यह संदेह निर्मूल है कि हिंदीवाले उर्दू का नाश चाहते हैं। - राजेन्द्र प्रसाद।

यह दिया बुझे नहीं (काव्य)

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Author: गोपाल सिंह ‘नेपाली’

घोर अंधकार हो, चल रही बयार हो
आज द्वार-द्वार पर, यह दिया बुझे नहीं
यह निशीथ का दिया, ला रहा विहान है

शक्ति का दिया हुआ, शक्ति को दिया हुआ
भक्ति से दिया हुआ, यह स्वतंत्रता दिया
रुक रही न नाव हो, ज़ोर का बहाव हो
आज गंग-धार पर, यह दिया बुझे नहीं
यह स्वदेश का दिया, प्राण के समान है

यह अतीत कल्पना, यह विनीत प्रार्थना
यह पुनीत भावना, यह अनंत साधना
शान्ति हो, अशान्ति हो, युद्ध, सन्धि, क्रान्ति हो
तीर पर, कछार पर, यह दिया बुझे नहीं
देश पर समाज पर ज्योति का वितान है

तीन-चार फूल हैं, आस-पास धूल है
बाँस हैं , बबूल हैं, घास के दुकूल हैं
वायु भी हिलोर दे, फूँक दे, चकोर दे
क़ब्र पर , मज़ार पर, यह दिया बुझे नहीं
यह किसी शहीद का, पुण्य प्राण-दान है

झूम-झूम बदलियाँ, चूम-चूम बिजलियाँ
आंधियाँ उठा रहीं, हलचलें मचा रहीं
लड़ रहा स्वदेश हो , यातना विशेष हो
क्षुद्र जीत-हार पर, यह दिया बुझे नहीं
यह स्वतंत्र भावना का स्वतंत्र गान है

- गोपाल सिंह ‘नेपाली'

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