अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।

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एक गुम-सी चोट

कैसा समय है यह
जब बौने लोग डाल रहे हैं
लम्बी परछाइयाँ
-- ( अपनी ही डायरी से )

बचपन में मुझे ऊँचाई से, अँधेरे से , छिपकली से, तिलचट्टे से और आवारा कुत्तों से बहुत डर लगता था। उन्हें देखते ही मैं छिप जाता था। डर के मारे मुझे कई बार रात में नींद नहीं आती थी। सर्दियों की रात में भी पसीने से लथपथ मैं बिस्तर पर करवटें बदलता रहता था। यदि नींद आ भी जाती तो मेरे सपने दु:स्वप्नों से भरे होते। माँ

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कुतिया के अंडे

उन दिनों एक मिशन के तहत हम दोनों को शहर के बाहर एक बंगले में रखा गया था - मुझे और मेरे सहयोगी अजय को। दोपहर में सुनीता नाम की बाई आती थी और वह दोपहर और शाम - दोनों समय का खाना एक ही बार में बना जाती थी। उसे और झाड़ू-पोंछे वाली बाई रमा को ख़ुद करकरे साहब ने यहाँ काम पर रखा था। हम लोग केवल करकरे साहब को जानते थे। उन्होंने ही हमें इस मिशन को पूरा करने का काम सौंपा था।

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