जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।

तुम क्या जानो पीर पराई?

 (विविध) 
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रचनाकार:

 रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड

विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान लाल परेड मैदान में बहुत से छात्र-छात्राओं से वार्तालाप व साक्षात्कार हुआ। वे विश्व हिंदी सम्मेलन देखने आए थे लेकिन प्रवेश-अनुमति न पाने से खिन्न थे। उनमें से अधिकतर तो केवल विश्व हिंदी सम्मेलन का नाम भर सुनकर भोपाल चले आए थे। उन्हें इसके बारे में सीमित जानकारी थी व वे सम्मेलन में प्रवेश-शुल्क से भी अनभिज्ञ थे।

कानपुर से आया एक युवक 'प्रभु आज़ाद' लगातार दो दिनों तक मेरे पीछे पड़ा रहा कि मुझे किसी तरह अंदर ले चलिए। मैं चाहते हुए भी विवश था। मैंने कुछ को लगातार तीनों दिन बाहर बैठे पाया। यह उनका हिंदी स्नेह है कि वे अंतिम दिन तक आस लगाए रहे कि शायद वे प्रवेश कर पाएं!
 
Students complaining about VHS that they are not allowed to enter.

एक दिन तो एक लड़की इतनी आतुर थी प्रवेश करने को, कि पूछिए मत! मैंने अपने जीवन में इतना असहाय कभी महसूस नहीं किया होगा! क्या करता...मैं तो स्वयं एक परदेसी से अधिक क्या था!  मेरे पास केवल सहानुभूति थी और यह उनके विशेष काम की नहीं थी।

मुंबई से आए मनोज ने कहा, "सम्मेलन के नाम से ऐसा आभास होता है कि निशुल्क ही होगा।" कुछ और ने भी अपनी सहमति जता दी। "हम, शुल्क चुकाने को भी तैयार हैं लेकिन बताया गया है कि डेट निकल चुकी सो नहीं हो सकता।"

"हाँ, भाई। आवेदन भरने की तिथि निकल चुकी है। सम्मेलन की साइट पर सब दिया तो था।" मैंने कहा।
 
"लेकिन हमें तो कुछ पता ही नहीं था। साइट का कहाँ से पता चलता। इतना ही पता चला समाचारों में कि भोपाल में विश्व हिंदी सम्मेलन हो रहा है। साइट कहाँ प्रचारित की गई थी सामान्य लोगों व छात्रों में? हमें तो नहीं पता था।" उसके कई और साथियों ने भी उसकी हाँ में हाँ मिलाते हुए 'ना' के अंदाज वाला सिर हिला दिया।
 
"वैसे यह सम्मेलन किसके लिए हो रहा है?" एक  युवती ने सवाल किया फिर स्वयं ही उत्तर दे दिया, "सामान्य लोगों के लिए तो नहीं लगता! क्या केवल कुछ ख़ास लोगों के लिए है? इससे हिंदी का प्रचार कैसे होगा?"

Students disappointed with Vishwa Hindi Sammelan
 
"जहाँ शहर की सजावट करने में इतना खर्चा हुआ है, वहाँ कम से कम यहाँ बाहर एक प्रोजेक्टर ही लगा देते! हम बाहर बैठकर ही देख लेते।" बैंच से उठकर पास आते एक अन्य युवक ने कहा।

"क्या करें, भाई!"
 
"आप मुख्यमंत्री से मिलें तो उन्हें हमारी शिकायत तो दर्ज करवा ही सकते हैं।"
 
"हाँ, आपके लिए अधिक नहीं कर सका पर आपकी यह शिकायत मैं अवश्य मुख्यमंत्री तक पहुंचा दूंगा।" मैंने उन्हें सांत्वना दी।
 
"हिंदी का प्रचार करने वाले तो सब बाहर ही बैठे हैं!" एक ने बैंच पर बैठे बहुत से अपने छात्र मित्रों की ओर हाथ घुमाते हुए कहा। फिर बहुत-से युवक-युवतियों ने एक साथ ठहाका लगा दिया। मैं भी मुसकरा कर उनके अट्हास में छिपे दर्प, व्यंग्य और पीड़ा का आकलन करता हुआ आगे बढ़ गया। मैं सोच रहा था कि सचमुच यदि एक प्रोजेक्टर बाहर किसी पंडाल में लगाया जाता तो कितना अच्छा होता! 
 
सम्मेलन के अंतिम दिन मुझे अवसर मिल ही गया। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री विदेश से आए अतिथियों से मिलने आए तो मैंने बाहर बैठे छात्र-छात्राओं की पीड़ा का मुद्दा उनके समक्ष रखा। छात्रों द्वारा प्रोजेक्टर वाले सुझाव की भी चर्चा की। विदेश से आए एक-आध अतिथि को मेरा यह मुद्दा उठाना भाया नहीं। मुझे संतुष्टि थी कि मैंने उन छात्र-छात्राओं से किया वादा निभाया। 
 
- रोहित कुमार 'हैप्पी'
[साभार- वेब दुनिया]
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