जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।

तीन कविताएं (काव्य)

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Author: संतोष कुमार “गौतम”

डरे हुए लोग

डरे हुए लोग
हर रोज जीते हैं
मर-मर के ।
कोशिश करते है
हर रोज जीतने की
खुद से लड़-लड़ 2 के।
इस प्रक्रिया में
खुद को छलते हैं
हर रोज- बहुरुपिया बन-बन के।
मन की आह
बन के ताप
हर रोज निकलती है
छन-छन के।
इक डर से उबरे नहीं
दूसरा घेर लेता है मन में उठे हिलोर
थम-थम के।
इक रोज बादल आए, बिजली चमकी बारिश हुई, धुल गया डर
जल गया ताप
मुक्ति का एहसास
मन मयूर मगन हुआ हँस-हँस के।

- संतोष कुमार “गौतम”

#

विजेता

मैं विजेता हूँ
आत्म-विजेता/स्व-विजेता
मैं अंगूर न मिलने पर
अंगूर को खट्टा नहीं कहता
और न दोष देता हूँ
उंचाई, पेड़, ढेले या किसी और को,
न खुद को,
न हार मानता हूँ
न जिद करता हूँ,
मैं प्रेम करता हूँ
यकीन करता हूँ
और पा लेता हूँ,
मै विजेता हूँ
आत्म-विजेता/स्व-विजेता।

- संतोष कुमार “गौतम”

#

 

चुनौती

नदी के तट पर बैठकर
देखने से अच्छा है
कि नदी में कूद जाऊं।

कूदूंगा तो दो चीजे होंगी-
या तो डूब जाऊंगा या पार पाऊंगा,
मुझे तैरने आता है
इसलिए डूबने का कोई चांस नहीं,
अब मसला यह है कि
कितनी जल्दी मैं
नदी की तेज धार व
भवंर के मझधार से
पार पा लेता हूँ।

यकीनन मुझमें तैरने का माद्दा है
और नदी की तेज धार व
भवंर की मझधार से
खेलते हुए उस पार हूँ
और चीजें-
मुझे साफ़-साफ़ दिखाई दे रही हैं।
फिर से नदी मुस्कराती हुई
मुझे आमंत्रित कर रही है
और मैंने सहर्ष स्वीकार कर लिया है।

- संतोष कुमार “गौतम”

E-mail: santoshkumar4519850@gmail.com

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