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काव्य |
जब ह्रदय अहं की भावना का परित्याग करके विशुद्ध अनुभूति मात्र रह जाता है, तब वह मुक्त हृदय हो जाता है। हृदय की इस मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आई है उसे काव्य कहते हैं। कविता मनुष्य को स्वार्थ सम्बन्धों के संकुचित घेरे से ऊपर उठाती है और शेष सृष्टि से रागात्मक संबंध जोड़ने में सहायक होती है। काव्य की अनेक परिभाषाएं दी गई हैं। ये परिभाषाएं आधुनिक हिंदी काव्य के लिए भी सही सिद्ध होती हैं। काव्य सिद्ध चित्त को अलौकिक आनंदानुभूति कराता है तो हृदय के तार झंकृत हो उठते हैं। काव्य में सत्यं शिवं सुंदरम् की भावना भी निहित होती है। जिस काव्य में यह सब कुछ पाया जाता है वह उत्तम काव्य माना जाता है। |
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दिल पे मुश्किल है.... - कुँअर बेचैन |
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स्वप्न सब राख की... - उदयभानु हंस | Uday Bhanu Hans |
स्वप्न सब राख की ढेरियाँ हो गए, |
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गति का कुसूर - अशोक चक्रधर | Ashok Chakradhar |
क्या होता है कार में |
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अकबर और तुलसीदास - सोहनलाल द्विवेदी | Sohanlal Dwivedi |
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हलीम 'आईना' के दोहे - हलीम 'आईना' |
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आदमी से अच्छा हूँ ....! - हलीम 'आईना' |
भेड़िए के चंगुल में फंसे |
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मुझको याद किया जाएगा - गोपालदास ‘नीरज’ |
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बेच डाला जिस्म... - गिरीश पंकज |
बेच डाला जिस्म और ईमान रोटी के लिए, |
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झुकी कमान - चंद्रधर शर्मा गुलेरी | Chandradhar Sharma Guleri |
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शादी मत करना - गौरीशंकर 'मधुकर' |
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उदयभानु ‘हंस' के हाइकु - उदयभानु हंस | Uday Bhanu Hans |
युवक जागो! |
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कोई नहीं पराया - गोपालदास ‘नीरज’ |
कोई नहीं पराया, मेरा घर संसार है। |
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चेतावनी - हरिकृष्ण प्रेमी |
है सरल आज़ाद होना, |
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दे, मैं करूँ वरण - सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' | Suryakant Tripathi 'Nirala' |
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दर्द की सारी लकीरों.... | ग़ज़ल - विजय कुमार सिंघल |
दर्द की सारी लकीरों को छुपाया जाएगा |
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इसको ख़ुदा बनाकर | ग़ज़ल - विजय कुमार सिंघल |
इसको ख़ुदा बनाकर उसको खुदा बनाकर |
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बड़ी नाज़ुक है डोरी | ग़ज़ल - डा. राणा प्रताप सिंह गन्नौरी 'राणा' |
बड़ी नाज़ुक है डोरी साँस की यह |
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प्रेम देश का... | ग़ज़ल - डा. राणा प्रताप सिंह गन्नौरी 'राणा' |
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मैं सूने में मन बहलाता - शिवमंगल सिंह सुमन |
मेरे उर में जो निहित व्यथा |
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अवध में राना भयो मरदाना - लोक-साहित्य |
अवध में राना भयो मरदाना। |
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भारत माता - मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt |
(राष्ट्रीय गीत) |
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कंकड चुनचुन - कबीरदास | Kabirdas |
कंकड चुनचुन महल उठाया |
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लक्ष्य-भेद - मनमोहन झा की |
बोलो बेटे अर्जुन! |
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हिंदुस्तान - मनमोहन झा की |
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सयाना - गोलोक विहारी राय |
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कमल - मयंक गुप्ता |
दलदल के भीतर अपने अंशों को पिरोए हुए, |
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तुम बेटी हो - राधा सक्सेना |
तुम मेरी बेटी जैसी हो, ये कहना बहुत आसान है |
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वो मजदूर कहलाता है - राधा सक्सेना |
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एक बार फिर... - व्यग्र पाण्डे |
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दूब - मंजू रानी |
तुम ने कभी दूब को मरते देखा है |
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चलो चलें - शशि द्विवेदी |
चलो चलें कुछ नया करें, |
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रोहित ठाकुर की तीन कविताएं - रोहित ठाकुर |
चलता हुआ आदमी |
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यह टूटा आदमी - शिव नारायण जौहरी 'विमल' |
कुंठा के कांधे पर उजड़ी मुस्कान धरे |
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1857 - शिव नारायण जौहरी 'विमल' |
सत्तावन का युद्ध खून से |
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आयुर्वेदिक देसी दोहे - भारत-दर्शन संकलन |
रस अनार की कली का, नाक बूंद दो डाल। |
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पीहर - स्वरांगी साने |
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