विजय कुमार सिंघल

विजय कुमार सिंघल का नाम हिंदी ग़ज़ल पाठको के लिए चिरपरिचित है। आपका जन्म 25 फरवरी 1946 को भिवानी, हरियाणा में हुआ। अँग्रेज़ी साहित्य में एम. ए. करने के पश्चात् आप  हरियाणा के कैथल शहर में अँग्रेज़ी के प्राध्यापक रहे।

हिंदी ग़ज़ल लेखन में आपका विशिष्ट योगदान रहा है। आपकी हिंदी गज़लें सारिका, नवभारत टाइम्स, दैनिक ट्रिब्यून, राष्ट्रिय सहारा, नया पथ, जतन, उद्भावना, जागृति, विश्वमानव, पल-प्रतिपल, समकालीन घोषणा-पत्र, अक्स, समांतर, काव्या इत्यादि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं।

प्रकाशित ग़ज़ल-संग्रहों में 'धूप हमारे हिस्से की (1983), बर्फ से ढका ज्वालामुखी (1989), सात समंदर प्यासे (1990), धुंध से गुज़रते हुए (1992)' मुख्य हैं।

 

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A biography of Mr V.K Singhal in Hindi



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अपनी छत को | ग़ज़ल

अपनी छत को उनके महलों की मीनारें निगल गयीं
धूप हमारे हिस्से की ऊँची  दीवारें निगल गयीं

अपने पाँवों  के छालों के नीचे हैं ज़ख्मी  फुटपाथ
शानदार सड़कों को उनकी चौड़ी कारें निगल गयीं

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झेप अपनी मिटाने निकले हैं

झेप अपनी मिटाने निकले हैं
फिर किसी को चिढ़ाने निकले हैं

ऊब कर आदमी की बस्ती से
टहलने के बहाने निकले हैं

शुक्र है अपनी अंधी  बस्ती में
चंद हज़रात काने निकले हैं

पोंछ कर अश्क बंद कमरे में
आज फिर मुस्कराने निकले हैं

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दर्द की सारी लकीरों.... | ग़ज़ल 

दर्द की सारी लकीरों को छुपाया जाएगा
उनकी ख़ातिर आज हर चेहरा सजाया जाएगा

सच तो यह है सब के सब लेंगे दिमाग़ों से ही काम
मामला दिल का वहां यूँ तों उठाया जाएगा

हो ही जाएगा किसी दिन मुझसे मेरा सामना
ख़ुद को ख़ुद से कितने दिन आखिर बचाया जाएगा

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इसको ख़ुदा बनाकर | ग़ज़ल

इसको ख़ुदा बनाकर उसको खुदा बनाकर 
क्यों लोग चल रहे हैं बैसाखियां लगाकर

दो टूक बात कहना आदत-सी हो गई है
हम उनसे बात करते कैसे घुमा-फिराकर

चेहरों का एक जमघट आंखों के सामने है
हम कैसे भाग जाएं सबसे नज़र बचाकर

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हंसी जो आज लब पर है | ग़ज़ल

हंसी जो आज लब पर है, उसे दिल में छुपा रक्खो 
मुसीबत के दिनों के वास्ते कुछ तो बचा रक्खो 

दिया हासिल नहीं तो तोड़ लो सूखे हुए पत्ते 
समय की इस अंधेरी रात में कुछ तो जला रक्खो 

उसे हम किस तरह अपना हितैषी मान सकते हैं 
जो हमसे कह रहा है आंख से सपने जुदा रक्खो 

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बचकर रहना इस दुनिया के लोगों की परछाई से

बचकर रहना इस दुनिया के लोगों की परछाई से
इस दुनिया के लोग बना लेते हैं परबत राई से।

सबसे ये कहते थे फिरते थे मोती लेकर लौटेंगे
मिट्टी लेकर लोटे हैं हम सागर की गहराई से।

नाहक सोच रहे हो तुमपर असर ना होगा औरों का
चाँद भी काला पड़ जाता है धरती की परछाई से।

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जंगल-जंगल ढूँढ रहा है | ग़ज़ल

जंगल-जंगल ढूँढ रहा है मृग अपनी कस्तूरी को
कितना मुश्किल है तय करना खुद से खुद की दूरी को

इसको भावशून्यता कहिये चाहे कहिये निर्बलता
नाम कोई भी दे सकते हैं आप मेरी मजदूरी को

सम्बंधों के वो सारे पुल क्या जाने कब टूट गए
जो अकसर कम कर देते थे मन से मन की दूरी को

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