यदि पक्षपात की दृष्टि से न देखा जाये तो उर्दू भी हिंदी का ही एक रूप है। - शिवनंदन सहाय।
लघुकथाएं
लघु-कथा, *गागर में सागर* भर देने वाली विधा है। लघुकथा एक साथ लघु भी है, और कथा भी। यह न लघुता को छोड़ सकती है, न कथा को ही। संकलित लघुकथाएं पढ़िए -हिंदी लघुकथाएँप्रेमचंद की लघु-कथाएं भी पढ़ें।

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नदियाँ और समुद्र  - रामधारी सिंह दिनकर | Ramdhari Singh Dinkar

एक ऋषि थे, जिनका शिष्य तीर्थाटन करके बहुत दिनों के बाद वापस आया।
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अंतिम दर्शन  - पूनम चंद्रलेखा

सुबह से कई बार स्वप्निल का मोबाइल बजा था किन्तु, वह बिना देखे ही कॉल बार-बार काट देता।
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खम्भे पर बेल - सुनील कुमार शर्मा

मोलू चायवाले की दुकान के सामने, गंदे नाले के किनारे खड़े बिजली के खम्भे पर गलती से एक जंगली बेल चढ़ गयी। हर रोज मोलू की दुकान पर बैठकर चाय की चुस्कियों के साथ गपशप करने वाले देश के जागरूक नागरिकों की निगाह, जब उस बेल पर पड़ी तो वे सतर्क हो गए। उन्होंने तुरंत इसकी सूचना मोहल्ले के पार्षद को दी। पार्षद महोदय गरजे, "मेरे इलाके में इस बेल ने खम्भे पर चढ़ने की जुर्रत कैसे की?... चलो हम विद्युत् विभाग के एस.डी.ओ के पास चलते है।"
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साझा घाव - दिलीप कुमार

कई दिनों से वे दोनों मजदूर चौक पर आते थे। पूरा-पूरा दिन बिता देते थे मगर उनकी दिहाड़ी नहीं लगती थी। माहौल में एक अजीब तरह की तल्खी और सिहरन थी। इंसानों के वहशीपन को प्रशासन ने डंडे की चोट से शांत तो करा दिया था मगर कुछ लोग खासे असंतुष्ट थे। उन्हें खुलकर वह सब करने का मौका नहीं मिल पाया था जो वे करना चाहते थे। दंगे के प्रभाव से मजदूर चौक भी अछूता नहीं रहा था क्योंकि दंगे के दिन ही सात मजदूर मार दिए गए थी। उनका दोष सिर्फ इतना था कि वे एक ऐसे इलाके में मजदूरी करने गए थे जहां उनके धर्म के लोगों की आबादी कम थी। जिस तरह रोटी की जरूरत साझी होती है, उसी तरह नफरत की विरासत भी साझी थी। लोगों को जब मारने के लिए कोई और न मिलता थे तो अपने इलाके में आये दूसरे धर्म के मजदूरों पर ही हमला करके उनको अधमरा कर देते थे। ये सिलसिला बढ़ा तो मजदूरों ने अपने-अपने इलाके में ही मजदूरी करना बेहतर समझा। मगर मजदूरी के अवसर मजहब देख कर पैदा नहीं होते। नतीजा कई दिनों तक उन दोनों को मजदूरी नहीं लगी। दोनों रोटियाँ लेकर आते फिर दोपहर में सब्जी बाँट लिया करते थे। बीड़ी, तमाखू की अदला-बदली करके बिना दिहाड़ी लगाए घर लौट जाते। हालात बिगड़े तो सब्ज़ियां आनी बन्द हो गयीं, अमल-पत्ती के भी लाले पड़ गए। किसी दिन बरसाती अली रोटियां लाता तो किसी दिन घसीटालाल। उन दोनों को अपनी पसंद के इलाके में मजदूरी ना मिली और दूसरे इलाकों में जाने पर जान का खतरा था। उनके घरों में रोटियां पकनी बन्द हो गयीं और वे खाली पोटलियों के साथ आते और नाउम्मीद होकर लौट जाते। उन्हें मौत अवश्यंभावी नजर आ रही थी, एक तरफ दंगाइयों से मारे जाने का भय दूसरी तरफ भूख से मर जाने का अंदेशा।
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