देशभाषा की उन्नति से ही देशोन्नति होती है। - सुधाकर द्विवेदी।

गुजरात : 2002 | सुशांत सुप्रिय की कविता

 (काव्य) 
Print this  
रचनाकार:

 सुशांत सुप्रिय

जला दिए गए मकान में
मैं नमाज़ पढ़ रहा हूँ

उस मकान में जो अब नहीं है
जिसे दंगाइयों ने जला दिया था

वहाँ जहाँ कभी मेरे अपनों की चहल-पहल थी
उस मकान में अब कोई नहीं है
दरअसल वह मकान भी अब नहीं है

जला दिए गए उसी नहीं मौजूद मकान में
मैं नमाज़ पढ़ रहा हूँ

यह सर्दियों का एक
बिन चिड़ियों वाला दिन है
जब सूरज जली हुई रोटी-सा लग रहा है
और शहर से संगीत नदारद है

उस जला दिए गए मकान में
एक टूटा हुआ आइना है
मैं जिसके सामने खड़ा हूँ
लेकिन जिसमें अब मेरा अक्स नहीं है

आप समझ रहे हैं न ?
जला दिए गए उसी नहीं मौजूद मकान में
मैं लौटता हूँ बार-बार
वह मैं जो दरअसल अब नहीं हूँ
क्योंकि उस मकान में अपनों के साथ
मैं भी जला दिया गया था

- सुशांत सुप्रिय
 मार्फ़त श्री एच.बी. सिन्हा
 5174 , श्यामलाल बिल्डिंग ,
 बसंत रोड,( निकट पहाड़गंज ) ,
 नई दिल्ली - 110055
मो: 9868511282 / 8512070086
ई-मेल : sushant1968@gmail.com

Back
 
Post Comment
 
 

सब्स्क्रिप्शन

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें