगों को स्वैच्छिक रूप से हिंदी का शिक्षण प्रदान करती हैं।

भारत सरकार एवं गीतांजलि बहुभाषीय साहित्यिक संस्था, बर्मिंघम द्वारा आयोजित यू.के. क्षेत्रीय हिंदी सम्मेलन 2011 की संयोजक सचिव मनोनीत की गईं। हिंदी के प्रति उनकी विशेष सेवाओं तथा हिंदी के प्रचार- प्रसार के लिये यू.के. क्षेत्रीय हिंदी सम्मेलन 2011, में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिये भारत सरकार द्वारा विशिष्ट सम्मान दिया गया। 2019 तथा 2020 में रविंद्रनाथ टैगोर युनिवर्सिटी, भोपाल द्वारा आयोजित विश्वरंग कार्यक्रम में प्रवासी साहित्यकार के रूप में सम्मानित किया गया। आपकी हिंदी के प्रति निष्ठा और सेवाओं के फलस्वरूप इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र ,विश्व हिंदी साहित्य परिषद, दिल्ली, भारतीय उच्चायोग लंदन आदि अनेक संस्थानों द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित किया गया है। हाल ही में विश्व हिंदी सचिवालय द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय कहानी प्रतियोगिता में आपकी कहानी को भौगोलिक क्षेत्र यूरोप-यू.के. में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ है। हिंदी के प्रति अपने प्रेम के कारण आप बच्चों को हिंदी की निशुल्क शिक्षा देती हैं।

डॉ वंदना मुकेश एक सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं। बर्मिंघम स्थित श्री व्यंकटेश्वर बालाजी मंदिर में हिंदू बच्चों के लिये गर्मियों की छुट्टियों में एक सप्ताह का आवासीय कैंप आयोजित किया जाता है। जिसका उद्देश्य विदेश में पले बढ़े भारतीय बच्चों और युवाओं को भारतीय संस्कृति और भाषाओं की जानकारी देना है। आप बालाजी यूथ कैंप में पिछले 14 वर्षों से सात दिनों अपनी निशुल्क सेवाएँ देती हैं और बच्चों को हिंदी पढ़ाती हैं। आप 2011-2015 से शिविर की मुख्य संयोजक भी रहीं। आपने 8-13 वर्ष के बच्चों के लिए पौराणिक कहानियों पर आधारित नाटकों का भी निर्देशन किया। वंदना जी को लगता है कि हमारे भीतर स्वभाषा, स्वसंस्कृति के प्रति सम्मान का भाव होगा तभी हम हिंदी और भारतीय संस्कृति को जी सकेंगे। आप चाहती है कि यहाँ प्राथमिक स्तर पर बच्चों को हिंदी सिखाएँ क्योंकि कल यही पीढ़ी हिंदी के प्रचार -प्रसार की मशाल लेकर आगे बढ़ेगी।

वंदना जी, वर्तमान में वॉलसॉल कॉलेज यू.के. में अंग्रेज़ी की प्राध्यापिका है और हिंदी लेखन में सतत संलग्न हैं।

 

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सरोज रानियाँ

क्लास में घुस ही रही थी कि मिसेज़ चैडवेल की आवाज़ से मेरे चाबी ढूँढते हाथ अनजाने ही सहम गए।

"दैट्स हाऊ वी टीच! इफ़ यू डोंट लाईक, यू मे गो टू अदर क्लास!"

एक सन्नाटा छा गया। मैं अब तक हाथ में चाबी भींचें थीं। फिर किसी के चलने की आवाज आई, मैंने चाबी जेब से बाहर निकालकर 'की-होल' में डाल दी। वह आवाज़ भी पास आ गई तो मैंने मुड़कर देखा। एक पचपन-साठ के लगभग, साधारण कद-काठीवाली औरत लंबा जैकेट पहने मेरे एकदम पास से निकल गई। उसी के पीछे-पीछे सिर झुकाए सलवार कमीज पहने एक नवयौवना चली गई।

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कैंप गीत

इक नया भारत यहाँ बसाएंगे
नये इस बगीचे को प्यार से सजाएंगे

चुन-चुन के फूल लाएँ
महके चमन हमारा
आओ यहाँ बनाएँ
हिंदोस्तां न्यारा
इक नया भारत यहाँ बसाएंगे
नये इस बगीचे को प्यार से सजाएंगे

भाषाएँ कितनी भी हों
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वेबिनार | लघुकथा

कोरोना महामारी ने सारी जीवन-शैली ही बदल डाली। विद्याजी को ऊपर से निर्देश मिला है कक्षाएँ ऑनलाइन करवाई जाएँ। चार महीने के लॉकडाउन के बाद कॉलेज खुले और ऊपर से यह आदेश। दो साल बचे हैं उनकी सेवा-निवृत्ति के लेकिन अब ऑनलाईन कक्षाओं और कार्यक्रमों के आयोजन की बात सुनकर उन्हें पसीने छूट गये। जिंदगी भर कक्षा में आमने–सामने पढ़ाया, अब अंत में यह क्या आफत आ खड़ी हुई? अपने विभाग में हर वर्ष वे अनेक कार्यक्रम आयोजित करवाती थीं लेकिन इस वर्ष हिंदी दिवस पर ऑनलाईन कार्यक्रम के फरमान ने उनकी नींद हराम कर दी थी। उनसे तो माउस तक नहीं पकड़ा जाता और यह 'कर्सर’ खुद चूहे की तरह कूद- कूद कर भाग जाता है। भला हो उनके पड़ोसी शर्माजी और उनकी इंजीनियर बेटी प्रीता का। वह लॉकडॉउन के कारण ‘वर्क फ्रॉम होम’ कर रही थी। उसने विद्या जी को काफी बार समझाया लेकिन जब विद्या जी ने हाथ खड़े कर दिये तो उसने विद्याजी के निर्देशानुसार कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार की और तुरंत गूगल मीट पर सभी लोगों को सूचना भेज दी। 

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आधी रात का चिंतन | ललित निबंध

‘सर’ के यहाँ घुसते ही लगा कि शायद घर पर कुछ भूल आई हूँ। लेकिन समझ में नहीं आया। अरे, आप सोच रहे होंगे , ये ‘सर’ कौन हैं? तो बताऊँ कि ‘सर’ हैं डॉ. केशव प्रथमवीर, भूतपूर्व विभागाध्यक्ष, हिंदी विभाग पुणे विद्यापीठ। कब गुरु से पितृ-तुल्य हो गये, पता ही नही चला। ...और भारत–यात्रा पर बेटी पिता से न मिले वह तो संभव ही नहीं है। सो पुणे पँहुचते ही रात सर के पास रुकने की तैयारी से चल दी। दिमाग में घूम रही थी उनकी वह दीवार जिसपर पुस्तकें ही पुस्तकें सजी हैं। मेरे सोने की व्यवस्था कर के सर बात्रा ‘सर’ के पास सोने चले गये।

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