देशभाषा की उन्नति से ही देशोन्नति होती है। - सुधाकर द्विवेदी।
 
रामावतार त्यागी | Ramavtar Tyagi

रामावतार त्यागी का जन्म 17 मार्च 1925 को उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद ज़िले की संभल तहसील में हुआ। आप दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर थे।

हिन्दी गीत को एक नई ऊँचाई देने वालों में आपका नाम अग्रणीय है।

रामधारी सिंह दिनकर सहित बहुत से हिंदी साहित्यकारों ने आपके गीतों की सराहना की थी।

‘नया ख़ून'; ‘मैं दिल्ली हूँ'; ‘आठवाँ स्वर'; ‘गीत सप्तक-इक्कीस गीत'; ‘गुलाब और बबूल वन'; ‘राष्ट्रीय एकता की कहानी' और ‘महाकवि कालिदास रचित मेघदूत का काव्यानुवाद' जैसे अनेक काव्य संकलनों के साथ ही साथ ‘समाधान' नामक उपन्यास; ‘चरित्रहीन के पत्र'; ‘दिल्ली जो एक शहर था' और ‘राम झरोखा' जैसी गद्य रचनाओं का सृजन किया।

हिन्दी फिल्म ‘ज़िन्दगी और तूफ़ान' में मुकेश द्वारा गाया गया आपका गीत ‘ज़िन्दगी और बता तेरा इरादा क्या है' अत्याधिक लोकप्रिय हुआ।

12 अप्रैल, 1985 को आपका निधन हो गया।

 

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मैं दिल्ली हूँ

'मैं दिल्ली हूँ' रामावतार त्यागी की काव्य रचना है जिसमें दिल्ली की काव्यात्मक कहानी है।

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एक भी आँसू न कर बेकार

एक भी आँसू न कर बेकार -
जाने कब समंदर मांगने आ जाए!
पास प्यासे के कुआँ आता नहीं है,
यह कहावत है, अमरवाणी नहीं है,
और जिस के पास देने को न कुछ भी
एक भी ऐसा यहाँ प्राणी नहीं है,
कर स्वयं हर गीत का श्रृंगार
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चाहता हूँ देश की....

मन समर्पित, तन समर्पित
और यह जीवन समर्पित
चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूं

माँ तुम्हारा ॠण बहुत है, मैं अकिंचन
किन्तु इतना कर रहा फिर भी निवेदन
थाल में लाऊँ सजा कर भाल जब भी
कर दया स्वीकार लेना वह समर्पण

गान अर्पित, प्राण अर्पित
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पुरखों की पुण्य धरोहर

जो फूल चमन पर संकट देख रहा सोता
मिट्टी उस को जीवन-भर क्षमा नहीं करती ।

थोड़ा-सा अंधियारा भी उसको काफी है
जो दीप विभाजित मन से शस्त्र उठाता है
जिनके घर मतभेदों पर सुमन नहीं चढ़ते
अंधड उनके आगे आते घबराता है ।
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तुमने हाँ जिस्म तो... | ग़ज़ल

तुमने हाँ जिस्म तो आपस में बंटे देखे हैं
क्या दरख्तों के कहीं हाथ कटे देखे हैं

वो जो आए थे मुहब्बत के पयम्बर बनकर
मैंने उनके भी गिरेबान फटे देखे हैं

वो जो दुनिया को बदलने की कसम खाते थे
मैंने दीवार से वो लोग सटे देखे हैं

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वही टूटा हुआ दर्पण

वही टूटा हुआ दर्पण बराबर याद आता है
उदासी और आँसू का स्वयंवर याद आता है

कभी जब जगमगाते दीप गंगा पर टहलते हैं
किसी सुकुमार सपने का मुक़द्दर याद आता है

महल से जब सवालों के सही उत्तर नहीं मिलते
मुझे वह गाँव का भीगा हुआ घर याद आता है

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