प्रत्येक नगर प्रत्येक मोहल्ले में और प्रत्येक गाँव में एक पुस्तकालय होने की आवश्यकता है। - (राजा) कीर्त्यानंद सिंह।
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गिरमिट के समय  - कमला प्रसाद मिश्र | फीजी | Kamla Prasad Mishra

दीन दुखी मज़दूरों को लेकर था जिस वक्त जहाज सिधारा
चीख पड़े नर नारी, लगी बहने नयनों से विदा-जल-धारा
भारत देश रहा छूट अब मिलेगा इन्हें कहीं और सहारा
फीजी में आये तो बोल उठे सब आज से है यह देश हमारा
...

अपील - लक्ष्मी शंकर वाजपेयी

दुनिया भर की सारी धार्मिक किताबों ने,
एक सामूहिक अपील जारी की है…
कि हम आपकी श्रद्धा और सम्मान के लिए 
हृदय से आभारी हैं…
लेकिन काश आप हमें पूजने की बजाय
पढ़ लेते!
पढ़ने के साथ-साथ समझ लेते… 
समझने के साथ-साथ
अपने जीवन में उतार लेते…
अंत में बड़ी याचना से लिखा है… 
हमें हमारा स्वाभाविक परिवेश लौटायें
हमें पूजाघरों से मुक्ति दिलाएं!!!
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माँ अमर होती है, माँ मरा नहीं करती - आराधना झा श्रीवास्तव

माँ अमर होती है,
माँ मरा नहीं करती।
माँ जीवित रखती है
पीढ़ी दर पीढ़ी
परिवार, परंपरा, प्रेम और
पारस्परिकता के उस भाव को
जो समाज को गतिशील रखता है
उससे पहिए को खींच निकालता है
परिस्थिति की दलदल से बाहर।
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चतुष्पदियाँ  - त्रिलोचन

स्वर के सागर की बस लहर ली है 
और अनुभूति को वाणी दी है 
मुझ से तू गीत माँगता है क्यों 
मैं ने दुकान क्या कोई की है 
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कुछ मुक्तक  - भारत-दर्शन संकलन

सभी को इस ज़माने में सभी हासिल नहीं मिलता
नदी की हर लहर को तो सदा साहिल नहीं मिलता
ये दिलवालो की दुनिया है अजब है दास्तां इसकी
कोई दिल से नहीं मिलता, किसी से दिल नहीं मिलता
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तुलसी के प्रति  - रामप्रसाद मिश्र 
ओ महाकवे ! क्‍या कहें तुम्हें, 
ऋषि? स्रष्टा? द्रष्ठा? महाप्राण? 
अपनी पानवतम वाणी से 
तुम करते संस्कृति-परित्राण । 
मेरी संस्कृति के विश्वकोश 
के निर्माता जनकवि उदार, 
ओ भाषा के सम्राट, राष्ट्र 
के गर्व, भक्तिपीयूषधार ! 
अचरज होता, तुम मानव थे, 
तन में था यह ही अस्थि-चाम ! 
ओ अमर संस्कृति के गायक 
तुलसी ! तुमको शत-शत प्रणाम । 

कितने कृपालु तुम हम पर थे, 
जनवाणी में गायन गाए ! 
सद्ज्ञान, भक्ति औ' कविता के 
सब रस देकर मन सरसाए। 
मानवता की सीमाओं को 
दिखलाया अपने पात्रों में, 
ब्रह्मत्व भर दिया महाकवे ! 
तुमने मानव के गात्रों में। 
वसुधा पर स्वर्ग उतार दिया 
मेरे स्रष्टा, ओ आप्तकाम ! 
ओ अमर संकृति के गायक 
तुलसी! तुमको शत शत प्रणाम । 

-रामप्रसाद मिश्र 
धर्मयुग, जुलाई 1958 
[इसमें रचयिता का नाम आनंदशंकर लिखा था। रामप्रसाद मिश्र उन दिनों आनंदशंकर नाम से लिखते थे।]
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मेरे हिस्से का आसमान - प्रो॰ बीना शर्मा

मेरे हिस्से का आसमान
कुछ ज्यादा ही ऊँचा हो गया है,
और मैं बावरी बार-बार
उस ऊँचाई तक पहुँचने में
अपनी सारी ताकत लगा देती हूँ। 
नहीं आ पाता आसमान का वह टुकड़ा
मेरे हाथ,
मालूम चला है
वह पहले से ही झपट लिया गया है,
अवसरवादियों और खुशामदियों के द्वारा
और अब मैंने आसमान की बुलंदियों को छोड़
अपनी जमीन पर ही बने रहने का फैसला ले लिया है। 
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मैं लड़ूँगा - डॉ. सुशील शर्मा

मैं लड़ूँगा यह युद्ध
भले ही तुम कुचल दो
मेरा अस्तित्व।
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