भारत की परंपरागत राष्ट्रभाषा हिंदी है। - नलिनविलोचन शर्मा।
कहानियां
कहानियों के अंतर्गत यहां आप हिंदी की नई-पुरानी कहानियां पढ़ पाएंगे जिनमें कथाएं व लोक-कथाएं भी सम्मिलित रहेंगी। पढ़िए मुंशी प्रेमचंद, रबीन्द्रनाथ टैगोर, भीष्म साहनी, मोहन राकेश, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, फणीश्वरनाथ रेणु, सुदर्शन, कमलेश्वर, विष्णु प्रभाकर, कृष्णा सोबती, यशपाल, अज्ञेय, निराला, महादेवी वर्मालियो टोल्स्टोय की कहानियां

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होली | कहानी - सुभद्रा कुमारी

"कल होली है।"
"होगी।"

"क्या तुम न मनाओगी?"
"नहीं।"

''नहीं?''
''न ।''
'''क्यों? ''
''क्या बताऊं क्यों?''
''आखिर कुछ सुनूं भी तो ।''
''सुनकर क्या करोगे? ''
''जो करते बनेगा ।''
''तुमसे कुछ भी न बनेगा ।''
''तो भी ।''
''तो भी क्या कहूँ?
"क्या तुम नहीं जानते होली या कोई भी त्योहार वही मनाता है जो सुखी है । जिसके जीवन में किसी प्रकार का सुख ही नहीं, वह त्योहार भला किस बिरते पर मनावे? ''
''तो क्या तुमसे होली खेलने न आऊं? ''
''क्या करोगे आकर?''
सकरुण दृष्टि से करुणा की ओर देखते हुए नरेश साइकिल उठाकर घर चल
दिया । करुणा अपने घर के काम-काज में लग गई ।
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जैसा राम वैसी सीता | कहानी - सपना मांगलिक

आज फिर स्कूल जाते वक्त बिन्दिया दिखाई पड गयी । ना जाने क्यों यह विन्दिया जब तब मेरे सामने आ ही जाती है । शायद 'लॉ ऑफ़ रिवर्स इफेक्ट' मनुष्यों पर कुछ ज्यादा लागू होता है जिस आदमी से हम कन्नी काटना चाहते हैं या जिसे देखने मात्र से मन ख़राब हो जाता है वही अकसर आपके सामने आकर खड़ा हो जाता है । हालाँकि बिंदिया ने कभी मेरे साथ कुछ गलत नहीं किया है बल्कि सामने पड़ते ही हमेशा नमस्ते मास्टरजी कहकर मेरा अभिवादन ही करती है । फिर भी उसकी दिलफेंक अदा, द्विअर्थी बातें और पुरुषों के साथ उन्मुक्त हास परिहास नारीत्व की गरिमा के अनुरूप कतई नहीं कहा जा सकता । मोहल्ले के लोग उसे चरित्रहीन ही समझते थे और वही विचार मेरा भी था । हालांकि मेरे अन्दर का शिक्षक और दार्शनिक मानव को उसूलों और रिवाजों की कसौटी पर मापने के लिए मुझे धिक्कारता था मगर दिमाग की प्रोग्रामिंग तो बचपन से डाले गए संस्कारों से हो गयी थी । जैसे कम्प्यूटर को प्रोग्राम किया जाता है वह वैसे ही निर्देशों का पालन करता है ठीक उसी प्रकार मानव मस्तिष्क है ।
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होली बाद नमाज़  - क़ैस जौनपुरी | कहानी

अहद एक मुसलमान है। मुसलमान इसिलए क्योंकि वो एक मुस्लिम परिवार में पैदा हुआ है। हाँ, ये बात अलग है कि 'वो' कभी इस बात पर जोर नहीं देता है कि वो मुसलमान है। वो मुसलमान है तो है। क्या फर्क पड़ता है? और क्या जरूरत है ढ़िंढ़ोरा पीटने की? वो कभी इन बातों पर गौर नहीं करता है। लेकिन उसके गौर न करने से क्या होता है? लोग तो हैं? और लोग तो गौर करते हैं और लोग अहद की हरकतों पर भी गौर करते हैं।
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धूप का एक टुकड़ा | कहानी - निर्मल वर्मा | Nirmal Verma

क्या मैं इस बेंच पर बैठ सकती हूँ? नहीं, आप उठिए नहीं - मेरे लिए यह कोना ही काफी है। आप शायद हैरान होंगे कि मैं दूसरी बेंच पर क्यों नहीं जाती? इतना बड़ा पार्क - चारों तरफ खाली बेंचें - मैं आपके पास ही क्यों धँसना चाहती हूँ? आप बुरा न मानें, तो एक बात कहूँ - जिस बेंच पर आप बैठे हैं, वह मेरी है। जी हाँ, मैं यहाँ रोज बैठती हूँ। नहीं, आप गलत न समझें। इस बेंच पर मेरा कोई नाम नहीं लिखा है। भला म्यूनिसिपैलिटी की बेंचों पर नाम कैसा? लोग आते हैं, घड़ी-दो घड़ी बैठते हैं, और फिर चले जाते हैं। किसी को याद भी नहीं रहता कि फलाँ दिन फलाँ आदमी यहाँ बैठा था। उसके जाने के बाद बेंच पहले की तरह ही खाली हो जाती है। जब कुछ देर बाद कोई नया आगंतुक आ कर उस पर बैठता है, तो उसे पता भी नहीं चलता कि उससे पहले वहाँ कोई स्कूल की बच्ची या अकेली बुढ़िया या नशे में धुत्त जिप्सी बैठा होगा। नहीं जी, नाम वहीं लिखे जाते हैं, जहाँ आदमी टिक कर रहे - तभी घरों के नाम होते हैं, या फिर क़ब्रों के - हालाँकि कभी-कभी मैं सोचती हूँ कि क़ब्रों पर नाम भी न रहें, तो भी खास अंतर नहीं पड़ता। कोई जीता-जागता आदमी जान-बूझ कर दूसरे की क़ब्र में घुसना पसंद नहीं करेगा!
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होली का मज़ाक | यशपाल की कहानी  - यशपाल | Yashpal

'बीबी जी, आप आवेंगी कि हम चाय बना दें!'' किलसिया ने ऊपर की मंज़िल की रसोई से पुकारा।
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होली की छुट्टी - मुंशी प्रेमचंद | Munshi Premchand

वर्नाक्युलर फ़ाइनल पास करने के बाद मुझे एक प्राइमरी स्कूल में जगह मिली, जो मेरे घर से ग्यारह मील पर था। हमारे हेडमास्टर साहब को छुट्टियों में भी लड़कों को पढ़ाने की सनक थी। रात को लड़के खाना खाकर स्कूल में आ जाते और हेडमास्टर साहब चारपाई पर लेटकर अपने खर्राटों से उन्हें पढ़ाया करते। जब लड़कों में धौल-धप्पा शुरु हो जाता और शोर-गुल मचने लगता तब यकायक वह खरगोश की नींद से चौंक पड़ते और लड़को को दो- चार तकाचे लगाकर फिर अपने सपनों के मजे लेने लगते। ग्यायह-बारह बजे रात तक यही ड्रामा होता रहता, यहां तक कि लड़के नींद से बेक़रार होकर वहीं टाट पर सो जाते। अप्रैल में सलाना इम्तहान होनेवाला था, इसलिए जनवरी ही से हाय-तौ बा मची हुई थी। नाइट स्कूलों पर इतनी रियायत थी कि रात की क्लासों में उन्हें न तलब किया जाता था, मगर छुट्टियां बिलकुल न मिलती थीं। सोमवती अमावस आयी और निकल गयी, बसन्त आया और चला गया,शिवरात्रि आयी और गुजर गयी। और इतवारों का तो जिक्र ही क्या है। एक दिन के लिए कौन इतना बड़ा सफ़र करता, इसलिए कई महीनों से मुझे घर जाने का मौका न मिला था। मगर अबकी मैंने पक्का इरादा कर लिया था कि होली परर जरुर घर जाऊंगा, चाहे नौकरी से हाथ ही क्यों न धोने पड़ें। मैंने एक हफ्ते पहले से ही हेडमास्टर साहब को अल्टीमेटम दे दिया कि २० मार्च को होली की छुट्टी शुरु होगी और बन्दा १९ की शाम को रुखसत हो जाएगा। हेडमास्टर साहब ने मुझे समझाया कि अभी लड़के हो, तुम्हें क्या मालूम नौकरी कितनी मुश्किलों से मिलती है और कितनी मुश्किपलों से निभती है, नौकरी पाना उतना मुश्किल नहीं जितना उसको निभाना। अप्रैल में इम्तहान होनेवाला है, तीन-चार दिन स्कूल बन्द रहा तो बताओ कितने लड़के पास होंगे ? साल-भर की सारी मेहनत पर पानी फिर जाएगा कि नहीं ? मेरा कहना मानो, इस छुट्टी में न जाओ, इम्तसहान के बाद जो छुट्टी पड़े उसमें चले जाना। ईस्टर की चार दिन की छुट्टी होगी, मैं एक दिन के लिए भी न रोकूंगा।
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रसप्रिया - फणीश्वरनाथ रेणु | Phanishwar Nath 'Renu'

धूल में पड़े कीमती पत्थर को देख कर जौहरी की आँखों में एक नई झलक झिलमिला गई - अपरूप-रूप!
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मेजर चौधरी की वापसी - अज्ञेय | Ajneya

किसी की टाँग टूट जाती है, तो साधारणतया उसे बधाई का पात्र नहीं माना जाता। लेकिन मेजर चौधरी जब छह सप्ताह अस्पताल में काटकर बैसाखियों के सहारे लडख़ड़ाते हुए बाहर निकले, तो बाहर निकलकर उन्होंने मिज़ाजपुर्सी के लिए आए अफसरों को बताया कि उनकी चार सप्ताह की 'वारलीव' के साथ उन्हें छह सप्ताह की 'कम्पैशनेट लीव' भी मिली है, और उसके बाद ही शायद कुछ और छुट्टी के अनंतर उन्हें सैनिक नौकरी से छुटकारा मिल जाएगा, तब सुननेवालों के मन में अवश्य ही ईष्र्या की लहर दौड़ गई थी क्योंकि मोकोक्चङ् यों सब-डिवीजन का केन्द्र क्यों न हो, वैसे वह नगा पार्वत्य जंगलों का ही एक हिस्सा था, और जोंक, दलदल, मच्छर, चूती छतें, कीचड़ फर्श, पीने को उबाला जाने पर भी गँदला पानी और खाने को पानी में भिगोकर ताजा किये गए सूखे आलू-प्याज- ये सब चीज़ें ऐसी नहीं हैं कि दूसरों के सुख-दु:ख के प्रति सहज औदार्य की भावना को जागृत करें!
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