प्रत्येक नगर प्रत्येक मोहल्ले में और प्रत्येक गाँव में एक पुस्तकालय होने की आवश्यकता है। - (राजा) कीर्त्यानंद सिंह।
 
सुमित्रानंदन पंत | Sumitranandan Pant

सुमित्रानंदन पंत का जन्म अल्मोड़ा (उत्तर प्रदेश) के कैसोनी गाँव में 20 मई 1900 को हुआ था। इनके जन्म के कुछ घंटों पश्चात् ही इनकी माँ  चल बसी।  आपका पालन-पोषण आपकी दादी ने ही किया।

आपका वास्तविक नाम गुसाई दत्त रखा गया था। आपको अपना नाम पसंद नहीं था सो आपने अपना नाम सुमित्रानंदन पंत रख लिया।

प्रारंभिक शिक्षा: आपकी प्रारंभिक शिक्षा अल्मोड़ा में ही हुई। 1918 में वे अपने भाई के साथ काशी आ गए और वहां क्वींस कॉलेज में पढने लगे।  मेट्रिक उतीर्ण करने के बाद आप इलाहबाद आ गए। वहां इंटर तक अध्ययन किया। 

1919 में महात्मा गाँधी के सत्याग्रह से प्रभावित होकर अपनी शिक्षा अधूरी छोड़ दी और स्वाधीनता आन्दोलन में सक्रिय हो गए। हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी और बंगला का स्वाध्याय किया।

आपका प्रकृति से असीम लगाव था। बचपन से ही सुन्दर रचनाएँ  लिखा करते थे।  

प्रमुख कृतियां : वीणा, उच्छावास, पल्लव, ग्रंथी, गुंजन, लोकायतन पल्लवणी, मधु ज्वाला, मानसी, वाणी, युग पथ, सत्यकाम।

पुरस्कार/सम्मान : "चिदम्बरा" के लिये भारतीय ज्ञानपीठ, लोकायतन के लिये सोवियत नेहरू शांति पुरस्कार और हिन्दी साहित्य की इस अनवरत सेवा के लिये उन्हें पद्मभूषण से अलंकृत किया गया।

निधन:  28 दिसम्बर 1977 को आपका निधन हो गया।

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सुख-दुख | कविता

मैं नहीं चाहता चिर-सुख,
मैं नहीं चाहता चिर-दुख,
सुख दुख की खेल मिचौनी
खोले जीवन अपना मुख !

सुख-दुख के मधुर मिलन से
यह जीवन हो परिपूरन;
फिर घन में ओझल हो शशि,
फिर शशि से ओझल हो घन !

जग पीड़ित है अति-दुख से
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स्वप्न बंधन

बाँध लिया तुमने प्राणों को फूलों के बंधन में
एक मधुर जीवित आभा सी लिपट गई तुम मन में!
बाँध लिया तुमने मुझको स्वप्नों के आलिंगन में!

तन की सौ शोभाएँ सन्मुख चलती फिरती लगतीं
सौ-सौ रंगों में, भावों में तुम्हें कल्पना रँगती,
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बाँध दिए क्यों प्राण

सुमित्रानंदन पंत की हस्तलिपि में उनकी कविता, 'बाँध दिए क्यों प्राण'

 

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बाँध दिए क्यों प्राण
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जीवन का अधिकार

जो है समर्थ, जो शक्तिमान,
जीवन का है अधिकार उसे।
उसकी लाठी का बैल विश्‍व,
पूजता सभ्‍य-संसार उसे!

दुर्बल का घातक दैव स्‍वयं,
समझो बस भू का भार उसे।
'जैसे को तैसा'-- नियम यही,
होना ही है संहार उसे।

है दास परिस्थितियों का नर,
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आ: धरती कितना देती है

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