अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।

अनसुनी करके

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 रबीन्द्रनाथ टैगोर | Rabindranath Tagore

अनसुनी करके तेरी बात
न दे जो कोई तेरा साथ
तो तुही कसकर अपनी कमर
अकेला बढ़ चल आगे रे--
अरे ओ पथिक अभागे रे ।

देखकर तुझे मिलन की बेर
सभी जो लें अपने मुख फेर
न दो बातें भी कोई क रे
सभय हो तेरे आगे रे--
अरे ओ पथिक अभागे रे ।

तो अकेला ही तू जी खोल
सुरीले मन मुरली के बोल
अकेला गा, अकेला सुन ।
अरे ओ पथिक अभागे रे
अकेला ही चल आगे रे ।

जायँ जो तुझे अकेला छोड़
न देखें मुड़कर तेरी ओर
बोझ ले अपना जब बढ़ चले
गहन पथ में तू आगे रे--
अरे ओ पथिक अभागे रे ।

तो तुही पथ के कण्टक क्रूर
अकेला कर भय-संशय दूर
पैर के छालों से कर चूर ।
अरे ओ पथिक अभागे रे
अकेला ही चल आगे रे ।

और सुन तेरी करुण पुकार
अंधेरी पावस-निशि में द्वार
न खोलें ही न दिखावें दीप
न कोई भी जो जागे रे-
अरे ओ पथिक अभागे रे ।

तो तुही वज्रानल में हाल
जलाकर अपना उर-कंकाल
अकेला जलता रह चिर काल ।
अरे ओ पथिक अभागे रे
अकेला बढ़ चल आगे रे ।

- रवीन्द्रनाथ टैगोर

 

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