कविताएं |
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देश-भक्ति की कविताएं पढ़ें। अंतरजाल पर हिंदी दोहे, कविता, ग़ज़ल, गीत क्षणिकाएं व अन्य हिंदी काव्य पढ़ें। इस पृष्ठ के अंतर्गत विभिन्न हिंदी कवियों का काव्य - कविता, गीत, दोहे, हिंदी ग़ज़ल, क्षणिकाएं, हाइकू व हास्य-काव्य पढ़ें। हिंदी कवियों का काव्य संकलन आपको भेंट!
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हिन्दी रुबाइयां - उदयभानु हंस | Uday Bhanu Hans |
मंझधार से बचने के सहारे नहीं होते, दुर्दिन में कभी चाँद सितारे नहीं होते। हम पार भी जायें तो भला जायें किधर से, इस प्रेम की सरिता के किनारे नहीं होते॥ ...
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आर्य-स्त्रियाँ - मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt |
केवल पुरुष ही थे न वे जिनका जगत को गर्व था, गृह-देवियाँ भी थीं हमारी देवियाँ ही सर्वथा । था अत्रि-अनुसूया-सदृश गार्हस्थ्य दुर्लभ स्वर्ग में, दाम्पत्य में वह सौख्य था जो सौख्य था अपवर्ग में ।। ३९ ।। ...
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बेटी को उसके अठाहरवें जन्मदिन पर पत्र - अनिल जोशी | Anil Joshi |
आशा है तुम सकुशल होगी शुभकामनाएं और तुम्हारी भावी यात्रा के बारे में कुछ राय ...
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देश पीड़ित कब तक रहेगा - डॉ रमेश पोखरियाल निशंक |
अगर देश आँसू बहाता रहा तो, ये संसार सोचो हमें क्या कहेगा? नहीं स्वार्थ को हमने त्यागा कहीं तो निर्दोष ये रक्त बहता रहेगा, ये शोषक हैं सारे नहीं लाल मेरे चमन तुमको हर वक़्त कहता रहेगा। अगर इस धरा पर लहू फिर बहा तो ये निश्चित तुम्हारा लहू ही बहेगा, अगर देश आँसू बहाता रहा तो, ये संसार सोचो हमें क्या कहेगा? अगर देश को हमसे मिल कुछ न पाया तो बेकार है फिर ये जीवन हमारा, पशु की तरह हम जिए तो जिए क्या थूकेगा हम पर तो संसार सारा। जतन कुछ तो कर लो, सँभालो स्वयं को भला देश पीड़ा यों कब तक सहेगा, अगर देश आँसू बहाता रहा तो, ये संसार सोचो हमें क्या कहेगा? यौवन तो वो है खिले फूल-सा जो चमन पर रहे, कंटकों में महकता, शूलों से ताड़ित रहे जो सदा ही समर्पित चमन पर रहे जो चमकता। अँधेरा धरा पर कहीं भी रहे तो ये जल-जल स्वयं ही सवेरा करेगा, अगर देश आँसू बहाता रहा तो, ये संसार सोचो हमें क्या कहेगा? आँसू बहाए चमन, तुम हँसे तो ये समझो कि जीवन में रोते रहोगे, बलिदान देकर जो पाया वतन है उसे भी सतत यों ही खोते रहोगे। अगर ज्योति बनकर नहीं झिलमिलाए तो धरती में जन-जन सिसकता रहेगा, अगर देश आँसू बहाता रहा तो, ये संसार सोचो हमें क्या कहेगा? ...
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मेरे देश का एक बूढ़ा कवि - अब्बास रज़ा अल्वी | ऑस्ट्रेलिया |
फटे हुए लिबास में क़तार में खड़ा हुआ उम्र के झुकाओ में आस से जुड़ा हुआ किताब हाथ में लिये भीड़ से भिड़ा हुआ कोई सुने या न सुने आन पे अड़ा हुआ ...
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फूल और काँटा | Phool Aur Kanta - अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' | Ayodhya Singh Upadhyaya Hariaudh |
हैं जनम लेते जगह में एक ही, एक ही पौधा उन्हें है पालता। रात में उन पर चमकता चांद भी, एक ही सी चांदनी है डालता।।
मेह उन पर है बरसता एक-सा, एक-सी उन पर हवाएं हैं बहीं। पर सदा ही यह दिखाता है हमें, ढंग उनके एक-से होते नहीं।।
छेद कर कांटा किसी की उंगलियां, फाड़ देता है किसी का वर वसन। प्यार-डूबी तितलियों का पर कतर, भौंरें का है बेध देता श्याम तन।।
फूल लेकर तितलियों को गोद में, भौंरें को अपना अनूठा रस पिला। निज सुगंधों औ निराले रंग से, है सदा देता कली जी की खिला।। ...
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अभिलाषा - राजकुमारी गोगिया |
दीप की लौ सा लुटा कर प्यार अपना पा नहीं पायी हूँ अब तक प्यार सपना, कह रहा है मन कि प्रियतम, पास आओ जोह रहे हैं नयन मधु-मय प्यार अपना । ...
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भला क्या कर लोगे? - डॉ. शैलेश शुक्ला |
है हर ओर भ्रष्टाचार, भला क्या कर लोगे तुम कुछ ईमानदार, भला क्या कर लोगे ? ...
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स्काइप की डोर - गुलशन सुखलाल |
जिस दिन नेटवर्क नहीं मिलता उस दिन का खाना चूल्हे से सीधे फ़िज में जाता है जिस दिन अमेरिका में होता है सरवर जाम उस दिन अपनी पलंग पर सपने धुन्धले दिखते हैं बेटे का बाँधा हुआ ए.डी.एस.एल. का केबल शामों को, बेबस कुकुर की तरह बाँध गया है उस छोटे से कमरे में पड़ोसी के हुल्लड़बाज़ बच्चे सूली से उतारने आते हैं जब लैपटॉप की हैंग स्क्रीन पर आँखें घण्टों लटकी रह जाती हैं टीवी पर आया था उसी से हाइटेक बनेगा मज़दूर बाप उसी से बनेगी स्वावलम्बी गृहस्थ माँ इसी से मज़बूत होंगे रिश्ते खुशहाल होगा परिवार अब तो कई साल हो गए नाती-पोते ऑनलाइन ही जन्मे.... बड़े हुए बस अब दिखते कम हैं रोज़ाना से सप्ताह में एक बार अब हो पाती है बात जिस दिन वे "खाली हो पाते हैं" दैनिक संझा के समान यह कर्मकाण्ड शुरू में पूरी चालीसा फिर करपूर गौरं ... आजकल अगरबत्ती के धुएँ की तीन आवृत्तियों पर आकर खत्म हो जाता है फिर भी जाने किस चमत्कार से दोनों बूढ़ों का जीवन टिका हुआ है स्काइप की इस डोर से पड़ोसी के हुल्लड़बाज़ बच्चे समझ गए हैं इनकी अरथी के दर्शन ऑनलाइन कराने होंगे किसी बहाने से वाइ-फ़ाइ लगाने को कह दिया है। ...
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कविता सतत अधूरापन - कविता वाचक्नवी |
कविता........! सतत अधूरापन है पहले से दूजे को सौंपा आप नया कुछ और रचो भी कविता नहीं पूर्ण होती है। कितने साथी छोड़ किनारे वह अनवरत बहा करती है कितने मृत कंकाल उठाए वह अर्थी बनकर चलती है सभी निरर्थक संवादों को संवेगों से ही धोती है कविता नहीं पूर्ण होती है। ...
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