जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।
आलेख
प्रतिनिधि निबंधों व समालोचनाओं का संकलन आलेख, लेख और निबंध.

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आज हिन्दी बोलो, हिन्दी दिवस है  - सुदर्शन वशिष्ठ

हमारी राजभाषा हिन्दी है। उत्तर भारत में हिन्दी पट्टी है जहां कई राज्यों की राजभाषा हिन्दी है। भारत के संविधान में इन राज्यों को ''क'' श्रेणी में रखा गया है। संविधानिक रूप से हिन्दी को राष्ट्रभाषा नहीं, राजभाषा कहा गया है। 14 सितम्बर 1949 को हिन्दी को संघ के संविधान में राजभाषा का दर्जा दिया गया और संविधान में बाकायदा इस की व्याख्या की गई। राजभाषा के रूप में हिन्दी की विजय मात्र एक मत से ही हुई थी, ऐसा कहा जाता है। 'क' श्रेणी में हिमाचल, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार तथा सभी संघ शासित राज्य आते हैं। इस क्षेत्र को ही हिन्दी पट्टी कहा जाता है।
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न्यूज़ीलैंड की हिंदी पत्रकारिता | FAQ  - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

न्यूज़ीलैंड हिंदी पत्रकारिता - बारम्बार पूछे  जाने वाले प्रश्न | FAQ 
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समाज के वास्तविक शिल्पकार होते हैं शिक्षक - डा. जगदीश गांधी

सर्वपल्ली डा. राधाकृष्णन का जन्मदिवस 5 सितम्बर के अवसर पर विशेष लेख
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कौनसा हिंदी सम्मेलन? - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

आजकल दो हिंदी सम्मेलनों का आयोजन होता है। एक है विश्व हिंदी सम्मेलन (World Hindi Conference) और दूसरा है अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन (International Hindi Conference)।

अब आप कहेंगे भई, यह दो सम्मेलनों का औचित्य क्या है? यह तो भ्रामक है! आइए, इनके बारे में और अधिक जानकारी ले लें।

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क्या महात्मा गांधी ने भगत सिंह व अन्य क्रांतिकारियों को बचाने का प्रयास किया था? - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

क्या महात्मा गांधी ने भगत सिंह व अन्य क्रांतिकारियों को बचाने का प्रयास किया था? उपरोक्त प्रश्न प्राय: समय-समय पर उठता रहा है। बहुत से लोगों का आक्रोश रहता है कि गांधी ने भगत सिंह को बचाने का प्रयास नहीं किया।
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गाँधी राष्ट्र-पिता...? - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

कुछ समय से यह मुद्दा बड़ा चर्चा में है, 'गाँधी को राष्ट्रपिता की उपाधि किसने दी?
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विश्व हिंदी सम्मेलन : आदि से अंत - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

दसवां विश्व हिंदी सम्मेलन 10-12 सितंबर 2015 तक भोपाल में आयोजित किया गया। यह सम्मेलन 32 वर्ष पश्चात् भारत में आयोजित किया गया था।
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फीजी में हिंदी - विवेकानंद शर्मा | फीजी

फीजी के पूर्व युवा तथा क्रीडा मंत्री, संसद सदस्य विवेकानंद शर्मा का हिंदी के प्रति गहरा लगाव था । फीजी में हिंदी के विकास के लिए वह निरंतर प्रयत्नशील रहे।
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स्वामी विवेकानंद का विश्व धर्म सम्मेलन संबोधन - भारत-दर्शन संकलन

स्वामी विवेकानंद ने 11 सितंबर 1893 को शिकागो (अमेरिका) में हुए विश्व धर्म सम्मेलन में एक बेहद चर्चित भाषण दिया था। विवेकानंद का जब भी जि़क्र आता है उनके इस भाषण की चर्चा जरूर होती है। पढ़ें विवेकानंद का यह भाषण...
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लालबहादुर शास्त्री - भारत-दर्शन संकलन | Collections

भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर, 1904 को मुगलसराय, उत्तर प्रदेश के एक सामान्य निम्नवर्गीय परिवार में हुआ था। आपका वास्तविक नाम लाल बहादुर श्रीवास्तव था। शास्त्री जी के पिता शारदा प्रसाद श्रीवास्तव एक शिक्षक थे व बाद में उन्होंने भारत सरकार के राजस्व विभाग में क्लर्क के पद पर कार्य किया।
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हिंदी और राष्ट्रीय एकता - सुभाषचन्द्र बोस

यह काम बड़ा दूरदर्शितापूर्ण है और इसका परिणाम बहुत दूर आगे चल कर निकलेगा। प्रांतीय ईर्ष्या-द्वेश को दूर करने में जितनी सहायता हमें हिंदी-प्रचार से मिलेगी, उतनी दूसरी किसी चीज़ से नहीं मिल सकती। अपनी प्रांतीय भाषाओं की भरपूर उन्नति कीजिए। उसमें कोई बाधा नहीं डालना चाहता और न हम किसी की बाधा को सहन ही कर सकते हैं; पर सारे प्रांतो की सार्वजनिक भाषा का पद हिंदी या हिंदुस्तानी ही को मिला। नेहरू-रिपोर्ट में भी इसी की सिफारिश की गई है। यदि हम लोगों ने तन मन से प्रयत्न किया, तो वह दिन दूर नहीं है, जब भारत स्वाधीन होगा और उसकी राष्ट्रभाषा होगी हिंदी।
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हिन्दी के बिना हमारा कार्य नहीं चल सकता - भारत-दर्शन संकलन

अंग्रेजी के विषय में लोगों की जो कुछ भी भावना हो, पर मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि हिन्दी के बिना हमारा कार्य नहीं चल सकता । हिन्दी की पुस्तकें लिख कर और हिन्दी बोल कर भारत के अधिकाँश भाग को निश्चय ही लाभ हो सकता है। यदि हम देश में बंगला और अंग्रेजी जाननेवालों की संख्या का पता चलाएँ, तो हमें साफ प्रकट हो जाएगा कि वह कितनी न्यून है। जो सज्जन हिन्दी भाषा द्वारा भारत में एकता पैदा करना चाहते हैं, वे निश्चय ही भारतबन्धु हैं । हम सब को संगठित हो कर इस ध्येय की प्राप्ति के लिए प्रयास करना चाहिए । भले ही इस को पाने में अधिक समय लगे, परन्तु हमें सफलता अवश्य मिलेगी ।
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धन्वन्तरि - धनतेरस की पौराणिक कथा - भारत-दर्शन संकलन

धार्मिक व पौराणिक मान्यता है साथ सागर मंथन के समय भगवान धन्वन्तरि अमृत कलश के साथ अवतरित हुए थे। उनके कलश लेकर प्रकट होने की घटना के प्रतीक स्वरूप ही बर्तन खरीदने की परम्परा का प्रचलन हुआ। पौराणिक मान्यता है कि इस दिन धन (चल या अचल संपत्ति) खरीदने से उसमें 13 गुणा वृद्धि होती है। धन तेरस के दिन ग्रामीण धनिये के बीज भी खरीदते हैं।
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हिन्दी : देवनागरी में या रोमन में ? - ओम विकास

मग्र विकास के लिए हिन्दी : देवनागरी में या रोमन में ?
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विश्व हिंदी सम्मेलन - रोहित कुमार

विश्व हिंदी सम्मेलन का इतिहास व पृष्ठभूमि - विश्व हिंदी सम्मेलन की संकल्पना राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा द्वारा 1973 में की गई थी। संकल्पना के फलस्वरूप, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के तत्वावधान में प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन 10-12 जनवरी 1975 को नागपुर, भारत में आयोजित किया गया था। अभी तक ग्यारह सम्मेलन सम्पन्न हो चुके हैं। ग्यारहवाँ विश्व हिंदी सम्मेलन 2018 में मॉरीशस में आयोजित हुआ था और आगामी बारहवाँ विश्व हिंदी सम्मेलन फीजी में प्रस्तावित है। 
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विश्व हिंदी सम्मेलन - इतिहास व पृष्ठभूमि - भारत-दर्शन संकलन

विश्व हिंदी सम्मेलन की संकल्पना राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा द्वारा 1973 में की गई थी। संकल्पना के फलस्वरूप, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के तत्वावधान में प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन 10-12 जनवरी 1975 को नागपुर, भारत में आयोजित किया गया था।
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यदि मैं तानाशाह होता ! - बालकृष्ण राव

यदि मैं तानाशाह होता तो विदेशी माध्यम द्वारा शिक्षा तुरंत बंद कर देता, जो अध्यापक इस परिवर्तन के लिए तैयार न होते उन्हें बर्ख़ास्त कर देता, पाठ्य पुस्तकों के तैयार किए जाने का  इंतजार न करता ।' पिछले प्राय: एक पखवारे भर प्रयागनिवासी महात्मा गांधी के इन शब्दों को अपने नगर के अनेक स्थानों पर चिपके पोस्टरों पर लिखे देखते रहे हैं । उत्तर प्रदेश-शासन द्वारा जो 'भाषा विधेयक' विधानमंडल में प्रस्तुत हुआ था उसे ही इसका श्रेय दिया जाना चाहिए कि हम लोगों ने राष्ट्रपिता के इन शब्दों को याद करने-कराने की कोशिश की।
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महात्मा गांधी -शांति के नायक - नरेन्द्र देव

2 अक्‍टूबर का दिन कृतज्ञ राष्‍ट्र के लिए राष्‍ट्रपिता की शिक्षाओं को स्मरण करने का एक और अवसर उपलब्‍ध कराता है। भारतीय राजनीतिक परिदृश्‍य में मोहन दास कर्मचंद गांधी का आगमन ख़ुशी प्रकट करने के साथ-साथ हज़ारों भारतीयों को आकर्षित करने का पर्याप्‍त कारण उपलब्‍ध कराता है तथा इसके साथ उनके जीवन-दर्शन के बारे में भी ख़ुशी प्रकट करने का प्रमुख कारण है, जो बाद में गाँधी दर्शन के नाम से पुकारा गया। यह और भी आश्‍चर्यजनक बात है कि गाँधी जी के व्‍यक्तित्‍व ने उनके लाखों देशवासियों के दिल में जगह बनाई और बाद के दौर में दुनियाभर में असंख्‍य लोग उनकी विचारधारा की तरफ आकर्षित हुए।

इस बात का विशेष श्रेय गाँधी जी को ही दिया जाता है कि हिंसा और मानव निर्मित घृणा से ग्रस्‍त दुनिया में महात्‍मा गाँधी आज भी सार्वभौमिक सद्भावना और शांति के नायक के रूप में अडिग खड़े हैं और भी दिलचस्‍प बात यह है कि गाँधी जी अपने जीवनकाल के दौरान शांति के अगुवा बनकर उभरे तथा आज भी विवादों को हल करने के लिए अपनी अहिंसा की विचार-धारा से वे मानवता को आश्‍चर्य में डालते हैं। बहुत हद तक यह महज़ एक अनोखी घटना ही नहीं है कि राष्‍ट्र ब्रिटिश आधिपत्‍य के दौर में कंपनी शासन के विरूद्ध अहिंसात्‍मक प्रतिरोध के पथ पर आगे बढ़ा और उसके साथ ही गाँधी जी जैसे नेता के नेतृत्‍व में अहिंसा को एक सैद्धांतिक हथियार के रूप में अपनाया। यह बहुत आश्‍चर्यजनक है कि उनकी विचारधारा की सफलता का जादू आज भी जारी है।

क्‍या कोई इस तथ्‍य से इनकार कर सकता है कि अहिंसा और शांति का संदेश अब भी अंतर्राष्‍ट्रीय या द्विपक्षीय विवादों को हल करने के लिए विश्‍व नेताओं के बीच बेहद परिचित और आकर्षक शब्‍द है ? यह कहने की जरूरत नहीं कि इस बात का मूल्‍यांकन करना कभी संभव नहीं हुआ कि भारत और दुनिया किस हद तक शांति के मसीहा महात्‍मा गाँधी के प्रति आकर्षित है।

हालाँकि यह शांति अलग तरह की शांति है। खुद शांति के नायक के शब्‍दों में- मैं शांति पुरूष हूं, लेकिन मैं किसी चीज की कीमत पर शांति नहीं चाहता। मैं ऐसी शांति चाहता हूं, जो आपको क़ब्र में नहीं तलाशनी पड़े। यह विशुद्ध रूप से एक ऐसा तत्‍व है, जो गाँधी को शांति पुरुष के रूप में उपयुक्‍त दर्जा देता है। यह उल्‍लेखनीय है कि शांति का अग्रदूत होने के बावजूद महात्‍मा गाँधी न सिर्फ किसी ऐसे व्‍यक्ति से अलग-थलग रहे, जो शांति के नाम पर कहीं भी या कुछ भी गलत मंजूर करेगा।

गाँधी जी की शां‍ति की परिभाषा संघर्ष के बग़ैर नहीं थी। दरअसल उन्‍होंने दक्षिण अफ्रीका में गोरों के शासन के विरूद्ध संघर्ष में बुद्धिमानी से उनका नेतृत्‍व किया था। इसके बाद 1915 में भारत वापस आने पर गाँधी जी ने समाज सुधारक के साथ, अस्‍पृश्‍यता और अन्‍य सामाजिक बुराइयों के विरूद्ध दीर्घदर्शक के रूप में अहिंसा का इस्‍तेमाल किया। बाद में उन्‍होंने राजनीतिक परिदृश्‍य तक इसका विस्‍तार किया और दीर्घकाल में अपने प्रेम, शांति और आपसी समायोजन के संदेश को हिंदू मुस्लिम भाई-चारे के लिए इस्‍तेमाल किया।

उनका मशहूर भक्ति गीत रामधुन-ईश्‍वर अल्‍लाह तेरे नाम अब भी हिंदू-मुस्लिम शांति के लिए राष्‍ट्र का श्रेष्‍ठ गीत है। यह हमें इस बहस में ले जाता है कि गाँधी जी के लिए शांति का क्‍या मतलब था। जी हां, कोई कह सकता है कि व्‍यापक तौर पर शांति उनके लिए अपने आप में कोई अंत नहीं था। इसके बजाय यह सिर्फ मानवता का बेहतर कल्‍याण सुनिश्चित करने के लिए एक माध्‍यम थी।

वस्‍तुत: महात्‍मा गाँधी सत्‍य के अग्रदूत थे। दरअसल उन्‍होंने खुद भी कहा था कि सच्‍चाई शांति की तुलना में ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण है। इस संदर्भ में यंग इंडिया अखबार में महात्‍मा गाँधी के निम्‍नलिखित शब्‍द उदाहरण के लिए प्रस्‍तुत किये जाते हैं, जो बिल्‍कुल प्रासंगिक हैं। महात्‍मा गाँधी ने लिखा - हालाँकि हम भगवान की शान में जोर-जोर से गाते हैं और पृथ्‍वी पर शांत रहने के लिए कहते हैं, लेकिन आज न तो भगवान के प्रति वह शान और न ही धरती पर शांति दिखाई देती है। महात्‍मा गाँधी ने यह शब्‍द दिसंबर 1931 में लिखे थे। 17 वर्ष बाद जनवरी 1948 में एक क्रूर हथियारे की गोली से उनका स्‍वर्गवास हो गया। यह बहुत दर्दनाक था कि सार्वभौमिक शांति और अंहिसा का संत हिंसा और घृणा का शिकार बना। लेकिन 2010 के आज के दौर में भी महात्‍मा गांधी के 1931 के शब्‍द सत्‍य हैं।

आज दुनिया बहुत से और हर प्रकार के विवादों का सामना कर रही है, इसलिए हम देखते हैं कि सार्वभौमिक भाईचारे और शांति और सहअस्तित्‍व के बारे में गाँधी जी का बल आज भी पूरी तरह प्रासंगिक है। इसलिए उनकी शिक्षाएं आज भी देशभक्ति के सिद्धांत के साथ-साथ विभिन्‍न वैश्विक विवादों को हल करने या समाप्‍त करने के मार्ग और माध्‍यम सुझाती हैं। दरअसल गाँधी जी की शिक्षाओं का सच्‍चा प्रमाण इस तथ्‍य में निहित है कि सिर्फ अच्‍छाई समाप्‍त होती है, वह बुरे माध्‍यमों को तर्क संगत नहीं ठहराती है। इसलिए आज दुनियाभर में मानव प्रतिष्‍ठा और प्राकृतिक न्‍याय के मूल्‍य को बनाए रखने पर बल दिया जाता है।

यह स्‍पष्‍ट है कि आज की दुनिया में शां‍ति के संकट के सिवाए कुछ भी स्‍थाई नजर नहीं आता है तथा शांति के इस मसीहा को इससे बेहतर श्रद्धांजलि और कुछ नहीं होगी कि शांति और आपसी सहनशीलता के हित में काम किया जाए। यही गाँधीवाद की प्रासंगिकता है।

- नरेन्द्र  देव

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लक्ष्मी माता की कथा | धनतेरस की पौराणिक कथा - भारत-दर्शन संकलन

पौराणिक मान्यता है कि माँ लक्ष्मी को विष्णु जी का श्राप था कि उन्हें 13 वर्षों तक किसान के घर में रहना होगा। श्राप के दौरान किसान का घर धनसंपदा से भर गया। श्रापमुक्ति के उपरांत जब विष्णुजी लक्ष्मी को लेने आए तब किसान ने उन्हें रोकना चाहा। लक्ष्मीजी ने कहा कल त्रयोदशी है तुम साफ-सफाई करना, दीप जलाना और मेरा आह्वान करना। किसान ने ऐसा ही किया और लक्ष्मी की कृपा प्राप्त की । तभी से लक्ष्मी पूजन की प्रथा का प्रचलन आरंभ हुआ।
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हिन्दी गान  - महेश श्रीवास्तव

भाषा संस्कृति प्राण देश के
इनके रहते राष्ट्र रहेगा।
हिन्दी का जय घोष गुँजाकर
भारत माँ का मान बढ़ेगा।।
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राजा हेम की कथा | धनतेरस की पौराणिक कथा - भारत-दर्शन संकलन

धनतेरस की शाम घर के बाहर मुख्य द्वार पर और आंगन में दीप जलाने की भी प्रथा है। एक दंत कथा के अनुसार किसी समय हेम नामक एक राजा थे। दैव कृपा से उन्हें एक पुत्र रत्‍‌न की प्राप्ति हुई। ज्योंतिषियों ने जब बालक की कुण्डली बनाई तो बताया कि बालक का विवाह जिस दिन होगा उसके ठीक चार दिन के बाद वह मृत्यु हो जाएगी।
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कैसे होगी हिंदी की प्रगति और विकास - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड
सम्मेलन के सत्रों का हाल तो कुछ और ही था। प्रत्येक सत्र में पत्रकारों का छायाचित्र लेने या रिकार्डिंग करने पर प्रतिबंध था। वे शायद उद्घाटन व समापन समारोह के लिए ही आमंत्रित किए गए थे। मंच पर बैठे पत्रकार बिरादरी के मित्र भी सरकारी पाले में जाकर सरकारी बातें करने लगे थे, "अरे! इतना बड़ा समारोह है! ज़रा आयोजकों की मजबूरी भी तो समझिए!"  
 
अब कई पत्रकार बेचारे तो बुरे फंसे उनके पास मीडिया का पास तो था वे अंदर जा सकते थे लेकिन अब प्रतिनिधि वाला परिचय-पत्र न होने से चाय-नाश्ता निषेध था। इधर हाल यह था कि प्रतिनिधियों और अतिथियों को चाय के लिए तरसते देखा!

कुछ कहेंगे हमने तो ऐसा नहीं देखा - भाई, आप विशिष्ट जो थे! अंदर जो श्रेणी विभाजन किया गया था प्रतिनिधियों और विशिष्ट का - उसमें अंतर तो रहता ही है, न! स्वाभाविक है!
 
अगले दिन फिर कुछ पत्रकार चाय-नाश्ते की सोच रहे थे पर अब उनके पास 'प्रतिनिधि' वाला बिल्ला तो था नहीं यथा स्वयंसेवी सैनिक उन्हें अंदर कैसे जाने देते? मैं बाहर आया तो एक पत्रकार ने पूछा, "आपको अंदर कैसे जाने दिया?"
मैंने कहा, "भैय्या, भुगतान किया है! मीडिया के साथ-साथ प्रतिनिधि वाला बिल्ला भी है, न! शुल्क चुकाया है!"

अब भाई साहब क्या कहते चाय-नाश्ते का ख्याल छोड़ पानी पीने चल दिए फिर बाकी दिन वे दिखाई नहीं पड़े।
 
दो पत्रकार भाई अपने होटल में ही पास में ठहरे थे। एक सपत्नीक थे। पहले दिन तो पत्नी के साथ सम्मेलन में ही थे लेकिन जब से चायपान व दोपहर का भोजन बंद हुआ उनका सम्मेलन में आना भी बंद हुआ। अब आयोजकों का गणित देखिए! आमंत्रित किए गए पत्रकारों को होटल व कार की सेवाएं दी गई थीं। होटल में सुबह का नाश्ता करके भाई लोग पत्नी को लेकर 70-80 किलोमीटर जाकर शाम को वापिस आ जाते थे। एक जो पर्चा बांटा था ना के आसपास 'भाई साहब' ने वे सब देख लिए थे। 

दूसरे भाई भी मुफ्त की गाड़ी खूब दौड़ा रहे थे। मैंने पूछा, "आप दिखाई ही नहीं दिए?"
 
"सत्रों में तो बैठना 'अलाउड' नहीं। खाने के लिए भी वहाँ 'प्राब्लम' आ रही थी तो बस होटल में ही रहे, कुछ इधर-उधर घूम लिए।"

- रोहित कुमार 'हैप्पी'

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हिंदी भाषा ही सर्वत्र प्रचलित है - श्री केशवचन्द्र सेन

यदि एक भाषा के न होने के कारण भारत में एकता नहीं होती है, तो और चारा ही क्या है? तब सारे भारतवर्ष में एक ही भाषा का व्यवहार करना ही एकमात्र उपाय है । अभी कितनी ही भाषाएँ भारत में प्रचलित हैं । उनमें हिन्दी भाषा ही सर्वत्र प्रचलित है । इसी हिन्दी को भारत वर्ष की एक मात्र भाषा स्वीकार कर लिया जाए, तो सहज ही में यह एकता सम्पन्न हो सकती है । किन्तु राज्य की सहायता के बिना यह कभी भी संभव नहीं है । अभी अंग्रेज हमारे राजा हैं, वे इस प्रस्ताव से सहमत होंगे, ऐसा विश्वास नहीं होता । भारतवासियों के बीच फिर फूट नहीं रहेगी वे परस्पर एक हृदय हो जायेंगे, आदि सोच कर शायद अंग्रेजों के मन में भय होगा । उनका खयाल है कि भारतीयों में फूट न होने पर ब्रिटिश साम्राज्य भी स्थिर नहीं रह सकेगा ।
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अथ हिन्दी कथा - भारत-दर्शन संकलन

अथ हिंदी कथा
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हिंदी भाषा की समृद्धता  - भारतेन्दु हरिशचन्द्र

यदि हिन्दी अदालती भाषा हो जाए, तो सम्मन पढ़वाने, के लिए दो-चार आने कौन देगा, और साधारण-सी अर्जी लिखवाने के) लिए कोई रुपया-आठ आने क्यों देगा । तब पढ़ने वालों को यह अवसर कहाँ मिलेगा कि गवाही के सम्मन को गिरफ्तारी का वारंट बता दें ।
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हिन्दी, भारत की सामान्य भाषा - लोकमान्य तिलक

राष्ट्रभाषा की आवश्यकता अब सर्वत्र समझी जाने लगी है । राष्ट्र के संगठन के लिये आज ऐसी भाषा की आवश्यकता है, जिसे सर्वत्र समझा जा सके । लोगों में अपने विचारों का अच्छी तरह प्रचार करने के लिये भगवान बुद्ध ने भी एक भाषा को प्रधानता देकर कार्य किया था । हिन्दी भाषा राष्ट्र भाषा बन सकती है । राष्ट्र भाषा सर्वसाधारण के लिये जरूर होनी चाहिए । मनुष्य-हृदय एक दूसरे से विचार-विनिमय करना चाहता है; इसलिये राष्ट्र भाषा की बहुत जरूरत है । विद्यालयों में हिन्दी की पुस्तकों का प्रचार होना चाहिये । इस प्रकार यह कुछ ही वर्षों में राष्ट्र भापा बन सकती है ।
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प्रधानमंत्री का उद्घाटन भाषण - भारत-दर्शन संकलन

दुनिया के कोने-कोने से आए हुए सभी हिंदी-प्रेमी भाईयों और बहनों, 

करीब 39 देशों से प्रतिनिधि यहां मौजूद है एक प्रकार का ये हिंदी का महाकुंभ हो रहा है। अभी तो आप सिंहस्‍थ की तैयारी में हो लेकिन सिंहस्‍थ की तैयारी के पहले ही भोपाल की धरती में ये हिन्‍दी का महाकुंभ, उसके दर्शन करने का हमें अवसर मिला है। 

सुषमा जी ने सही बताया कि इस बार के अधिवेशन में हिन्‍दी भाषा पर बल देने का प्रयास है। जब भाषा होती है, तब हमें अंदाज नहीं होता है कि उसकी ताकत क्‍या होती है। लेकिन जब भाषा लुप्‍त हो जाती है और सदियों के बाद किसी के हाथ वो चीजें चढ़ जाती हैं, तो हर सबकी चिंता होती है कि आखिर इसमें है क्‍या? ये लिपि कौन सी है, भाषा कौन सी है, सामग्री क्‍या है, विषय क्‍या है? आज कहीं पत्‍थरों पर कुछ लिखा हुआ मिलता है, तो सालों तक पुरातत्‍व विभाग उस खोज में लगा रहता है कि लिखा क्‍या गया है? और तब जाकर के भाषा लुप्‍त होने के बाद कितना बड़ा संकट पैदा होता है उसका हमें अंदाज आता है। 

कभी-कभार हम ये तो चर्चा कर लेते है कि भई दुनिया में डायनासोर नहीं रहा तो बड़ी-बड़ी movie बनती है कि डायनासोर कैसा था, डायनासोर क्‍या करता था? जीवशास्त्र वाले देखते हैं कि कैसा था, कुछ artificial डायनासोर बनाकर रखा जाता है कि नई पीढ़ी को पता चले कि ऐसा डायनासोर हुआ करता था। यानि पहले क्या था, इसको जानने-पहचानने के लिए आज हमें इस प्रकार के मार्गों का प्रयोग करना पड़ता है। 

आज भी हमें सब दूर सुनने के लिए मिलता है कि हमारी संस्कृत भाषा में ज्ञान के भंडार भरे पड़े हैं, लेकिन संस्कृत भाषा को जानने वाले लोगों की कमी के कारण, उन ज्ञान के भंडारों का लाभ, हम नहीं ले पा रहे हैं, कारण क्या? हमें पता तक नहीं चला कि हम अपनी इस महान विरासत से धीरे-धीरे कैसे अलग होते गए, हम और चीजों में ऐसे लिप्त हो गए कि हमारा अपना लुप्त हो गया।..और इसलिए हर पीढ़ी का ये दायित्व बनता है कि उसके पास जो विरासत है, उस विरासत को सुरक्षित रखा जाए, हो सके तो संजोया जाए और आने वाली पीढियों में उसको संक्रमित किया जाए। हमारे पूर्वजों ने, वेद पाठ में एक परंपरा पैदा की थी कि वेदों के ज्ञान को पीढ़ी दर पीढ़ी ले जाने के लिए वेद-पाठी हुआ करते थे और लिखने-पढ़ने की जब सुविधा नहीं थी, कागज की जब खोज नहीं हुई थी तो उस ज्ञान को स्मृति के द्वारा दूसरी पीढ़ी में संक्रमित किया जाता था और पीढ़ियों तक, ये परंपरा चलती रही थी। और इस इतिहास को देखते हुए, ये हम सबका दायित्व है कि हमारे जितने भी प्रकार के... कि आज पता चले कि एक पंछी है, उसकी जाति लुप्त होते-होते 100-150 हो गई है तो दुनिया भर की एजेंसियां उस जाति को बचाने के लिए अरबों-खरबों रुपया खर्च कर देती हैं। कोई एक पौधा, अगर पता चले कि भई उस इलाके में एक पौधा है और बहुत ही कम specimen रह गए हैं, तो उसको बचाने के लिए दुनिया अरबों-खरबों खर्च कर देती है। इन बातों से पता चलता है कि इन चीजों का मूल्य कैसा है। जैसे इन चीजों का मूल्य है, वैसा ही भाषा का भी मूल्य है। और इसलिए जब तक हम उसे, उस रूप में नहीं देखेंगे तब तक हम उसके माहात्म्य को नहीं समझेंगे। 

हर पीढ़ी का दायित्व रहता है, भाषा को समृद्धि देना। मेरी मातृभाषा हिंदी नहीं है, मेरी मातृभाषा गुजराती है लेकिन मैं कभी सोचता हूं कि अगर मुझे हिंदी भाषा बोलना न आता, समझना न आता, तो मेरा क्या हुआ होता, मैं लोगों तक कैसे पहुंचता, मैं लोगों की बात कैसे समझता और मुझे तो व्यक्तिगत रूप में भी इस भाषा की ताकत क्या होती है, उसका भलीभांति मुझे अंदाज है और एक बात देखिए, हमारे देश में, मैं हिंदी साहित्य की चर्चा नहीं कर रहा हूं, मैं हिंदी भाषा की चर्चा कर रहा हूं। हमारे देश में हिंदी भाषा का आंदोलन किन लोगों ने चलाया, ज्यादातर हिंदी भाषा का आंदोलन उन लोगों ने चलाया है, जिनकी मातृभाषा हिंदी नहीं थी। सुभाषाचंद्र बोस हो, लोकमान्य तिलक हो, महात्मा गांधी हो, काका साहेब कालेलकर हो, राजगोपालाचार्य हो, सबने, यानि जिनका मातृभाषा हिंदी नहीं थी, उनको हिंदी भाषा के लिए, उसके संरक्षण और संवर्धन के लिए जो दीर्घ दृष्टि से उन्होंने काम किया था, ये हमें प्ररेणा देता है। और आचार्य विनोबा भावे, दादा धर्माधिकारी जी, Gandhian philosophy से निकले हुए लोग, उन्होंने यहां तक, उन्होंने भाषा को और लिपि को दोनों की अलग-अलग ताकत को पहचाना था। और इसलिए एक ऐसा रास्ता विनोबा जी के द्वारा प्रेरित विचारों से लोगों ने से डाला था कि हमें धीरे-धीरे आदत डालनी चाहिए कि हिंदुस्तान की जितनी भाषाएं हैं, वो भाषाएं अपनी लिपि को तो बरकरार रखें, उसको तो समृद्ध बनाएं लेकिन नागरी लिपि में भी अपनी भाषा लिखने की आदत डालें। शायाद विनोबा जी के ये विचार, दादा धर्माधिकारी जी का ये विचार, Gandhian मूल्यों से जुड़ा हुआ ये विचार, ये अगर प्रभावित हुआ होता तो लिपि भी, भारत की विविध भाषाओं को समझने के लिए और भारत की राष्ट्रीय एकता के लिए, एक बहुत बड़ी ताकत के रूप में उभर आई होती। 

उसी प्रकार से भाषा, हर पीढ़ी ने, देखिए भाषा... वो जड़ नहीं हो सकती, जैसे जीवन में चेतना होती है, वैसे ही भाषा में भी चेतना होती है। हो सकता है उस चेतना की अनुभूति stethoscope से नहीं जानी जाती होगी, उस चेतना की अनुभूति थर्मामीटर से नहीं नापी जाती होगी, लेकिन उसका विकास, उसकी समृद्धि, उस चेतना की अनुभूति कराती है। वो पत्थर की तरह जड़ नहीं हो सकती है, भाषा वो मचलता हुआ हवा का झोंका, जिस प्रकार से बहता है, जहां से गुजरता है, वहां की सुगंध की अपने साथ लेकर के चलता है, जोड़ता चला जाता है। अगर हवा का झोंका, बगीचे से गुजरे तो सुगंध लेकर के आता है और कहीं drainage के पास से गुजरे तो दुर्गंध लेकर के आता है, वो अपने आप में समेटता रहता है, भाषा में भी वो ताकत होती है, जिस पीढ़ी से गुजरे, जिस इलाके से गुजरे, जिस हालात से गुजरे, वो अपने आप में समाहित करती है, वो अपने आप को पुरुस्कृत करती रहती है, पुलकित रहती है, ये ताकत भाषा की होती है और इसलिए भाषा चैतन्य होती है और उस चेतना की अनुभूति आवश्यक होती है। 

पिछले दिनों जब प्रवासी भारतीय सम्मेलन हुआ था तो हमारे विदेश मंत्रालय ने एक बड़ा अनूठा कार्यक्रम रखा था कि दुनिया के अन्य देशों में, भारतीय लेखकों द्वारा लिखी गई किताबों का प्रदर्शन किया जाए और मैं हैरान भी था और मैं खुश था कि अकेले मॉरिशस से 1500 लेखकों द्वारा लिखी गई किताबें और वो भी हिंदी में लिखी गई किताबों का वहां पर प्रदर्शन हो रहा था। यानि दूर-सुदूर इतने देशों में भी हिंदी भाषा का प्यार, हम अनुभव करते हैं। हर कोई अपने आप से जुड़ने के क्या रास्ते होते हैं, कोई अगर इस भू-भाग में नहीं आ सकता है, आने के हालात नहीं होते, तो कम से कम हिंदी के दो-चार वाक्य बोलकर के भी, वो अपनी प्रतिबद्धता को व्यक्त कर देता है। 

हमारा ये निरंतर प्रयास रहना चाहिए कि हमारी हिंदी भाषा समृद्ध कैसे बने। मेरे मन में एक विचार आता है कि भाषाशास्त्री उस पर चर्चा करें। क्या कभी हम हिंदी और तमिल भाषा का workshop करें और तमिल भाषा में जो अद्धभुत शब्द हो, उसको हम हिंदी भाषा का हिस्सा बना सकते हैं क्या? हम कभी बांग्ला भाषा और हिंदी भाषा के बीच workshop करें और बांग्ला के पास, जो अद्भभुत शब्द-रचना हो, अद्भभुत शब्द हो, जो हिंदी के पास न हो क्या हम उनसे ले सकते हैं कि भई ये हमें दीजिए, हमारी हिंदी को समृद्ध बनाने के लिए इन शब्दों की हमें जरूरत है। चाहे जम्मू कश्मीर में गए, डोगरी भाषा में दो-चार ऐसे शब्द मिल जाए, दो-चार ऐसी कहावत मिल जाए, दो-चार ऐसे वाक्य मिल जाएं वो मेरी हिंदी में अगर fit होते हैं। हमें प्रयत्नपूर्वक हिंदुस्तान की सभी बोलियां, हिंदुस्तान की सभी भाषाएं, जिसमें जो उत्तम चीजें हैं, उसको हमें समय-समय पर हिंदी भाषा की समृद्धि के लिए, उसका हिस्सा बनाने का प्रयास करना चाहिए। और ये अविरत प्रक्रिया चलती रहनी चाहिए। 

भाषा का गर्व कितना होता है। मैं तो सार्वजनिक जीवन मैं काम करता हूं। कभी तमिलनाडु चला जाऊं और वाणक्कम बोल दूं, वाणक्कम और मैं देखता हूं कि पूरे तमिलनाडु में electrifying effect हो जाता है। भाषा की ये ताकत होती है। बंगाल को कोई व्यक्ति मिले और भालो आसी पूछ लिया, उसको प्रशंसा हो जाती है, कोई महाराष्ट्र का व्यक्ति मिले, कसाकाय, काय चलता है, एकदम प्रसन्न हो जाता है, भाषा की अपनी एक ताकत होती है। और इसलिए हमारे देश के पास इतनी समृद्धि है, इतनी विशेषता है, मातृभाषा के रूप में हर राज्य के पास ऐसा अनमोल खजाना है, उसको हम कैसे जोड़ें और जोड़ने में हिंदी भाषा एक सूत्रधार का काम कैसे करे, उस पर अगर हम बल देंगे, हमारी भाषा और ताकतवर बनती जाएगी और उस दिशा में हम प्रयास कर सकते हैं। 

मैं जब राजनीतिक जीवन में आया, तो पहली बार गुजरात के बाहर काम करने का अवसर मिला। हम जानते हैं कि हमारे गुजराती लोग कैसी हिंदी बोलते हैं। तो लोग मजाक भी उड़ाते हैं लेकिन मैं जब बोलता था तो लोगों मानते थे और मुझे पूछते थे कि मोदी जी आप हिंदी भाषा सीखे कहां से, आप हिंदी इतनी अच्छी बोलते कैसे हैं? अब हम तो वही पढ़े हैं, जो सामान्य रूप से पढ़ने को मिलता है, थोड़ा स्कूल में पढ़ाया जाता है, उससे ज्यादा नहीं। लेकिन मुझे चाय बेचते-बेचते सीखने का अवसर मिल गया। क्योंकि मेरे गांव में उत्तर प्रदेश के व्यापारी, जो मुंबई में दूध का व्यापार करते थे, उनके एजेंट और ज्यादतर उत्तर प्रदेश के लोग हुआ करते थे। वो हमें गांव के किसानों से भैंस लेने के लिए आया करते थे और दूध देने वाली भैंसों को वो ट्रेन के डिब्बे में मुंबई ले जाते थे और दूध मुंबई में बेचते थे और जब भैंस दूध देना बंद करती थी और फिर वो गांव में आकर के छोड़ जाते थे, उसके contract के पैसे मिलते थे। तो ज्यादातर रेलवे स्टेशन पर ये मालगाड़ी में भैंसों को लाना-ले जाने का कारोबार हमेशा चलता रहता था, उस कारोबार को ज्यादातर करने वाले लोग उत्तर प्रदेश के हुआ करते थे और मैं उनको चाय बेचने जाता था। उनको गुजराती नहीं आती थी, मुझे हिंदी जाने बिना चारा नहीं था, तो चाय ने मुझे हिंदी सिखा दी थी। 

भाषा सहजता से सीखी जा सकती है। थोड़ा सा प्रयास करें, कमियां रहती हैं, जीवन के आखिर तक कमियां रहती हैं, लेकिन आत्मविश्वास खोना नहीं चाहिए। आत्मविश्वास रहना चाहिए, कमियां होंगी, थोड़े दिन लोग हसेंगे लेकिन फिर उसमें सुधार आ जाएगा। और हमारे यहां गुजरात का तो स्वभाव था कि दो लोगों को अगर झगड़ा हो जाए, गांव के भी लोग हो, वो गुजराती में झगड़ा कर ही नहीं सकते हैं, उनको लगता है गुजराती में, झगड़े में, प्रभाव पैदा नहीं होता है, मजा नहीं आता है। जैसे ही झगड़े की शुरुआत होती है, तो वो हिंदी में अपना शुरू कर देते हैं। दोनों गुजराती हैं, दोनों गुजराती भाषा जानते हैं, लेकिन अगर ऑटोरिक्‍शा वालों से भी झगड़ा हो गया, पैसों का, तो तू-तू मैं-मैं हिंदी में शुरू हो जाती है। उसको लगता है कि हां हिंदी बोलूंगा, तो उसको लगेगा हां ये कोई दम वाला आदमी है। 

मैं इन दिनों विदेश में जहां मेरा जाना हुआ, मैंने देखा है कि दुनिया में विदेश का कैसा प्रभाव हो रहा है और कैसे लोग विदेश में हमारी बातों को समझ रहे हैं, स्‍वीकार कर रहे हैं। मैं गया था, मॉरीशस। वहां पर विश्‍व हिंदी साहित्‍य का secretariat अब शुरू हुआ है। उसके मकान का शिलान्‍यास किया है और विश्व हिंदी साहित्य का एक center वहां पर, हम शुरू कर रहे हैं। उसी प्रकार से मैं उज्बेकिस्तान गया था, Central Asia में, उजबेकिस्तान में एक Dictionary को लोकापर्ण करने का मुझे अवसर मिला और वो Dictionary थी, Uzbek to Hindi, Hindi to Uzbek, अब देखिए दुनिया के लोगों का कितना इसका आकर्षण हो रहा है। मैं Fudan University में गया चीन में, वहां पर हिंदी भाषा के जानने वाले लोगों का एक अलग meeting हुआ और वो इतना बढ़िया से हिंदी भाषा में लोग, मेरे से बात कर रहे थे यानि उनको भी लगता था कि इसका माहात्म्य कितना है। मंगोलिया में गया, अब कहां मंगोलिया है, लेकिन मंगोलिया में भी हिंदी भाषा का आकर्षण, हिंदी बोलने वाले लोग, ये वहां हमें नजर आए और मेरा जो एक भाषण हुआ, वो हिंदी में हुआ, उसका भाषांतर हो रहा था लेकिन मैं देख रहा था कि मैं हिंदी में बोलता था, जहां तालियां बजानी थी, वो बजा लेते थे, जहां हंसना था, वो हंस लेते थे। यानि इतनी बड़ी मात्रा में दुनिया के अलग-अलग देशों में हमारी भाषा पहुंची हुई है और लोगों को उसका एक गर्व होता है। मैं Russia गया था, Russia में इतना काम हो रहा है हिंदी भाषा पर, आपको Russia भाषा में, आप जाएंगो तो सरकार की तरफ से इतना attendant रखते हैं, हिंदी भाषी Russian नागरिक को रखते हैं। 

यानि इतनी बड़ी मात्रा में वहां हिंदी भाषा और हमारी सिने जगत ने, Film industry ने करीब-करीब इन देशो में फिल्मों के द्वारा हिंदी को पहुंचाने का काम किया है। Central Asia में तो शायद आज भी बच्चे हिंदी फिल्मों के गीत गाते हैं। कहने का तात्पर्य ये है कि भाषा के रूप में आने वाले दिनों में हिंदी भाषा का माहात्म्य बढ़ने वाला है। जो भाषा शास्त्री है, उनका मत है कि दुनिया में करीब-करीब 6000 भाषाएं हैं और जिस प्रकार से दुनिया तेजी से बदल रही है, उन लोगों का अनुमान है कि 21वीं सदी का अंत आते-आते इन 6000 भाषाओं में से 90 प्रतिशत भाषाओं का लुप्त होने की संभावनाएं दिखाई दे रही हैं, ये भाषा शास्त्रियों ने चिंता व्यक्ति की है कि छोटे-छोटे तबके के लोगों की जो भाषाएं हैं और भाषाओं का प्रभाव और requirement बदलती जाती है, technology का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। विश्व की 6000 भाषाएं हैं, उसमें से 21वीं सदी आते-आते 90 प्रतिशत भाषाओं के लुप्त होने की संभावना हैं। अगर ये चेतावनी को हम न समझें और हम हमारी भाषा का संवर्धन और संरक्षण न करें तो फिर हमें भी रोते रहना पड़ेगा। हां भाई डायनासोर ऐसा हुआ करता था, फलांनी चीज ऐसी हुआ करती थी, वेद के पाठ ऐसे हुआ करते थे, हमारे लिए वो archaeology का विषय बन जाएगा, हमारी वो ताकत खो देगा और इसलिए हमारा दायित्व बनता है कि हम हमारी भाषा को कैसे समृद्ध बनाएं और चीजों को जोड़ें, भाषा के दरवाजे बंद नहीं किए जा सकते हैं और जब-जब उसको एक दीवारों के अंदर समेट दिया गया तो भाषा भी बची नहीं और भारत भाषा-समृद्ध भी नहीं बनेगा। भाषा में वो ताकत होनी चाहिए जो हर चीजों को अपने आप में समेट ले और समेटना का उसका प्रयास होता रहना चाहिए और उस दिशा में होता है। 

विश्व में इन चीजों का असर कैसा होता है। कुछ समय पहले इजराइल का जैसे हमारे यहां नवरात्रि का festival होता है या दीपावली का festival होता है। वैसे उनका एक बड़ा महत्‍वपूर्ण festival होता है, Hanukkah। तो मैंने इजराइल के प्रधानमंत्री को social media के द्वारा twitter पर हिब्रू भाषा में Hanukkah की बधाई दी। तीन-चार घंटे के भीतर-भीतर इजराइल के प्रधानमंत्री ने इसको acknowledge किया और जवाब दिया और मेरे लिए खुशी की बात थी कि मैंने हिब्रू भाषा में लिखा था, उन्‍होंने हिंदी भाषा में धन्‍यवाद का जवाब दिया। 

इन दिनों दुनिया के जिन भी देशों से मुझे मिलने का होता है, वो एक बात अवश्‍य बोलते हैं सबका साथ, सबका विकास। उनकी टूटी-फूटी भाषा उनके उच्‍चार करने का तरीका कुछ भी हो, लेकिन सबका साथ, सबका विकास। ओबामा मिलेंगे तो वो भी बोलेंगे, पुतिन मिलेंगे तो वो भी बोलेंगे। कोशिश करते हैं हम अगर हमारी बातों को लेकर के जाते हैं, तो दुनिया इसको स्‍वीकार करने के लिए तैयार होती है। 

और इसलिए हमारी कोशिश होनी चाहिए कि हमारी भाषा को समृद्धि मिले, हमारी भाषा को ताकत मिले और भाषा के साथ ज्ञान का और अनुभव का भंडार भी होता है। अगर हम हिन्‍दी भी भूल जाते और रामचरितमानस को भी भूल जाते हैं तो हम, जैसे बिना जड़ के एक पेड़ की तरह खड़े होते। हमारी हालत क्‍या हो गई होती। हमारे जो साहित्‍य के महापुरुष हैं, अगर आप बिहार के फणीश्‍वरनाथ रेणु, उनको न पढ़े तो पता नहीं चलता कि उन्‍होंने बिहार में गरीबी को किस रूप में देखा था और उस गरीबी के संबंध में उनकी क्‍या सोच थी। हम प्रेमचंद को न पढ़े, तो पता तक नहीं चलता कि हम यू सोंचे कि हमारे ग्रामीण जीवन के aspirations क्‍या थी और values के लिए अपनी आशा-आकांक्षाओं को बलि चढ़ाने का कैसा सार्वजनिक जीवन का स्‍वभाव था। जयशंकर प्रसाद हो, मैथिलीशरण गुप्‍त हो, इसी धरती के संतान, क्‍या कुछ नहीं देकर गए हैं। लेकिन उन महापुरुषों ने तो हमारे लिए बहुत कुछ किया। साहित्‍य सृजनों ने जीवन में एक कोने में बैठकर के मिट्टी का दीया, तेल का दीया जला-जला करके, अपनी आंखों को भी खो दिया और हमारे लिए कुछ न कुछ छोड़कर गए। लेकिन अगर वो भाषा ही नहीं बची तो इतना बड़ा साहित्‍य कहां बचेगा, इतना बड़ा अनुभव का भंडार कहां बचेगा? और इसलिए भाषा के प्रति लगाव भाषा को समृद्ध बनाने के लिए होना चाहिए। भाषा को बंद दायरे में सिमटकर रह जाए, इसलिए नहीं होना चाहिए। 

आने वाले दिनों में Digital world हम सबके जीवन में एक सबसे बड़ा role पैदा कर रहा है और करने वाला है। बाप-बेटा भी आजकल, पति-पत्‍नी भी Whatsapp पर message convey करते हैं। Twitter पर लिखते हैं कि शाम को क्‍या खाना खाना है। इतने हद तक उसने अपना प्रवेश कर लिया है। जो technology का जानकार है, उनका कहना है कि आने वाले दिनों में Digital world में तीन भाषाओं का दबदबा रहने वाला है - अंग्रेजी, चाइनीज़, हिन्‍दी। और जो भी technology से जुड़े हुए हैं उन सबका दायित्‍व बनता है कि हम भारतीय भाषाओं को भी और हिन्‍दी भाषा को भी technology के लिए किस प्रकार से परिवर्तित करे। जितना तेजी से इस क्षेत्र में काम करने वाले experts हमारी स्‍थानीय भाषाओं से लेकर के हिन्‍दी भाषा तक नए software तैयार करके, नए Apps तैयार करके जितनी बड़ी मात्रा में लाएंगे। आप देखिए, ये अपने आप में भाषा एक बहुत बड़ा market बनने वाली है। किसी ने सोचा नहीं होगा कि भाषा एक बहुत बड़ा बाजार भी बन सकती है। आज बदली हुई technology की दुनिया में भाषा अपने आप में एक बहुत बड़ा बाजार बनने वाली है। हिन्‍दी भाषा का उसमें एक माहात्म्य रहने वाला है और जब मुझे हमारे अशोक चक्रधर मिले अभी किताब लेकर के उनकी, तो उन्‍होंने मुझे खास आग्रह से कहा कि मैंने most modern technology Unicode में इसको तैयार किया है। मुझे खुशी हुई कि हम जितना हमारी इस रचनाओं को और हमारे Digital World को, इंटरनेट को हमारी इन भाषाओं से परिचित करवाएंगे और भाषा के रूप में लाएंगे, हमारा प्रसार भी बहुत तेजी से होगा, हमारी ताकत भी बहुत तेजी से बढ़ेगी और इसलिए भाषा का उस रूप में उपयोग होना चाहिए। 

भाषा अभिव्‍यक्‍ति का साधन होती है। हम क्‍या संदेश देना चाहते हैं, हम क्‍या बात पहुंचाना चाहते हैं, भाषा एक अभिव्‍यक्‍ति का माध्‍यम होती है। हमारी भावनाओं को जब शब्‍द-देह मिलता है, तो हमारी भावनाएं चिरंजीव बन जाती है। और इसलिए भाषा उस शब्‍द-देह का आधार होता है। उन शब्‍द-विश्‍व की जितनी हम आराधना करे, उतनी कम है। 

और आज का ये हिन्‍दी का महाकुंभ विश्‍व के 39 देशों की हाजिरी में और भोपाल की धरती पर जिसने हिन्‍दी भाषा को समृद्ध बनाने में बहुत बड़ा योगदान किया है और अन्‍य भाषाएं जहां शुरू होती हैं, इसके किनारे पर हम बैठे हैं, उस प्रकार से भी ये स्‍थान का बड़ा महत्‍व है। हम किस प्रकार से सबको समेटने की दिशा में सोंचे। हमारी भाषा की भक्‍ति ऐसी भी न हो कि जो exclusive हो। हमारी भाषा की भक्‍ति भी inclusive होनी चाहिए, हर किसी को जोड़ने वाली होनी चाहिए। तभी जाकर के, तभी जाकर के वो समृद्धि की ओर बढ़ेगी, वरना हर चीज नाकाम हो जाती है। जब तक... जब तक ये मोबाइल फोन नहीं आए थे और मोबाइल फोन में जब तक कि contact list की, directory की व्‍यवस्‍था नहीं थी तब तक हम सबको, किसी को 20 टेलीफोन नंबर याद रहते थे, कभी किसी को 50 टेलीफोन नंबर याद रहते थे, किसी को 200 टेलीफोन नंबर याद रहते थे। आज technology आने के बाद, हमें अपने घर का टेलीफोन नंबर भी याद नहीं है। तो चीजों के लुप्‍त होने में देर नहीं होती है और जब ये इतनी बड़ी technology आ रही है तब चीजों को लुप्‍त होने से बचाने के लिए हमें बहुत consciously practice करनी होगी। ...इसलिए उन्हें अपने पास लाए, उससे सीखे, उसके समझे और समृद्धि की दिशा में बढ़ करके, उसको और ताकतवर बनाकर के हम दुनिया के पास ले जाएं, तो बहुत बड़ी सेवा होगी। 

मैं फिर एक बार इस समारोह को मेरे हृदय से शुभकामनाएं देता हूं और जैसा सुषमा जी ने विश्‍वास दिलाया है कि हम एक निश्‍चित outcome लेकर के निकलेंगे और अगला जब विश्‍व हिन्‍दी सम्‍मेलन होगा तब हम धरातल पर कुछ परिवर्तन लाकर के रहेंगे, ये विश्‍वास एक बहुत बड़ी ताकत देगा। 

इसी एक अपेक्षा के साथ मेरी इस समारोह को बहुत-बहुत शुभकामनाएं, बहुत-बहुत धन्‍यवाद। 

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वि हि स में सुषमा स्वराज का संबोधन - भारत-दर्शन संकलन

सितम्बर 10, 2015
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हिंदी हमारे जीवन मूल्यों, संस्कृति एवं संस्कारों की सच्ची संवाहक एवं संप्रेषक - राजनाथ सिंह

एक भाषा के रूप में हिंदी न सिर्फ भारत की पहचान है बल्कि यह भाषा हमारे जीवन मूल्यों, संस्कृति एवं संस्कारों की सच्ची संवाहक, संप्रेषक और परिचायक भी है। जब विश्व के 177 देशों की मान्यता के साथ 21 जून को विश्व योग दिवस के रूप में अपनाया जा सकता है तो हिंदी भाषा को भी संयुक्त राष्ट्र संघ की अधिकृत भाषाओं की सूची में शामिल क्यों नहीं किया जा सकता जबकि इसके लिए तो सिर्फ 127 देशों के समर्थन की ही आवश्यकता है। यह बात केंद्रीय गृह मंत्री श्री राजनाथ सिंह ने आज भोपाल में दसवें विश्व हिंदी सम्मेलन के समापन के अवसर पर कही।
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दुर्लभ पांडुलिपियां - भारत-दर्शन संकलन

विश्व हिंदी सम्मेलन के अंतर्गत 'कल, आज और कल' प्रदर्शनी में 400 वर्ष पुरानी दुर्लभ पांडुलिपियां भी प्रदर्शित की गईं। इन पांडुलिपियों में 18 ग्रंथ सम्मिलित थे जिनमें श्रीमद्भगवद गीता मुख्य थी। श्रीमद्भगवद गीता की पांडुलिपि के 415 में से 24 पृष्ठ सोने के पानी से लिखे गए हैं। प्राकृतिक रंगों और सोने के पानी से छह दुर्लभ चित्र भी पांडुलिपि में उकेरे गए हैं।
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विश्‍व हिन्‍दी सम्‍मेलन प्रेस वार्ता - भारत-दर्शन संकलन

अगस्त 31, 2015
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न्यूज़ीलैंड में हिन्दी पठन-पाठन - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

यूँ तो न्यूज़ीलैंड कुल 40 लाख की आबादी वाला छोटा सा देश है, फिर भी हिंदी के मानचित्र पर अपनी पहचान रखता है। पंजाब और गुजरात के भारतीय न्यूज़ीलैंड में बहुत पहले से बसे हुए हैं किन्तु 1990 के आसपास बहुत से लोग मुम्बई, देहली, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, हरियाणा इत्यादि राज्यों से आकर यहां बस गए। फिजी से भी बहुत से भारतीय राजनैतिक तख्ता-पलट के दौरान यहां आ बसे। न्यूज़ीलैंड में फिजी भारतीयों की अनेक रामायण मंडलियाँ सक्रिय हैं। यद्यपि फिजी मूल के भारतवंशी मूल रुप से हिंदी न बोल कर हिंदुस्तानी बोलते हैं तथापि यथासंभव अपनी भाषा का ही उपयोग करते हैं। उल्लेखनीय है कि फिजी में गुजराती, मलयाली, तमिल, बांग्ला, पंजाबी और हिंदी भाषी सभी भारतवंशी लोग हिंदी के माध्यम से ही जुड़े हुए हैं।
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न्यूज़ीलैंड की हिंदी पत्रकारिता - रोहित कुमार 'हैप्पी'

यूँ तो न्यूजीलैंड में अनेक पत्र-पत्रिकाएँ समय-समय पर प्रकाशित होती रही हैं। सबसे पहला प्रकाशित पत्र था 'आर्योदय' जिसके संपादक थे श्री जे के नातली, उप संपादक थे श्री पी वी पटेल व प्रकाशक थे श्री रणछोड़ के पटेल। भारतीयों का यह पहला पत्र 1921 में प्रकाशित हुआ था परन्तु यह जल्दी ही बंद हो गया।
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धनतेरस | धनतेरस का पौराणिक महत्व - भारत-दर्शन संकलन

कार्तिक मास में त्रयोदशी का विशेष महत्व है, विशेषतः व्यापारियों और चिकित्सा एवं औषधि विज्ञान के लिए यह दिन अति शुभ माना जाता है।
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अदम गोंडवी के जन्मदिन पर विशेष - अजीत कुमार सिंह

भारत को आजाद हुए 2 माह ही बीता था, लोगों में आजादी के जश्न की खुमारी छायी हुई थी। चारों तरफ आजाद भारत की चर्चाएँ हो रही थीं। कहीं-कहीं पर रह-रह कर उत्सव भी मनाये जा रहे थे। इन्हीं उत्सवों के मध्य एक उत्सव गोण्डा के आटा ग्राम में 22 अक्टूबर, 1947 को मनाया गया, जिसका मुख्य कारण राम सिंह का जन्म था।
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