आज नई आई होली है (काव्य)

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Author: उदयशंकर भट्ट

आज नई आई होली है ।
महाकाल के अंग - अंग में आग लगी धरती डोली है ।

सागर में वड़वानल जागा, जाग उठीं ज्वालाएँ नग से,
प्रकृति-प्रकृति के प्राण जल उठे, हालाहल उबले पन्नग से ।

स्वर्ग जल उठे, अम्बर रोये तारों ने ऑखें धो ली हैं ।

नर ऑखों में भर अंगारे, रक्त प्यास लेकर जागा है,
जीवन ने अपनी साँसों से, अपना मरण-दान माँगा है ।

मानव के सब बंधन टूटे प्राणों की खाली झोली है ।

कृष्ण, बुद्ध, ईसा का कहना, क्या इस नर को व्यर्थ हो गया?
सोच रहा हूँ बैठा-बैठा, क्या साहित्य निरर्थ हो गया?

निश्चय, नवयुग देख रहा नव-जीवन की आँखें भोली हैं ।

लपटों में साम्राज्य जल रहे, दृष्टि-बिन्दु बदले हैं पल-पल,
महामरण की चिनगारी में, झाँक रहे नव आगत चंचल,

हिम-आवृत शव के अधरों ने एक नई बोली बोली है ।
आज नई आई होली है ।

- उदयशंकर भट्ट

[युग-दीप]

 

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