यदि पक्षपात की दृष्टि से न देखा जाये तो उर्दू भी हिंदी का ही एक रूप है। - शिवनंदन सहाय।

दो ग़ज़लें  (काव्य)

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Author: सुनीता काम्बोज

1)

ये नफ़रत का असर कब तक रहेगा
है सहमा सा नगर कब तक रहेगा

हक़ीकत जान जाएगा तुम्हारी
ज़माना बेखबर कब तक रहेगा

बगावत लाज़मी होगी यहाँ पर
झुका हर एक सर कब तक रहेगा

है इक दिन हार जाएगी ये लड़कर
हवाओं का ये डर कब तक रहेगा

जमीं पर लौट के आना ही होगा
बता आकाश पर कब तक रहेगा

यहाँ फिर लौट आएँगी बहारे
मेरा सूना सा घर कब तक रहेगा

लगा लो फिर सुनीता बेल बूटे
पुराना सा शज़र कब तक रहेगा

- सुनीता काम्बोज

 

2)

काम रख तू सिर्फ अपने काम से
ज़िन्दगी कट जाएगी आराम से

मुझसे नज़रें मत मिला ओ अजनबी
डर जरा इस इश्क़ के अंजाम से

ज़िक्र मेरा क्या हुआ वो चल पड़े
इस क़दर जलते है मेरे नाम से

कर दिया मदिरा ने घर बर्बाद जो
वो ख़फ़ा सा हो गया है जाम से

भूख से माँ बाप घर में मर गए
लौट कर आया वो चारों धाम से

अब वही निकले बड़े ज्ञानी यहाँ
देखने में जो लगे थे आम से

उसने देखा ओर नज़रें फेर ली
जिन के ख़ातिर हम हुए बदनाम से

- सुनीता काम्बोज

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