अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
व्यंग्य
हिंदी व्यंग्य. Hindi Satire.

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अगली सदी का शोधपत्र - सूर्यबाला | Suryabala

एक समय की बात है, हिन्दुस्तान में एक भाषा हुआ करे थी। उसका नाम था हिंदी। हिन्दुस्तान के लोग उस भाषा को दिलोजान से प्यार करते थे। बहुत सँभालकर रखते थे। कभी भूलकर भी उसका इस्तेमाल बोलचाल या लिखने-पढ़ने में नहीं करते थे। सिर्फ कुछ विशेष अवसरों पर ही वह लिखी-पढ़ी या बोली जाती थी। यहाँ तक कि साल में एक दिन, हफ्ता या पखवारा तय कर दिया जाता था। अपनी-अपनी फुरसत के हिसाब से और सबको खबर कर दी जाती थी कि इस दिन इतने बजकर इतने मिनट पर हिंदी पढ़ी-बोली और सुनी-समझी (?) जाएगी। निश्चित दिन, निश्चित समय पर बड़े सम्मान से हिंदी झाड़-पोंछकर तहखाने से निकाली जाती थी और सबको बोलकर सुनाई जाती थी।
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यहाँ क्षण मिलता है - मृदुला गर्ग | Mridula Garg

हम सताए, खीजे, उकताए, गड्ढों-खड्ढों, गंदे परनालों से बचते, दिल्ली की सड़क पर नीचे ज़्यादा, ऊपर कम देखते चले जा रहे थे, हर दिल्लीवासी की तरह, रह-रहकर सोचते कि हम इस नामुराद शहर में रहते क्यों हैं ? फिर करिश्मा ! एक नज़र सड़क से हट दाएँ क्या गई, ठगे रह गए। दाएँ रूख फलाँ-फलाँ राष्ट्रीय बैंक था। नाम के नीचे पट्ट पर लिखा था, यहाँ क्षण मिलता है। वाह ! बहिश्त उतर ज़मी पर आ लिया। यह कैसा बैंक है जो रोकड़ा लेने-देने के बदले क्षण यानी जीवन देता है? क्षण-क्षण करके दिन बनता है, दिन-दिन करके बरसों-बरस यानी ज़िंदगी। आह, किसी तरह एक क्षण और मिल जाए जीने को।
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चौथा बंदर - शरद जोशी - शरद जोशी | Sharad Joshi

क बार कुछ पत्रकार और फोटोग्राफर गांधी जी के आश्रम में पहुंचे। वहां उन्होंने देखा कि गांधी जी के तीन बंदर हैं। एक आंख बंद किए है, दूसरा कान बंद किए है, तीसरा मुंह बंद किए है। एक बुराई नहीं देखता, दूसरा बुराई नहीं सुनता और तीसरा बुराई नहीं बोलता। पत्रकारों को स्टोरी मिली, फोटोग्राफरों ने तस्वीरें लीं और आश्रम से चले गए।
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