भारत की परंपरागत राष्ट्रभाषा हिंदी है। - नलिनविलोचन शर्मा।
 
केदारनाथ सिंह

केदारनाथ सिंह का जीवन परिचय 

समकालीन वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह का चकिया, बलिया (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। आपकी जन्मतिथि को लेकर मतभेद हैं। अनेक स्थानों पर आपकी जन्मतिथि 7 जुलाई 1934 दी गई है तो 'तीसरा सप्तक'में नवंबर 1932 दी गई है। आपकी आरंभिक शिक्षा गाँव में हुई। आपने हाई स्कूल से एम० ए० तक की शिक्षा वाराणसी में पाई।

आपने 'पाल एलुअर' की प्रसिद्ध कविता ‘स्वतंत्रता' का अनुवाद किया। आपका पहला कविता-संग्रह 1960 में प्रकाशित हुआ। आप 1960 में प्रकाशित 'तीसरा सप्तक' के सहयोगी कवियों में से एक हैं।

आपने उदय प्रताप कॉलेज, वाराणसी में अध्यापन किया। उसके पश्चात सेण्ट एंड्रूस कॉलेज, गोरखपुर, उदित नारायण कॉलेज, पडरौना, गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर तथा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय नई दिल्ली में रहे।

हिन्दी साहित्य में विशिष्ट योगदान के लिए आपको मैथिलीशरण गुप्त सम्मान (मध्यप्रदेश), कुमारन आशान पुरस्कार (केरल), दिनकर पुरस्कार (बिहार), जीवन भारती सम्मान (उड़ीसा), साहित्य अकादमी पुरस्कार, व्यास सम्मान व ज्ञानपीठ सम्मान प्रदान किए गए।

रचनाएँ :

कविता संग्रह- ‘अभी बिल्कुल अभी', 'जमीन पक रही है', 'यहाँ से देखो', 'अकाल में सारस', 'उत्तर कबीर और अन्य कविताएँ', ‘बाघ' व 'तालस्ताय और साइकिल'।

शोध और आलोचना- ‘कल्पना और छायावाद', आधुनिक हिन्दी कविता में बिम्बविधान', 'मेरे समय के शब्द' व मेरे साक्षात्कार।

संपादन-'हमारी पीढ़ी', 'साखी' (दोनों अनियतकालीन पत्रिका), ताना-बाना (आधुनिक भारतीय कविता से एक चयन), समकालीन रूसी कविताएँ व कविता दशक।

निधन: 19 मार्च 2018 को दिल्ली में आपका निधन हो गया।

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कविता क्या है

कविता क्या है
हाथ की तरफ
उठा हुआ हाथ
देह की तरफ झुकी हुई आत्मा
मृत्यु की तरफ़
घूरती हुई आँखें
क्या है कविता
कोई हमला
हमले के बाद पैरों को खोजते
लहूलुहान जूते
नायक की चुप्पी
विदूषक की चीख़
बालों के गिरने पर
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मातृभाषा

जैसे चींटियाँ लौटती हैं
बिलों में
कठफोड़वा लौटता है
काठ के पास
वायुयान लौटते हैं एक के बाद एक
लाल आसमान में डैने पसारे हुए
हवाई-अड्डे की ओर

ओ मेरी भाषा
मैं लौटता हूँ तुम में
जब चुप रहते-रहते
अकड़ जाती है मेरी जीभ
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दो मिनट का मौन

भाइयो और बहनो
यह दिन डूब रहा है
इस डूबते हुए दिन पर
दो मिनट का मौन

जाते हुए पक्षी पर
रुके हुए जल पर
झिरती हुई रात पर
दो मिनट का मौन

जो है उस पर
जो नहीं है उस पर
जो हो सकता था उस पर
दो मिनट का मौन

गिरे हुए छिलके पर
...

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फागुन का गीत

गीतों से भरे दिन फागुन के ये गाए जाने को जी करता!
ये बाँधे नहीं बँधते, बाँहें--
रह जातीं खुली की खुली,
ये तोले नहीं तुलते, इस पर
ये आँखें तुली की तुली,
ये कोयल के बोल उड़ा करते, इन्हें थामे हिया रहता!

अनगाए भी ये इतने मीठे
...

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