अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।

व्यथा (कथा-कहानी)

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Author: अमिता शर्मा

आज ताई को कई दिनों के बाद पार्क में देखा तो मैंने दूर से आवाज दी, "ताई राम-राम!"


"राम-राम, बेटा। जीते रहो!"


ताई ने हमेशा की तरह आशीर्वादों की झड़ी लगा दी। पर आज ताई के चेहरे पर वो खुशी नजर नहीं आ रही थी जो हमेशा रहा करती थी। सुस्त और उदास सी लग रही थी ताई।


"तबीयत तो ठीक है न?" मैंने पूछा।


"हाँ, तबीयत तो एकदम ठीक है बेटा।"


"फिर क्या बात है?"


"अरे क्या बताऊँ! इन लौंडों के लिए सारी ज़िन्दगी खपा दी। दिन को दिन समझा, न रात को रात। पर मेरी परवाह किसे है? सब अपनी-अपनी धुन में मस्त हैं। अरे सब स्वार्थ के रिश्ते हैं बेटा।" ताई लगभग रूआंसी हो उठी।


"अरे मुझसे कह दिया होता। कोई काम हो तो बता दिया करो। मैं भी तो आपके बेटे जैसा हूँ।"


कॉलोनी के सब बच्चे उन्हें ताई ही बुलाते हैं। बहुत सहनशील है ताई। बचपन से उन्हें देखा। उन्हें कभी किसी से कोई शिकायत नहीं रहती। इतना अधीर तो उन्हें कभी नहीं देखा।


"अच्छा, बताओ क्या काम है?"


"अरे बेटा, कुछ नहीं। तीन दिन से इंटरनेट नहीं चल रहा।" आखिर ताई ने अपने दर्द का पिटारा खोल दिया।


- अमिता शर्मा

 

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