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काव्य |
जब ह्रदय अहं की भावना का परित्याग करके विशुद्ध अनुभूति मात्र रह जाता है, तब वह मुक्त हृदय हो जाता है। हृदय की इस मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आई है उसे काव्य कहते हैं। कविता मनुष्य को स्वार्थ सम्बन्धों के संकुचित घेरे से ऊपर उठाती है और शेष सृष्टि से रागात्मक संबंध जोड़ने में सहायक होती है। काव्य की अनेक परिभाषाएं दी गई हैं। ये परिभाषाएं आधुनिक हिंदी काव्य के लिए भी सही सिद्ध होती हैं। काव्य सिद्ध चित्त को अलौकिक आनंदानुभूति कराता है तो हृदय के तार झंकृत हो उठते हैं। काव्य में सत्यं शिवं सुंदरम् की भावना भी निहित होती है। जिस काव्य में यह सब कुछ पाया जाता है वह उत्तम काव्य माना जाता है। |
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माँ पर हाइकु - अभिषेक जैन |
मैया का आया |
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सबको लड़ने ही पड़े : दोहे - ज़हीर कुरैशी |
बहुत बुरों के बीच से, करना पड़ा चुनाव । |
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सृजन-सिपाही - श्रवण राही |
लेखनी में रक्त की भर सुर्ख स्याही |
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नीति के दोहे - कबीर, तुलसी व रहीम |
कबीर के नीति दोहे
साई इतना दीजिए, जामे कुटुम समाय । |
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गिरमिट के समय - कमला प्रसाद मिश्र | फीजी | Kamla Prasad Mishra |
दीन दुखी मज़दूरों को लेकर था जिस वक्त जहाज सिधारा |
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अपील - लक्ष्मी शंकर वाजपेयी |
दुनिया भर की सारी धार्मिक किताबों ने, |
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समंदर की उम्र - अशोक चक्रधर | Ashok Chakradhar |
लहर ने |
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माँ अमर होती है, माँ मरा नहीं करती - आराधना झा श्रीवास्तव |
माँ अमर होती है, |
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व्यंग्य कोई कांटा नहीं - गोपालप्रसाद व्यास | Gopal Prasad Vyas |
व्यंग्य कोई कांटा नहीं- |
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ऐसे कुछ और सवालों को | ग़ज़ल - राजगोपाल सिंह |
ऐसे कुछ और सवालों को उछाला जाये |
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धरती मैया | ग़ज़ल - राजगोपाल सिंह |
धरती मैया जैसी माँ |
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व्यंग्यकार से - शैल चतुर्वेदी | Shail Chaturwedi |
हमनें एक बेरोज़गार मित्र को पकड़ा और कहा, "एक नया व्यंग्य लिखा है, सुनोगे?" तो बोला, "पहले खाना खिलाओ।" खाना खिलाया तो बोला, "पान खिलाओ।" पान खिलाया तो बोला, "खाना बहुत बढ़िया था उसका मज़ा मिट्टी में मत मिलाओ। अपन ख़ुद ही देश की छाती पर जीते-जागते व्यंग्य हैं हमें व्यंग्य मत सुनाओ जो जन-सेवा के नाम पर ऐश करता रहा और हमें बेरोज़गारी का रोजगार देकर कुर्सी को कैश करता रहा। व्यंग्य उस अफ़सर को सुनाओ जो हिन्दी के प्रचार की डफली बजाता रहा और अपनी औलाद को अंग्रेज़ी का पाठ पढ़ाता रहा। व्यंग्य उस सिपाही को सुनाओ जो भ्रष्टाचार को अपना अधिकार मानता रहा और झूठी गवही को पुलिस का संस्कार मानता रहा। व्यंग्य उस डॉक्टर को सुनाओ जो पचास रुपये फ़ीस के लेकर मलेरिया को टी.बी. बतलाता रहा और नर्स को अपनी बीबी बतलाता रहा। व्यंग्य उस फ़िल्मकार को सुनाओ जो फ़िल्म में से इल्म घटाता रहा और संस्कृति के कपड़े उतार कर सेंसर को पटाता रहा। व्यंग्य उस सास को सुनाओ जिसने बेटी जैसी बहू को ज्वाला का उपहार दिया और व्यंग्य उस वासना के कीड़े को सुनाओ जिसने अपनी भूख मिटाने के लिए नारी को बाज़ार दिया। व्यंग्य उस श्रोता को सुनाओ जो गीत की हर पंक्ति पर बोर-बोर करता रहा और बकवास को बढ़ावा देने के लिए वंस मोर करता रहा। व्यंग्य उस व्यंग्यकार को सुनाओ जो अर्थ को अनर्थ में बदलने के लिए वज़नदार लिफ़ाफ़े की मांग करता रहा और अपना उल्लू सीधा करने के लिए व्यंग्य को विकलांग करता रहा। और जो व्यंग्य स्वयं ही अन्धा, लूला और लंगड़ा हो तीर नहीं बन सकता आज का व्यंग्यकार भले ही 'शैल चतुर्वेदी' हो जाए 'कबीर' नहीं बन सकता।" -शैल चतुर्वेदी [बाज़ार का ये हाल है] ... |
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चतुष्पदियाँ - त्रिलोचन |
स्वर के सागर की बस लहर ली है |
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चुप क्यों न रहूँ | ग़ज़ल - त्रिलोचन |
चुप क्यों न रहूँ हाल सुनाऊँ कहाँ कहाँ |
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ज़िंदगी - राजगोपाल सिंह |
ज़िंदगी इक ट्रेन है |
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कुछ मुक्तक - भारत-दर्शन संकलन |
सभी को इस ज़माने में सभी हासिल नहीं मिलता |
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मन की आँखें खोल - सुदर्शन | Sudershan |
बाबा, मन की आँखें खोल! |
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मोल करेगा क्या तू मेरा? - भगवद्दत ‘शिशु' |
मोल करेगा क्या तू मेरा? |
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खुशामद - पं॰ हरिशंकर शर्मा |
खुशामद ही से आमद है, |
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मजदूर की पुकार - अज्ञात |
हम मजदूरों को गाँव हमारे भेज दो सरकार |
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अहम की ओढ़ कर चादर - अमिताभ त्रिपाठी 'अमित' |
अहम की ओढ़ कर चादर |
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प्रिय तुम्हारी याद में - शारदा कृष्ण |
प्रिय तुम्हारी याद में यह दर्द का अभिसार कैसा, |
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धीरे-धीरे प्यार बन गई - नर्मदा प्रसाद खरे |
जाने कब की देखा-देखी, धीरे-धीरे प्यार बन गई |
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इश्क और वो इश्क की जांबाज़ियाँ | ग़ज़ल - उपेन्द्रनाथ अश्क | Upendranath Ashk |
इश्क और वो इश्क की जांबाज़ियाँ |
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तुलसी के प्रति - रामप्रसाद मिश्र |
ओ महाकवे ! क्या कहें तुम्हें, ऋषि? स्रष्टा? द्रष्ठा? महाप्राण? अपनी पानवतम वाणी से तुम करते संस्कृति-परित्राण । मेरी संस्कृति के विश्वकोश के निर्माता जनकवि उदार, ओ भाषा के सम्राट, राष्ट्र के गर्व, भक्तिपीयूषधार ! अचरज होता, तुम मानव थे, तन में था यह ही अस्थि-चाम ! ओ अमर संस्कृति के गायक तुलसी ! तुमको शत-शत प्रणाम । कितने कृपालु तुम हम पर थे, जनवाणी में गायन गाए ! सद्ज्ञान, भक्ति औ' कविता के सब रस देकर मन सरसाए। मानवता की सीमाओं को दिखलाया अपने पात्रों में, ब्रह्मत्व भर दिया महाकवे ! तुमने मानव के गात्रों में। वसुधा पर स्वर्ग उतार दिया मेरे स्रष्टा, ओ आप्तकाम ! ओ अमर संकृति के गायक तुलसी! तुमको शत शत प्रणाम । -रामप्रसाद मिश्र धर्मयुग, जुलाई 1958 [इसमें रचयिता का नाम आनंदशंकर लिखा था। रामप्रसाद मिश्र उन दिनों आनंदशंकर नाम से लिखते थे।] ... |
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मेरे हिस्से का आसमान - प्रो॰ बीना शर्मा |
मेरे हिस्से का आसमान |
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मैं लड़ूँगा - डॉ. सुशील शर्मा |
मैं लड़ूँगा यह युद्ध |
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ज़िन्दगी को औरों की - ज़फ़रुद्दीन ज़फ़र |
ज़िन्दगी को औरों की ख़ातिर बना दिया |
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यूँ कहने को बहकता जा रहा हूँ - नरेश शांडिल्य |
यूँ कहने को बहकता जा रहा हूँ |
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