जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।

ताज़े-ताज़े ख़्वाब | ग़ज़ल

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 कृष्ण सुकुमार | Krishna Sukumar

ताज़े-ताज़े ख़्वाब सजाये रखता है
यानी इक उम्मीद जगाये रखता है

उसको छूने में अँगुलि जल जाती हैं
जाने कैसी आग दबाये रखता है

अपने दिल की सबसे कहता फिरता है
बाक़ी सबके राज़ छुपाये रखता है

अपनापन तो उसके फ़न में शामिल है
दुश्मन को भी दोस्त बनाये रखता है

उसका होना तय है, दिखना नामुम्किन
कैसी इक दीवार उठाये रखता है

काँटों के जंगल में चलकर नंगे पाँव
वो अपना ईमान बचाये रखता है

- कृष्ण सुकुमार
153-ए/8, सोलानी कुंज,
भारतीय प्रौद्योकी संस्थान
रुड़की- 247 667 (उत्तराखण्ड)

 

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