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कथा-कहानी |
अंतरजाल पर हिंदी कहानियां व हिंदी साहित्य निशुल्क पढ़ें। कथा-कहानी के अंतर्गत यहां आप हिंदी कहानियां, कथाएं, लोक-कथाएं व लघु-कथाएं पढ़ पाएंगे। पढ़िए मुंशी प्रेमचंद,रबीन्द्रनाथ टैगोर, भीष्म साहनी, मोहन राकेश, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, फणीश्वरनाथ रेणु, सुदर्शन, कमलेश्वर, विष्णु प्रभाकर, कृष्णा सोबती, यशपाल, अज्ञेय, निराला, महादेवी वर्मा व लियो टोल्स्टोय की कहानियां। |
Articles Under this Category |
बहादुर कुत्ता - देवदत्त द्विवेदी |
[अमरीका के एक रेड इंडियन की कहानी] |
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पत्थर के आँसू - ब्रह्मदेव |
जब हवा में कुछ मंथर गति आ जाती है वह कुछ ठंडी हो चलती है तो उस ठंडी-ठंडी हवा में बिना दाएँ-बाएँ देखे चहचहाते पक्षी उत्साहपूर्वक अपने बसेरे की ओर उड़ान भरते हैं। और जब किसी क्षुद्र नदी के किनारे के खेतों में धूल उड़ाते हुए पशु मस्तानी चाल से घँटी बजाते अपने घरों की ओर लौट पड़ते हैं उस समय बग़ल में फ़ाइलों का पुलिन्दा दबाए, हाथ में सब्जी. का थैला लिए, लड़खड़ाते क़दमों के सहारे, अपने झुके कंधों पर दुखते हुए सिर को जैसे-तैसे लादे एक व्यक्ति तंग बाज़ारों में से घर की ओर जा रहा होता है। |
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भगवान सबका एक है | लोक-कथा - नीरा सक्सेना |
पेरिस में इब्राहीम नाम का एक आदमी अपनी बीवी और बच्चों के साथ एक मोंपड़ी में रहता था। वह एक साधारण गृहस्थ था, पर था बड़ा धर्मात्मा और परोपकारी । उसका घर शहर से दस मील दूर था। उसकी झोपड़ी के पास से एक पतलीसी सड़क जाती थी। एक गाँव से दूसरे गाँव को यात्री इसी सड़क से होकर आते-जाते थे। |
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जीवन-संध्या - लीलावती मुंशी |
दिन का पिछला पहर झुक रहा था। सूर्य की उग्र किरणों की गर्मी नरम पड़ने लगी थी, रास्ता चलने वालों की छायाएँ लंबी होती जा रही थीं। |
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वेश - खलील जिब्रान |
एक दिन समुद्र के किनारे सौन्दर्य की देवी की भेंट कुरूपता की देवी से हुई। एक ने दूसरी से कहा, ‘‘आओ, समुद्र में स्नान करें।'' |
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लांछन | कहानी - मुंशी प्रेमचंद | Munshi Premchand |
अगर संसार में ऐसा प्राणी होता, जिसकी आँखें लोगों के हृदयों के भीतर घुस सकतीं, तो ऐसे बहुत कम स्त्री-पुरुष होंगे, जो उसके सामने सीधी आँखें करके ताक सकते ! महिला-आश्रम की जुगनूबाई के विषय में लोगों की धारणा कुछ ऐसी ही हो गयी थी। वह बेपढ़ी-लिखी, ग़रीब, बूढ़ी औरत थी, देखने में बड़ी सरल, बड़ी हँसमुख; लेकिन जैसे किसी चतुर प्रूफरीडर की निगाह ग़लतियों ही पर जा पड़ती है; उसी तरह उसकी आँखें भी बुराइयों ही पर पहुँच जाती थीं। शहर में ऐसी कोई महिला न थी; जिसके विषय में दो-चार लुकी-छिपी बातें उसे न मालूम हों। उसका ठिगना स्थूल शरीर, सिर के खिचड़ी बाल, गोल मुँह, फूले-फूले गाल, छोटी-छोटी आँखें उसके स्वभाव की प्रखरता और तेजी पर परदा-सा डाले रहती थीं; लेकिन जब वह किसी की कुत्सा करने लगती, तो उसकी आकृति कठोर हो जाती, आँखें फैल जातीं और कंठ-स्वर कर्कश हो जाता। उसकी चाल में बिल्लियों का-सा संयम था; दबे पाँव धीरे-धीरे चलती, पर शिकार की आहट पाते ही, जस्त मारने को तैयार हो जाती थी। उसका काम था, महिला-आश्रम में महिलाओं की सेवा-टहल करना; पर महिलाएँ उसकी सूरत से काँपती थीं। उसका आतंक था, कि ज्यों ही वह कमरे में क़दम रखती, ओठों पर खेलती हुई हँसी जैसे रो पड़ती थी। चहकने वाली आवाजें जैसे बुझ जाती थीं, मानो उनके मुख पर लोगों को अपने पिछले रहस्य अंकित नजर आते हों। पिछले रहस्य ! कौन है, जो अपने अतीत को किसी भयंकर जंतु के समान कटघरों में बंद करके न रखना चाहता हो। धनियों को चोरों के भय से निद्रा नहीं आती, मानियों को उसी भाँति मान की रक्षा करनी पड़ती है। वह जंतु, जो पहले कीट के समान अल्पाकार रहा होगा, दिनों के साथ दीर्घ और सबल होता जाता है, यहाँ तक हम उसकी याद ही से काँप उठते हैं; और अपने ही कारनामों की बात होती, तो अधिकांश देवियाँ जुगनू को दुत्कारतीं; पर यहाँ तो मैके और ससुराल, ननियाल, ददियाल, फुफियाल और मौसियाल, चारों ओर की रक्षा करनी थी और जिस किले में इतने द्वार हों, उसकी रक्षा कौन कर सकता है। वहाँ तो हमला करने वाले के सामने मस्तक झुकाने में ही कुशल है। जुगनू के दिल में हजारों मुरदे गड़े पड़े थे और वह ज़रूरत पड़ने पर उन्हें उखाड़ दिया करती थी। जहाँ किसी महिला ने दून की ली, या शान दिखायी, वहाँ जुगनू की त्योरियाँ बदलीं। उसकी एक कड़ी निगाह अच्छे- अच्छे को दहला देती थी; मगर यह बात न थी कि स्त्रियाँ उससे घृणा करती हों। नहीं, सभी बड़े चाव से उससे मिलतीं और उसका आदर-सत्कार करतीं। अपने पड़ोसियों की निंदा सनातन से मनुष्य के लिए मनोरंजन का विषय रही है और जुगनू के पास इसका काफ़ी सामान था। |
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अर्जुन या एकलव्य - रोहित कुमार हैप्पी |
'अर्जुन और एकलव्य' की कहानी सुनाकर मास्टर जी ने बच्चों से पूछा, "तुम अर्जुन बनोगे या एकलव्य?" |
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मौसी - भुवनेश्वर |
मानव-जीवन के विकास में एक स्थल ऐसा आता है, जब वह परिवर्तन पर भी विजय पा लेता है। जब हमारे जीवन का उत्थान या पतन, न हमारे लिए कुछ विशेषता रखता है, न दूसरों के लिए कुछ कुतूहल। जब हम केवल जीवित के लिए ही जीवित रहते हैं और वह मौत आती है; पर नहीं आती। |
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जितने मुँह उतनी बात - रोहित कुमार 'हैप्पी' |
एक बार एक वृद्ध और उसका लड़का अपने गाँव से किसी दूसरे गाँव जा रहे थे। पुराने समय में दूर जाने के लिए खच्चर या घोड़े इत्यादि की सवारी ली जाती थी। इनके पास भी एक खच्चर था। दोनों खच्चर पर सवार होकर जा रहे थे। रास्ते में कुछ लोग देखकर बोले, "रै माड़ा खच्चर अर दो-दो सवारी। हे राम, जानवर की जान की तो कोई कीमत नहीं समझते लोग।" |
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संसार की सबसे बड़ी कहानी - सुदर्शन | Sudershan |
पृथ्वी के प्रारम्भ में जब परमात्मा ने हमारी नयनाभिराम सृष्टि रची, तो आदमी को चार हाथ दिये, चार पाँव दिये, दो सिर दिये और एक दिल दिया । और कहा-"तू कभी दुःखी न होगा । तेरा संसार स्वर्ग है।" |
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ऊबड़खाबड़ रास्ता | लघुकथा - बैकुंठनाथ मेहरोत्रा |
ऊबड़खाबड़ रास्ता। उस पर एक इंसान बढ़ता चला जा रहा था। |
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समाधान | लघुकथा - अज्ञात |
एक बूढा व्यक्ति था। उसकी दो बेटियां थीं। उनमें से एक का विवाह एक कुम्हार से हुआ और दूसरी का एक किसान के साथ। |
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बछडू - मृणाल आशुतोष |
"क्या हुआ? कल से देख रहा हूँ, बार-बार छत पर जाती हो।" विमल अनिता से पूछ बैठे। |
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टंगटुट्टा - मृणाल आशुतोष |
घर का माहौल थोड़ा असामान्य सा हो चला था। परसों ही राजेन्द्र ने किसी दुखियारी से शादी करने की बात घर पर छेड़ दी थी। छोटे भाइयों को तो आश्चर्य हुआ, पर बहुओं की आवाज़ कुछ ज्यादा ही तेज़ हो गई। बेचारी बूढ़ी माँ समझाने की कोशिश कर थककर हार मान चुकी थी। |
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क्रमशः प्रगति - शरद जोशी | Sharad Joshi |
खरगोश का एक जोड़ा था, जिनके पाँच बच्चे थे। |
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