देशभाषा की उन्नति से ही देशोन्नति होती है। - सुधाकर द्विवेदी।
 
जोगिन्द्र सिंह कंवल | फीजी

जोगिन्द्र सिंह कंवल का जन्म व शिक्षण पंजाब में हुआ। वे फीजी में आ बसे। आपके पिताजी १९२८ में फीजी आए थे। आपने 1950 में फीज़ी के डी ए वी कॉलेज में शिक्षक के रूप में पदभार संभाला व बाद में 1960 में आपने खालसा कॉलेज में अध्यापन किया व वहाँ के प्रधानाचार्य रहे। आप  28 वर्षों तक खालसा कालेज से जुड़े रहे।

जोगिन्द्र सिंह कंवल की साहित्यिक यात्रा, 'मेरा देश मेरे लोग' से प्रारंभ हुई थी।

कंवल फीजी एक सर्वाधिक लब्धप्रतिष्ठ लेखक हैं। उनके चिंतन में गहराई है।

जोगिन्द्र सिंह ने सदैव अपनी रचनाओं के माध्यम से फीजी के जन-जीवन को चित्रित करने का प्रयास किया है।

फीजी में हुए विभिन्न राजनैतिक तख्ता-पलटों (कू) ने इस छोटे से देश, विशेषत: भारतीय समाज को अत्याधिक प्रभावित किया है। फीजी में बसे भारतीय मूल के लोगों ने अनगिनित कष्टों का सामना किया है। जोगिन्द्र सिंह कंवल की रचनाएं इन्हीं दर्दों को चित्रित करती हैं।

साहित्य-सृजन:

मेरा देश मेरे लोग (फीज़ी के जनजीवन पर)
सवेरा, 1976 (उपन्यास)
धरती मेरी माता, 1978 (उपन्यास)
करवट, 1979 (उपन्यास)
सात समुद्र पार , 1983 (उपन्यास)
हम लोग,  1992 (कहानी संग्रह)


काव्य:

यादों की खुश्बू
कुछ पत्ते कुछ पंखुड़ियाँ
दर्द अपने अपने
फीज़ी का हिंदी काव्य साहित्य

हिंदी के अतिरिक्त आपने अँग्रेज़ी में भी साहित्य सृजन किया है जिनमें 'The Morning', 'The New Migrants', 'A Love Story: 1920 (Novels)',  'A Hundred Years of Hindi in Fiji', 'Walking', 'An Anthology of Hindi Short Stories From Fiji' सम्मिलित हैं।


सम्मान:  कंवल जी विभिन्न सम्मानों से अलंकृत किए जा चुके हैं जिनमें फीजी के राष्ट्रपति द्वारा, 'मेम्बर ऑव ऑर्डर ऑव फीज़ी' (1995),  प्रवासी भारतीय परिषद सम्मान (1981), उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान (1978), फीज़ी हिंदी साहित्य समिति सम्मान (2001), विश्व हिंदी सम्मान (2007) सम्मिलित हैं।

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भारतीय | फीज़ी पर कविता

लम्बे सफर में हम भारतीयों को
कभी पत्थर कभी मिले बबूल

कभी मिट जाती कभी जम जाती
इतिहास के दर्पण पर धूल

जिस देश को अपनाया हमने
वह टूट रहा फिर एक बार

चमन यह बिगड़ा इस तरह
काँटे बन रहे सारे फूल

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कभी गिरमिट की आई गुलामी

उस समय फीज़ी में तख्तापलट का समय था। फीज़ी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार जोगिन्द्र सिंह कंवल फीज़ी की राजनैतिक दशा और फीज़ी के भविष्य को लेकर चिंतित थे, तभी तो उनकी कलम बोल उठी:

कभी गिरमिट की आई गुलामी
कभी बाढ़ों ने मार दिया
कभी रम्बूका कू कर बैठा
कभी स्पेट ने वार किया।

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हम लोग | फीज़ी पर कहानी

"बिमल, सोचता हूँ मैं वापस चला जाऊं'', प्रोफेसर महेश कुमार ने निराशा भरे स्वर में कहा ।

मुझे उसके इस सुझाव का कारण पता था । फिर भी जान-बूझकर मैंने प्रश्न किया - "क्यों?"

''कल सूवा में गड़बड़ी हुई है । नैन्दी से कुछ आतंकवादियों ने एयर न्यूज़ीलैंड के विमान को हाइजैक करने की कोशिश की है । अगले सप्ताह तक पता नहीं यहाँ क्या कुछ न हो जाए ।''

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सात सागर पार

सात सागर पार करके भी ठिकाना न मिला
सौ साल प्यार करके भी निभाना न मिला

कई जनमों से तो बिछड़े थे एक मां से हम
दूसरी मां के आंचल में भी सिर छिपाना न मिला

पीढ़ियां खेली हैं ऐ देश तेरी गोद में
फिर भी तेरी ममता का हमें नजराना न मिला
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