अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
गीत

गीतों में प्राय: श्रृंगार-रस, वीर-रस व करुण-रस की प्रधानता देखने को मिलती है। इन्हीं रसों को आधारमूल रखते हुए अधिकतर गीतों ने अपनी भाव-भूमि का चयन किया है। गीत अभिव्यक्ति के लिए विशेष मायने रखते हैं जिसे समझने के लिए स्वर्गीय पं नरेन्द्र शर्मा के शब्द उचित होंगे, "गद्य जब असमर्थ हो जाता है तो कविता जन्म लेती है। कविता जब असमर्थ हो जाती है तो गीत जन्म लेता है।" आइए, विभिन्न रसों में पिरोए हुए गीतों का मिलके आनंद लें।

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सृजन-सिपाही - श्रवण राही

लेखनी में रक्त की भर सुर्ख स्याही
काल-पथ पर भी सृजन के हम सिपाही,
तप्त अधरों पर मिलन की प्यास लिखते हैं
हम धरा की देह पर आकाश लिखते हैं
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मन की आँखें खोल - सुदर्शन | Sudershan

बाबा, मन की आँखें खोल!
दुनिया क्या है खेल-तमाशा,
चार दिनों की झूठी आशा,
पल में तोला, पल में माशा,
ज्ञान-तराजू लेके हाथ में---
तोल सके तो तोल। बाबा, मनकी आँखें खोल!

झूठे हैं सब दुनियावाले,
तन के उजले मनके काले,
इनसे अपना आप बचा ले,
रीत कहाँ की प्रीत कहाँ की---
कैसा प्रेम-किलोल। बाबा, मनकी आँखें खोल!
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मोल करेगा क्या तू मेरा? - भगवद्दत ‘शिशु'

मोल करेगा क्या तू मेरा?
मिट्‌टी का मैं बना खिलौना;
मुझे देख तू खुशमत होना ।
कुछ क्षण हाथों का मेहमां हूं, होगा फिर मिट्‌टी में डेरा ।
मोल करेगा क्या तू मेरा ?
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मजदूर की पुकार  - अज्ञात

हम मजदूरों को गाँव हमारे भेज दो सरकार
सुना पड़ा घर द्वार
मजबूरी में हम सब मजदूरी करते हैं
घरबार छोड़ करके शहारों में भटकते हैं
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अहम की ओढ़ कर चादर - अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'

अहम की ओढ़ कर चादर
फिरा करते हैं हम अक्सर
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प्रिय तुम्हारी याद में  - शारदा कृष्ण

प्रिय तुम्हारी याद में यह दर्द का अभिसार कैसा,
आँसुओं के हार से ही प्रीत का सम्मान कैसा!
प्रेम का प्रतिदान कैसा!
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धीरे-धीरे प्यार बन गई - नर्मदा प्रसाद खरे

जाने कब की देखा-देखी, धीरे-धीरे प्यार बन गई
लहर-लहर में चाँद हँसा तो लहर-लहर गलहार बन गई
स्वप्न संजोती सी वे आँखें, कुछ बोलीं, कुछ बोल न पायीं
मन-मधुकर की कोमल पाखें, कुछ खोली, कुछ खोल न पायीं
एक दिवस मुसकान-दूत जब प्रणय पत्रिका लेकर आया
ज्ञात नहीं, तब उस क्षण मैंने, क्या-क्या खोया, क्या-क्या पाया
क्षण भर की मुसकान तुम्हारी, जीवन का आधार बन गई।
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