अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।

कुँअर बेचैन की ग़ज़लें  (काव्य)

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Author: कुँअर बेचैन

दो चार बार हम जो कभी हँस-हँसा लिए
सारे जहाँ ने हाथ में पत्थर उठा लिए


रहते हमारे पास तो ये टूटते जरूर
अच्छा किया जो आपने सपने चुरा लिए


चाहा था एक फूल ने तड़पे उसी के पास
हमने खुशी के पाँवों में काँटे चुभा लिए


सुख, जैसे बादलों में नहाती हों बिजलियाँ
दुख, बिजलियों की आग में बादल नहा लिए


जब हो सकी न बात तो हमने यही किया
अपनी गजल के शेर कहीं गुनगुना लिए


अब भी किसी दराज में मिल जाएँगे तुम्हें
वो खत जो तुम्हें दे न सके लिख लिखा लिए।


- कुँअर बेचैन



(2)

चोटों पे चोट देते ही जाने का शुक्रिया
पत्थर को बुत की शक्ल में लाने का शुक्रिया


जागा रहा तो मैंने नए काम कर लिए
ऐ नींद आज तेरे न आने का शुक्रिया


सूखा पुराना जख्म नए को जगह मिली
स्वागत नए का और पुराने का शुक्रिया


आती न तुम तो क्यों मैं बनाता ये सीढ़ियाँ
दीवारों, मेरी राह में आने का शुक्रिया


आँसू-सा माँ की गोद में आकर सिमट गया
नजरों से अपनी मुझको गिराने का शुक्रिया


अब यह हुआ कि दुनिया ही लगती है मुझको घर
यूँ मेरे घर में आग लगाने का शुक्रिया


गम मिलते हैं तो और निखरती है शायरी
यह बात है तो सारे जमाने का शुक्रिया


अब मुझको आ गए हैं मनाने के सब हुनर
यूँ मुझसे `कुँअर' रूठ के जाने का शुक्रिया


- कुँअर बेचैन


(3)

उँगलियाँ थाम के खुद चलना सिखाया था जिसे
राह में छोड़ गया राह पे लाया था जिसे


उसने पोंछे ही नहीं अश्क मेरी आँखों से
मैंने खुद रोके बहुत देर हँसाया था जिसे


बस उसी दिन से खफा है वो मेरा इक चेहरा
धूप में आइना इक रोज दिखाया था जिसे


छू के होंठों को मेरे वो भी कहीं दूर गई
इक गजल शौक से मैंने कभी गाया था जिसे


दे गया घाव वो ऐसे कि जो भरते ही नहीं
अपने सीने से कभी मैंने लगाया था जिसे


होश आया तो हुआ यह कि मेरा इक दुश्मन
याद फिर आने लगा मैंने भुलाया था जिसे

वो बड़ा क्या हुआ सर पर ही चढ़ा जाता है
मैंने काँधे पे `कुँअर' हँस के बिठाया था जिसे


- कुँअर बेचैन


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Posted By Narendra K.   on Wednesday, 18-Nov-2015-14:08
दूर देश से हिंदी पत्रिका निकालने के लिए शुक्रिया .
 
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