यदि पक्षपात की दृष्टि से न देखा जाये तो उर्दू भी हिंदी का ही एक रूप है। - शिवनंदन सहाय।

तेरे दरबार में क्या चलता है ? | कविता

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 नागार्जुन | Nagarjuna

तेरे दरबार में
क्या चलता है ?
मराठी-हिन्दी
गुजराती-कन्नड़ ?
ताता गोदरेजवाली
पारसी सेठों की बोली ?
उर्दू—गोआनीज़ ?
अरबी-फारसी....
यहूदियों वाली वो क्या तो
कहलाती है, सो, तू वो भी
भली भाँति समझ लेती
तेरे दरबार में क्या नहीं
समझा जाता है !

मोरी मइया, नादान मैं तो
क्या जानूँ हूँ !
सेठों के लहजे में कहूँ तो—‘‘भूल-चूक लेणी-देणी.....’’

तेरे खास पुजारी
गलत-सलत ही सही
संस्कृत भाषा वाली
विशुद्ध ‘देववाणी’
चलाते होंगे....
मगर मैया तू तो
अंग्रेजी-फ्रेंच-पुर्तगीज
चाइनीज और जापानी
सब कुछ समझ लेती ही है
नेल्सन मंडेला के यहाँ से
लोग-बाग आते ही रहते हैं....

अरे वाह ! देखो मनहर,
अम्बा ने सिर हिला दिया !
जै हो अम्बे !
नौ बरस की लम्बी
सजा दे दी....
चलो, ये भी ठीक रहा !!
देख मनहर भइया
मुस्करा रही है ना !
चल मनहर मइया ने
सिर हिला दिया, देख रे !
अब तो बार-बार
भागा आऊँगा मनहर !

-नागार्जुन

[साभार-अपने खेत में]

 

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