विश्व-बोध (काव्य)

Print this

Author: गौरीशङ्कर मिश्र ‘द्विजेन्द्र'

रचे क्या तूने वेद-पुराण,
नीति, दर्शन, ज्योतिष, विज्ञान,
निखिल शास्रों के विविध-विधान,
छन्द, रूपक, कविता, आख्यान;
हृदय की जो न हुई पहचान !
जगत् ! धिक् तेरे ये सब ज्ञान !!


सघन जलधर के अन्तर-बीच
जला करती ज्वाला-गम्भीर,
उसी को पल-पल में जब हाय !
तुझे घन दिखलाता उर चीर,
चौंक तू कह उठता सोल्लास--
अरे, यह तो है तड़ित्-विभास !


सतत तपता रहता दिन-रात
प्रखरतमज्वाला में गिरि-कूट,
हृदय से उसके करुणा-धार,
निकल पड़ती जब सहसा फूट,
उसे कह कर सरिता नादान,
समझता अपने को मतिमान !

जाग पड़ती जब वाड़व-ज्वाल
खुले नभ का पा भंझावात,
गरज उठता सागर गम्भीर
धड़क उठता मानस अज्ञात !
उसी हृत्स्पन्दन को अविराम !
लहर का तू देता है नाम !!

तुझे करने जब दु:खोन्मुत
दिवस करता है सङ्गर घोर,
तिमिर होता आहत निरुपाय
रुधिर से रँग जाता नभ-छोर,
उसे ऊषा की मृदु मुसकान !
समुद्द कहता रे तू नादान !

किसी निर्मम दुख का आघात
जगाता जब सोया सन्ताप,
फूट कर कोमल हृदय अशांत
भाव बन बह चलता चुपचाप,
उसे कविता कहते नादान !
तनिक भी सकुचाता तू क्या न ?

किसी का हृदय न कोई हाय! सका है सचमुच अब लौं जान !
इसी से तो प्रेमी जग-बीच कहाता है पागल नादान !
जगत् ! धिक् तेरे ये सब ज्ञान !
हृदय की जो न हुई पहचान !!


- गौरीशङ्कर मिश्र ‘द्विजेन्द्र'
[साभार - चाँद, संपादक-महादेवी वर्मा]

 

Back

 
Post Comment
 
 
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें