अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
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Author:डा. श्याम नारायण कुंदन

ऋतु या ऋतम्भरा, हाँ यहीं नाम है उसका। एक लम्बे समय के बाद संतोष बाबू इस नाम को लेकर काफी जद्दोजहद से गुजर रहे थे। अपने स्मृति के गह्वर में झाँक-झाँक कर वे इस नाम को एक शरीर प्रदान करने की कोशिश कर रहे थे। लम्बा कद, साँवला रंग, चौड़ा ललाट, बड़ी-बड़ी आँखें। यही कुल जमा पूँजी बची थी संतोष बाबू के स्मृति के खजाने में ऋतु या ऋतम्भरा के लिए। और यह भी कि वह कॉलेज में उनकी जूनियर थी। बहुत कम बोलती थी। वह भी किन्हीं खास लोगों से ही। संतोष बाबू उन्हीं खास लोगों में से एक थे।

उन्हें याद है वह कभी-कभी दबे जबान से उन्हें भैया कहकर बुलाती थी पर वहाँ जहाँ संतोष बाबू किसी के साथ होते। जब वे अकेले होते तो वह कुछ भी नहीं कहती, सिर्फ चूप रहती। तब तक जब तक कि संतोष बाबू उसे टोक नहीं देते। उन्हें यह बात भी अच्छी तरह याद है कि गंगा के घाटों पर वे बिना एक दूसरे से कुछ कहे बहते हुए पानी की धार को एकटक निहारा करते थे। पर यह संयोग ही था कि एम.ए. करने के बाद वह कॉलेज छोड़कर चली गयी। उसके कुछ दिन बाद उन्होंने सुना कि उसकी शादी हो गई थी।

इलाहाबाद से चलकर वाराणसी तक जाने वाली काशी प्रयाग पैंसेजर ट्रेन के एक डिब्बे में बैठे संतोष बाबू सोच रहे थे।

अगले स्टेशन पर उतरने वाले यात्रियों से पूरा का पूरा डिब्बा शोर-शराबे से भरा हुआ था। बाहर जमीन भाग रही थी। खेत और पेड़ पौधे नाच रहे थे। मानों वे सभी वृत बनाने पर उतारू हों। यह सब कुछ आँखों का भ्रम है। इस बात को संतोष बाबू भली-भाँति जानते थे पर वे उस क्षणिक परन्तु वास्तविक भ्रम कि उपस्थिति को किसी भी तरह से नजर अन्दाज करने के पक्ष में कदापि नहीं थे। उनका मानना था कि संसार मे कुछ भी भ्रम या वास्तविक नहीं है। एक कोण से जो भ्रम है वही दूसरे कोण से वास्तविक।

संतोष बाबू इलाहाबाद में हिन्दी के प्रोफेसर थे। भरा-पूरा परिवार था उनका वहाँ पर उन्हें बनारस से विशेष लगाव था। इसलिए उनका बनारस हमेशा आना-जाना लगा रहता था।

उन्हें ऋतम्भरा का ठिकाना खोजने में कोई कठिनाई नहीं हुई। स्टेशन पर उतरने के महज आधे घण्टे के भीतर ही वे ऋतम्भरा के मकान के सामने खड़े थे। मकान बड़ा नहीं था पर उसे किसी भी तरह छोटा भी नहीं कहा जा सकता था।

संतोष बाबू चाहते तो एक झटके में आगे बढ़कर दरवाजे पर लगी कॉलबेल बजा सकते थे पर पता नहीं क्यों उनका हाथ साथ नहीं दे रहा था। जैसे ही वे कॉलबेल बजाने के लिए अपना हाथ उठाते कुछ सोचकर रूक जाते।

"ऋतम्भरा ऐसी होगी.... वैसी होगी........नहीं-नहीं वह ठीक वैसी तो कदापि नहीं होगी जैसे दस साल पहले दीखती थी। समय के साथ उसमें भी परिवर्तन अवश्य हुआ होगा। रह गई बात उसके विचारों में परिवर्तन की तो उसमें भी शक की कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए" संतोष बाबू के अन्दर द्वन्द चल रहा था।

रह-रहकर संतोष बाबू के आँखों के सामने दस पहले वाली ऋतु आ खड़ी होती और फिर गायब हो जाती। धीर, गंभीर, सांवली, छुई-मुई सी ऋतु।

"अरे यह क्या पागलपन है?" संतोष बाबू ने अपने सिर को झटका। फिर अपने अर्धगंजे हो चुके सिर पर हाथ फेरा। अपने खादी के कुर्ते और पाजामें को संतुलित किया और आगे बढ़कर कॉलबेल को बजा दिया।

दरवाजा खुला तो सामने ऋतु ही खड़ी थी। बिल्कुल हूबहू ऋतु। फर्क सिर्फ इतना था कि पहले कि भाँति उसने सलवार-कमीज नहीं बल्कि साड़ी पहन रखा था।

पहले तो ऋतु फटी आँखों से संतोष बाबू को देखती रही। मानों वे कोइ अजनबी हों। भूल-भटकर उसके दरवाजे पर आ गए हों। उसे विश्वास ही नही हो रहा था कि उसके सामने जो व्यक्ति खड़ा है वह संतोष बाबू ही हैं। वही संतोष जिसकी एक झलक पाने के लिए कॉलेज के दिनों में लड़कियाँ तरसा करती थी। उनके नजदीक आने के लिए बहाने बनाया करती थी। वही संतोष.......? हाँ वही तो हैं पर दीख कैसे रहे हैं वे? उनके बालों को क्या हुआ? और कपड़े......छी ! ये कैसे पुराने-धुराने कपड़े पहन रखे हैं ? कहीं यह संतोष बाबू का कोई बहूरूपिया तो नहीं है? पर यह कैसे हो सकता है? वही शक्ल, वही सूरत। वही बड़ी-बड़ी आँखें....वही सब कुछ।


"ऋतु क्या देख रही हो? पहचाना नहीं क्या? मैं संतोष।"

"ओह संतोष जी।" ऋतु को अपनी गलती का एहसास हुआ और दौड़कर संतोष बाबू के गले लग गयी। जैसे वर्षो का बांध टूट गया और ऋतम्भरा की आँखों से आँसूओं की धारा बह निकली। संतोष बाबू पत्थर की तरह बुत बने खड़े थे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि वे क्या करें। क्या कहें।

मकान एक छोटे से आहाते के अन्दर बना था। इर्द-गिर्द विभिन्न प्रकार के फूलों के गाँछ भी लगे थे। उनमें से एक गाँछ पर संतोष बाबू की नजर जाकर टिक गई।

"संतोष जी क्या देख रहे हैं?" ऋतु ने संतोष बाबू को टोका।

"कुछ नहीं, मैं इन फूलों को देख रहा था।" संतोष बाबू ने अपने मन की बात को छिपाया।

"हँ....हँ....हँ....हँ...हँ।" ऋतु खिलखिलाकर हँसी।

संतोष बाबू ऋतु को खिलखिलाकर हँसते हुए देखने लगे। इससे पहले उन्होंने ऋतु को इस तरह हँसते हुए कभी नहीं देखा था।

"आप भी न संतोष बाबू ........।" अभी तक आप को झूठ भी बोलना नहीं आया पर मैं सब समझती हूँ। आप फूलों को नहीं बल्कि फूलों के उन काँटो को देख रहे थे जो उन्हें चारों ओर से घेर रखे हैं। सोच रहे थे कि इनके रहते तो इनके पास ब्रह्मा भी नहीं फटक सकते आदमी की क्या बिसात।"


"बिल्कुल गलत।"

"तो फिर।"

"ऋतु मैं यह सोच रहा था कि इन फूलों के काँटो की ही भाँति हर सुन्दर और बेसकीमती चीजों के लिए प्रकृति ने एक सुरक्षा कवच बना रखा है। ठीक वैसे ही जैसे मनुष्य के लिए..........।"

"परम्परा, संस्कार और धर्म ...।" ऋतु ने संतोष बाबू के अधूरे वाक्य को पूरा किया।

"नहीं, बिल्कुल नहीं। परम्परा, संस्कार और धर्म जैसी शब्दावलियाँ प्रकृति की नेमत नहीं बल्कि मनुष्य ने इसे अपनी सुविधा के लिए बनाया है। सही मायने में मनुष्य के लिए जो सुरक्षा कवच प्रकृति ने उपहार स्वरूप भेंट किया है उसे मनुष्य ने अपने अहं के कारण आज तक समझा ही नहीं।"

"ओहो बाबा, माना। अब अन्दर चलिए। आज तो आप मेरे मेहमान हैं। बातें तो होती रहेंगी।"

ऋतु ने संतोष बाबू की अच्छी खातिरदारी की। घण्टों तक उनमें बाते भी हुईं। अपने कॉलेज के दिनों की बातों को याद करके वे हँसे भी।

"अब चलना चाहिए।" रात्रि के ठीक ग्यारह बजे कुर्सी से उठकर खड़े होते हुए संतोष बाबू बोले।


"कहाँ?" ऋतु ने आश्चर्य व्यक्त किया।

"यहीं पास ही मेरे एक रिश्तेदार रहते हैं। उनके यहाँ ठहर जाऊँगा। फिर कल सुबह ही इलाहाबाद के लिए निकलना है।"

"पर आप यहाँ भी तो ठहर सकते हैं।"

"अरे नहीं, बेवजह तुम्हें परेशानी होगी।"

"संतोष जी हमें कोई परेशानी नहीं होगी।"

"प्लीज ऋतु, आज मत रोको मुझे। फिर कभी आऊँगा तो रूकूँगा तुम्हारे पास। यह मेरा वादा है तुमसे।"

"ठीक है, चलिए मैं आपको आगे तक छोड़ दूँ।"

कुछ समय बाद वे दोनों मुख्य सड़क पर थे। तब तक सड़क लगभग सुनसान हो चुकी थी। बस इक्का-दुक्का गाड़ियाँ ही इधर-उधर दीख जाती थी। कुछ रात्रिचर कुत्ते कालोनी की सड़कों पर एक दूसरे पर गुर्रा रहे थे, भौंक रहे थे। उनके पीछे काशी विश्वविद्यालय का विशाल प्रांगण फैला पड़ा था। सामने नव-वधू की तरह सजी-धजी कालोनी थी। उनकी बाईं तरफ वाली सड़क कैंट की तरफ जाती थी और दाईं तरफ वाली सामने घाट की तरफ।

"तो" कुछ देर यूँ ही साथ चलने पर ऋतु ने टोका।

"तो क्या" अपने आप में खोए हुए संतोष बाबू चौके।

"फिर दुबारा कब आना होगा।"

"कह नहीं सकता।" इतना कहकर संतोष बाबू ने ऋतु की तरफ देखा। ऋतु उस पल स्ट्रीट-लाइट के गुलाबी प्रकाश में बिल्कुल परी की तरह लग रही थी।

दोनों कुछ दूर यूँ ही साथ-साथ चलते रहे। न किसी ने कुछ कहा और न कुछ पूछा। उस रास्ते पर पहले भी वे अनेकों बार गुजरे थे। पर तब और आज में एक लम्बा फासला था।

"हम लोग जा कहाँ रहें हैं?" संतोष बाबू ने चुप्पी तोड़ी।

"वहीं जहाँ हमें जाना चाहिए।" ऋतु संतोष बाबू के प्रश्न पूछने के कुछ देर बाद बोली। शायद वह संतोष बाबू के उस प्रश्न का उत्तर देना जरूरी नहीं समझती थी। या वह कुछ और ही सोच रही थी उस पल जिसकी तारतम्यता को वह तोड़ना नहीं चाहती थी।

उन दोनों के मध्य एक बार फिर मौन पसर गया। एक ऐसा मौन जिसको वे दोनों ही पसन्द नहीं कर रहे थे पर एक अवरोध था जो उन्हें रोक रहा था। वे कुछ कहना चाहते थे पर कह नहीं पा रहे थे। वर्षों की अकुलाहट से वे अन्दर ही अन्दर टूट रहे थे।

गंगा की तरफ बढ़ते हुए रास्ते में ढ़ाल था। जगह-जगह सड़क के टूट जाने से गढ्ढ़े बन गए थे। रोशनी के अभाव में आगे का रास्ता धूत्त अंधेरे में खोया हुआ था।

"उई......" एकाएक संतोष बाबू कराहे।

"अरे....रे...रे..., सम्भल के संतोष बाबू। आगे रास्ता खराब है।"


शायद अंधेरे में संतोष बाबू का एक पैर गढ्ढ़े में पड़ गया था। वे गिर ही पड़ते अगर ऋतम्भरा ने उनका एक हाथ थाम न लिया होता।

अब वे ठीक थे और एक दूसरे का सहारा बने आगे बढ़ रहे थे। संतोष बाबू का हाथ ऋतम्भरा के बाएँ हाथ में था। शायद अब उनमें अपने हाथ को मुक्त कराने की शक्ति शेष नहीं रह गयी थी। अब वे उस अकथनीय सच्चाई को पूरी तरह स्वीकार रहे थे जिसे वर्षों पूर्व उन्हीं रास्तों पर ऋतम्भरा के साथ चुपचाप गुजरते हुए अस्वीकार करते रहते थे। ऋतम्भरा उन्हें दबे जबान से भैया कहती थी और वे उसे पूरी तरह वास्तविक मानकर चुप रह जाया करते थे।

अक्टूबर महीने की गुनगुनी ठंड थी। गंगा की तरफ यानि पूर्व दिशा से ठंडी हवा चल रही था। ऊपर आकाश साफ था। आमावस का उत्तरार्ध होने के कारण चाँद भी अभी उगा नहीं था। पर तब भी चटकीले तारों के प्रकाश में कुछ दूर तक अवश्य देखा जा सकता था। ढ़लान पर जगह-जगह पीपल एवं बरगद के पेड़ थे। उसपर अपना डेरा जमाए कुछ पक्षी चिहचिहा रहे थे। कुछ जंगली जानवर भी अजीब-अजीब की आवाज निकाल रहे थे।


"डर रही हो?" डरकर अपने और पास आती ऋतम्भरा से संतोष बाबू ने पूछा।

"न....न...न...नहीं तो।"

संतोष बाबू के कानों में एक धीमी आवाज गूँजी। उन्होंने उसकी ओर देखा। पर उस पल उसका चेहरा उसके घुंघराले बालों में पूरी तरह से छिप चुका था।


"संतोष बाबू सम्भल के। रास्ता काफी खराब है।" कभी संतोष बाबू रास्ते में चलते हुए डगमगाते तो वह कह उठती।

ऋतम्भरा उनके बिल्कुल पास थी। उसके बालों की धीमी सुगन्ध हवा में चारों ओर फैल रही थी। संतोष बाबू भाव-विभोर होकर आगे बढ़ रहे थे। पता नहीं क्यों उनका मन विचलित सा हो रहा था।

कुछ ही देर में वे पवित्र गंगा के विशाल तट पर थे। गंगा की तरफ से आती हुई ठंडी हवा उनके बदन में सिहरन पैदा कर रही थी। वे वहीं एक ढ़ूह के किनारे बैठ गए। दूर बाईं तरफ गंगा का अर्ध चन्द्राकार किनारा और उसके ऊपर बसा हुआ बनारस शहर बड़ा अद्भूत लग रहा था। घाटों की टिमटिमाती रोशनियाँ गंगा की लहरों पर फैलकर तैरती हुई नजर आ रही थी। सामने घाट पर पंक्तिबद्ध नावों की कतार थी और नदी के पार घुप्प अंधेरे में डुबा हुआ रामनगर का किला अपनी विशालता के कारण साफ नजर आ रहा था। दाहिनी तरफ थोड़ी दूरी पर पीपे से बना हुआ पुल था जो सामने घाट को रामनगर से जोड़ देता था।

शहर की बनावटी दुनिया से दूर प्रकृति के उस शांत वातावरण में रात काफी भली लग रही थी। लग रहा था कर्मो का बंधन वहाँ पहुँच कर खत्म हो गया है। जो कुछ शेष रह गया है वह सिर्फ और सिर्फ उसी पल का ही अंश हो।

"तो क्या हम लोग यहाँ अकेले हैं?" संतोष बाबू ने ऋतम्भरा की ओर देखकर पूछा और एक छोटा सा कंकड़ बैठे-बैठे नदी में उछाल दिया।

"छपाक" एक हल्की आवाज आई। नदी के जल में एक छोटी सी लहर भी बनी होगी पर उसका केवल अनुमान भर लगाया जा सकता था। अंधेरे में उसको देख पाना सम्भव न था।

"बिल्कुल।"

ऋतम्भरा की आवाज में कम्पन था। वह संतोष बाबू के पास सटकर बैठी थी। उसकी साँसों की खुशबू को संतोष बाबू अच्छी तरह महसूस कर सकते थे।

उसी समय उनके ऊपर से पंछियों का एक पंक्तिबद्ध विशाल समूह गुजरा तो वातावरण में हाँय...हाँय की आवाज हुई। ऋतम्भरा सहम कर संतोष बाबू के और नजदीक आ गई। इससे पहले की वह कुछ समझ पाती संतोष बाबू उठकर खड़े हो गए और ठठाकर हँसने लगे।

"क्या हुआ?" ऋतु भी खड़ी हो गयी।

"कुछ नहीं, बस यूँ ही।"

संतोष बाबू अपने मन की बात को एक बार फिर टाल गये। वे अपना मुँह शहर की तरफ घुमाकर कहने लगे- "तुम इस पवित्र शहर को देख रही हो ऋतम्भरा? इसका बड़ा नाम है दुनिया में। यहाँ के लोग बड़े पवित्रात्मा होते हैं।"

हाँ बिल्कुल जानती हूँ और यह भी कि इस शहर की नींव न जाने कितने अरमानों, इच्छाओं, सपनों या फिर मानवीय अनुभूतियों की बलिवेदी पर खड़ी हैं। इसलिए आज मैं इसे पीछे छोड़ आयी हूँ केवल इस क्षण के लिए ही। अपने उन सपनों के लिए जिसे मैंने आज से दस साल पहले आपको लेकर देखा था।"

"लेकिन कल .......?"

"कल को किसने देखा है संतोष बाबू ! वैसे भी अगर मेरे मन में भविष्य में सवाल उठेंगे तो मैं पाश्चाताप तो बिल्कुल नहीं करूँगी बल्कि इनको मैं अपने मन में संजोकर रखूँगी।"

उस समय तक रात काफी गहरा गई थी। पूरा का पूरा शहर गहरी निद्रा में बेसूध था। दरख्तों और पशु और पक्षियों तक को निद्रा ने अपने आगोश में ले लिया था। हवा भी धीरे-धीरे अलसा रही थी पर पवित्र गंगा के जल में कोइ आलस नहीं आया था। वह तब भी धीरे-धीरे बही जा रही थी।

संतोष बाबू तारों भरे उस रात्रि में ऋतम्भरा के चमकते चेहरे को देख रहे थे। जहाँ अब कहीं भय नहीं था। शर्म नहीं थी। बल्कि आवरण रहित ठीक वैसी ही स्निग्धता थी जैसे समुद्र तटीय इलाके हर ज्वार-भाटा के बाद शाँत और स्निग्ध हो जाते हैं।

"संतोष बाबू क्या देख रहे हैं?"

"कुछ नहीं।"

ऋतम्भरा ने संतोष बाबू के दाईं हथेली को उलट-पुलटकर देखा। फिर उसे होठों से लगा कर चूम लिया। अपने सिर को संतोष बाबू की गोंद में रखकर झुण्ड के झुण्ड तारों को देखने लगी।

संतोष बाबू ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की, न ही उसका प्रतिवाद ही किया। वे घुप्प अंधेरे में गंगा की लहरों को देख रहे थे। बस देखे जा रहे थे।

- डॉ. श्याम नारायण
ई-मेल : shyam.kundan@gmail.com

 

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