विद्यानिवास मिश्र

पं. विद्यानिवास मिश्र हिंदी और संस्कृत के विद्वान्, प्रख्यात निबंधकार, भाषाविद् और चिंतक थे। पं. विद्यानिवास मिश्र का जन्म 28 जनवरी 1925, पकड़डीहा, गोरखपुर (उत्तर प्रदेश) में हुआ था।

प्रारंभ में सरकारी पदों पर रहे, 1957 से विश्वविद्यालय सेवा में आए। तभी से गोरखपुर विश्वविद्यालय, आगरा विश्वविद्यालय, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, काशी विद्यापीठ और फिर संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में प्राध्यापक, आचार्य, निदेशक, अतिथि आचार्य और कुलपति आदि पदों पर रहे। कैलीफोर्निया और वाशिंगटन विश्वविद्यालयों में भी अतिथि प्रोफेसर रहे।

‘नवभारत टाइम्स' के प्रधान संपादक, ‘इनसाइक्लोपीडिया ऑफ हिंदुइज्म' के प्रधान संपादक (भारत), ‘साहित्य अमृत' (मासिक) के संस्थापक संपादक और इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र, दिल्ली तथा वेद, पुराण शोध संस्थान, नैमिषारण्य के मानद सलाहकार रहे। आपके साहित्य में व्यक्ति-व्यंजक निबंध संग्रह, आलोचनात्मक तथा विवेचनात्मक कृतियाँ, भाषा-चिंतन के क्षेत्र में शोधग्रंथ और कविता संकलन सम्मिलत हैं।

सम्मान: अपनी साहित्यिक सेवाओं के लिए वे भारतीय ज्ञानपीठ के ‘मूर्तिदेवी पुरस्कार', के.के. बिड़ला फाउंडेशन के ‘शंकर सम्मान', उत्तर प्रदेश संस्कृत अकादमी के सर्वोच्च ‘विश्व भारती सम्मान', ‘पद्मश्री' और ‘पद्मभूषण', ‘भारत भारती सम्मान', ‘महाराष्ट्र भारती सम्मान', ‘हेडगेवार प्रज्ञा पुरस्कार', साहित्य अकादेमी के सर्वोच्च सम्मान ‘महत्तर सदस्यता', हिंदी साहित्य सम्मेलन के ‘मंगला प्रसाद पारितोषिक' तथा उ.प्र. संगीत नाटक अकादमी के ‘रत्न सदस्यता सम्मान' से सम्मानित किए गए। अगस्त 2003 में भारत के राष्ट्रपति ने उन्हें राज्यसभा के लिए नामित किया।

निधन: 14 फरवरी 2005 को आपका निधन हो गया। ।

कृतियाँ :

कविता-संकलन : वाचिक कविता अवधी, आज के कवि अज्ञेय, वाचिक कविता भोजपुरी

गद्य-संग्रह : स्वरूप-विमर्श, व्यक्ति-व्यंजना, छितवन की छाँह, गाँधी का करुण रस, थोड़ी सी जगह दें, फागुन दुइ रे दिना, रहिमन पानी राखिए, कितने मोरचे, चिड़िया रैन बसेरा, साहित्य की चेतना, रीति विज्ञान, साहित्य का प्रयोजन, संचारिणी, निज मुख मुकुर, लागौ रंग हरी, तुलसी मंजरी, नौरंतर्य और चुनौती, भावपुरुष श्रीकृष्ण, भारतीय संस्कृति की व्याख्या से संबद्ध ग्रंथ, परंपरा बंधन नहीं, हिन्दू धर्म जीवन की सनातन खोज, भारतीय परंपरा, भारतीयता की पहचान, देश धर्म और साहित्य, दि इंडियन क्रिएटिव माइंड, कबीर वचनामृत, सोऽहम्, ‘जीवन अलभ्य है, जीवन सौभाग्य है', ‘नदी, नारी और संस्कृति', शिरीष की याद आई, भारतीय चिंतनधारा, साहित्य का खुला आकाश, सपने कहाँ गए, भ्रमरानंद का पचड़ा, राधा माधव रंग रंगी, महाभारत का काव्यार्थ सम्मिलित हैं।

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गऊचोरी

बाढ़ उतार पर थी और मैं नाव से गाँव जा रहा था। रास्‍ता लंबा था, कुआर की चढ़ती धूप, किसी तरह विषगर्भ दुपहरी काटनी थी, इसलिए माँझी से ही बातचीत का सिलसिला जमाया। शहर से लौटने पर गाँव का हाल-चाल पूछना जरुरी-सा हो जाता है, सो मैंने उसी से शुरू किया .... ' कह सहती, गाँव-गड़ा के हाल चाल कइसन बा।' सहती को भी डाँड़ खेते-खेते ऊब मालूम हो रही थी, बोलने के लिए मुँह खुल गया - 'बाबू का बताई, भदई फसिल गंगा भइया ले लिहली, रब्‍बी के बावग का होई, अबहिन खेत खाली होई तब्‍बे न, ओहू पर गोरू के हटवले के बड़ा जोर बा, केहू मारे डरन बहरा गोरू नाहीं बाँधत बा, हमार असाढ़ में खरीदल गोई कवनी छोरवा दिहलसि, ओही के तलास में तीनों लरिके बिना दाना पानी कइले पाँच दिन से निकसल बाटें।' इतना कह कर गरीब आदमी सुबकने लगा। कुछ सांत्वना देने की गरज से मैंने पूछा - 'कहीं कुछ सोरिपता नाहीं लगत बा। फलाने बाबा के गोड़ नाहीं पुजल?' जवाब में वह यकायक क्रोध में फनफना उठा - 'बाबू रउरहू अनजान बनि जाईलें। माँगत त बाटें तीन सैकड़ा, कहाँ से घर-दुआर बेंचि के एतना रुपया जुटाईं। सब इनही के माया हवे, एही के बजरिए बा'। तब सोचा हाँ, जो त्राता है वही तो भक्षक भी है। गऊ चुराने वाला गोभक्षक नहीं गोरक्षक ही तो है। हमारे गाँव में गऊचोरी से बड़ी शायद कोई समस्‍या न हो।

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दिया टिमटिमा रहा है

लोग कहेंगे कि दीवाली के दिन कुछ अधिक मात्रा में चढ़ाली है, नहीं तो जगर-मगर चारों ओर बिजली की ज्‍योति जगमग रही है और इसको यही सूझता है कि दिया, वह भी दिए नहीं, दिया टिमटिमा रहा है, पर सूक्ष्‍म दृष्टि का जन्‍मजात रोग जिसे मिला हो वह जितना देखेगा, उतना ही तो कहेगा। मैं गवई-देहात का आदमी रात को दिन करनेवाली नागरिक प्रतिभा का चमत्कार क्‍या समझूँ? मै जानता हूँ, अमा के सूचीभेद्य अंधकार से घिरे हुए देहात की बात, मैं जानता हूँ, अमा के सर्वग्रासी मुख में जाने से इनकार करने वाले दिए की बात, मै जानता हूँ बाती के बल पर स्‍नेह को चुनौती देनेवाले दिए की बात और जानता हूँ इस टिमटिमाते हुए दिए में भारत की प्राण ज्‍योति के आलोक की बात। दिया टिमटिमा रहा है! स्‍नेह नहीं, स्‍नेह तलछट भर रही है और बाती न जाने किस जमाने का तेल सोखे हुए है कि बलती चली जा रही है, अभी तक बुझ नहीं पाई। सामने प्रगाढ़ अंधकार, भयावनी निस्‍तब्‍धता और न जाने कैसी-कैसी आशंकाएँ! पर इन सब को नगण्‍य करता हुआ दिया टिमटिमा रहा है...

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